सोमवार, 16 नवंबर 2009

पान की दूकान में छत्तीसगढ़ ज्ञान (अंतिम किश्त)

जी.के.अवधिया 

अब प्रश्न यह उठता है कि प्राचीनकाल से मध्य युग तक इस क्षेत्र का का नाम 'दक्षिण कोशल' रहा तो उसके बाद यह नाम 'छत्तीसगढ़' में क्यों परिणित हो गया?


इतिहास साक्षी है कि समय-काल-परिस्थिति के अनुसार स्थानों के नाम में अनेकों बार परिवर्तन होते हैं और बहुत से स्थान तो ऐसे हैं जिनके विषय में कहा ही नहीं जा सकता कि उन्हें कब किस नाम से जाना जाता था किन्तु छत्तीसगढ़ भारत के उन कुछ गिने चुने स्थानों में से एक है जिनके विषय में प्राचीनकाल से आज तक लोग जानते रहे हैं।


अंग्रेज शोधकर्ता मैकफॉर्सन के अनुसार 'हैहय वंशी आर्य शासकों के आगमन से पूर्व भी यहाँ गढ़ थे' हैहय वंशी शासकों के पूर्व यहाँ पर गोण्ड शासक हुआ करते थे। गोण्ड शासकों की व्यवस्था यह थी कि जाति का मुखिया प्रमुख शासक होता था और राज्य के हिस्सों को रिश्तेदारों में, जो कि प्रमुख शासक के अधीन होते थे, बाँट दिया जाता था। राज्य के इन हिस्सों को गढ़ के नाम से जाना जाता था। ध्यान देने योग्य बात है कि 'गढ़' संस्कृत का शब्द नहीं है, यह अनार्य भाषा गोण्डी का शब्द है। छत्तीसगढ़ में व्यापक रूप से प्रचलित 'दाई', 'माई', 'दाऊ' आदि भी गोण्डी शब्द हैं, संस्कृत के नहीं जो सिद्ध करते हैं कि हैहय वंशी शासकों के पूर्व यहाँ गोण्ड शासकों का राज्य था और उनके गढ़ भी थे जिन्हें हैहय वंशी शासकों ने जीत लिया। इससे यह भी सिद्ध होता है कि 'छत्तीसगढ़' नाम 1000 वर्षों से भी अधिक पुराना है।


गोण्ड राजाओं को जीतने के बाद हैहय वंशी शासको ने भी उनकी ही इस व्यवस्था को अपना लिया और यहाँ के पहले से ही मौजूद गढ़ों को नया रूप दिया।


रतनपुर राज और रायपुर राज


हैहय वंशी राजाओं ने छत्तीसगढ़ को रतनपुर राज और रायपुर राज नामक दो भागों में विभक्त कर दिया जो क्रमशः शिवनाथ के उत्तर तथा दक्षिण में स्थित थे। प्रत्येक राज में स्पष्ट और निश्चित रूप अठारह-अठारह ही गढ़ होते थे। इस प्रकार से दोनों राज्यों में गढ़ों की संख्या छत्तीस होने के कारण इस प्रदेश का नाम छत्तीसगढ़ हो गया।


गढ़ों की संख्या अठारह ही क्यों रखी गई थी इसका निश्चित् पता तो नहीं है किन्तु रतनपुर में सन् 1114 में प्राप्त एक उल्लेख के अनुसार चेदि के हैहय वंशी राजा कोकल्लदेव के अठारह पुत्र थे और उन्होंने अपने राज्य को अठारह हिस्सों में बाँट कर अपने पुत्रों को दिया था। सम्भवतः उसी वंश परंपरा की स्मृति बनाये रखने के लिये राज को अठारह गढ़ों में बाँटा जाता रहा हो। प्रत्येक गढ़ में सात ताल्लुका और प्रत्येक ताल्लुका में कम से कम बारह गाँव होते थे। इस प्रकार प्रत्येक गढ़ में कम से कम चौरासी गाँव होना अनिवार्य था। ताल्लुका में गाँवों की संख्या चौरासी से अधिक तो हो सकती थी किन्तु चौरासी से कम कदापि नहीं हो सकती थी। चूँकि राज्य सूर्यवंशियों का था अतः सूर्य के सात किरणों तथा बारह राशियों को ध्यान में रख कर ताल्लुकों और गाँवों की संख्या क्रमशः सात और कम से कम बारह रखी गईं थी। इस प्रकार सर्वत्र सूर्य देवता का प्रताप झलकता था।


नीचे ब्रिटिश शासन काल में छत्तीसगढ़ में पदस्थ सेटलमेंट आफीसर सी.यू. विल्स के द्वारा, चिशोलम के सैटिलमेंट रिपोर्ट तथा बिलासपुर गज़ेटियर के आधार पर बनाई गई एक तालिका दी जा रही है जिसमें गढ़ों में गाँवों की संख्या दर्शायी गई है।
रतनपुर राज
रायपुर राज
गढ़
गाँव
गढ़
गाँव
रतनपुर
360
रायपुर
640
मारो
354
पाटन
152
बिजयपुर
326
सिमगा
84
खरोद
145
सिंगारपुर
अज्ञात
कोटागढ़
84
लवन
252
नवागढ़
84
अमेरा
84
सोंथी
84
दुर्ग
84
ओखर
अज्ञात
सारडा
अज्ञात
मुंगेली सहित पँडरभट्ठा
324
सिरसा
84
सेमरिया
84
मोहदी
84
चाँपा
153
खल्लारी
84
बाफा
200
सिरपुर
84
छुरी
220
फिंगेश्वर
84
केण्डा
84
राजिम
84
मातिन
84
सिंगनगढ़
84
उपरौरा
84
सुअरमाल
84
पेण्ड्रा
84
टेंगनागढ़
84
कुरकुट्टी
700
अकल वारा
84



प्रशासनिक व्यवस्था


राजा पूरे अठारह गढ़ों का स्वामी होता था। पूरा राज उसके अधीन रहता था। राजा के सलाहकार उसके मंत्री और राजपुरोहित होते थे। राजवंश के लोगों को तथा राजा के सम्बन्धी लोगों को गढ़ के शासक रूप में नियुक्त किया जाता था। ये सभी 'गढ़पति' (यद्यपि अंग्रेजों ने इन्हें दीवान लिखा है) कहलाते थे और राजा के अधीन होते थे। कालान्तर में ये 'जमींदार' कहलाने लगे। वास्तव में ये अपने अपने गढ़ के राजा होते थे। इनके अधीन सात-सात 'ताल्लुकेदार' या 'तालुद्दार' होते थे (जन साधारण की भाषा में ये 'दाऊ' कहलाते थे) जो कि अपने अपने ताल्लुके के शासक होते थे। हर ताल्लुकेदार के अधीन गाँवों के स्वामी होते थे जो 'गउँटिया' कहलाते थे।

यद्यपि उपरोक्त व्यस्था राजतंत्रीय थी तो भी यह इतनी लचीली थी कि उसे लोकतंत्र का राजतंत्रीय रूप कहना अनुचित नहीं होगा। गाँव का गउँटिया, ताल्लुका का दाऊ, गढ़ का जमींदार केवल वंशानुगत शासक ही नहीं होते थे वरन वे समाज के मार्गदर्शक नेता भी होते थे। जहाँ शान्ति काल में ये प्रजा से कर वसूल वरते थे वहीं युद्ध के समय उनकी रक्षा करने के लिये प्राणोत्सर्ग करने से भी नहीं चूकते थे।


सामान्य रूप से ऊँचे अधिकारी नीचे वाले अधिकारियों के काम और प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करते थे। गाँव के प्रकरणों का न्याय 'पचायतों', जिसका सरपंच गउँटिया हुआ करता था, में ही कर लिया जाता था। शासक धार्मिक तथा उदार प्रवृति के होते थे। छत्तीसगढ़ के अनेक स्थानों में प्राप्त ताम्रपत्रों में उनके द्वारा दिये गए दान का उल्लेख मिलता है। रायपुर का पुराना डी.के. अस्पताल दाउ कल्याण सिंह की उदारता का आधुनिक उदाहरण है।


मध्ययुगीन छत्तीसगढ़ सुखी, सम्पन्न और शेष भारत से अलग पहचान वाला क्षेत्र था। तभी तो अंग्रेजो को कहना पड़ा कि "छत्तीसगढ़ की अपनी अलग विशेषता है। उसका राजनैतिक इतिहास स्वतंत्र रूप से विकसित हुआ है।"


छत्तीसगढ़ की सदा से अपनी विशेषता और संस्कृति रही है। जब छत्तीसगढ़ अंग्रजों के आधिपत्य में आया तब वे यहाँ की विलक्षणता को देख कर आश्चर्य-चकित रह गये। सी।यू. विल्स ने लिखा है कि महानदी के कछार में स्थित छत्तीसगढ़ का अपना स्वयं का व्यक्तित्व है। यहाँ की भाषा, पोशाक और व्यवहार में अपनी निजी विशेषताएँ हैं।

1 टिप्पणियाँ:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" 16 नवंबर 2009 को 9:58 am बजे  

बहुत सुन्दर, पूरा ही शोद परख लेख है अवधिया साहब , जैसा कि हमारे उत्तराँचल में भी है यहाँ पर गढ़ का शाब्दिक अर्थ छोटे किले और राजाओं के गढ़ से है और सीधा सा जबाब है कि यहाँ पर ३६ राज्य कभी रहे होंगे इसलिए ३६ गढ़ का नाम १००० साल पुराना होना कोई आर्श्चय की बात नहीं !