बुधवार, 30 दिसंबर 2009

आज पान दुकान में आई है साली

हमारा यह पान दुकान निठल्ले लोगों का नहीं बल्कि साहित्य तथा काव्य प्रेमियों का है। यहाँ चर्चा भी उन्हीं लोगों की रुचि के अनुसार होनी चाहिये। आज ललित शर्मा जी का आदेश हुआ पान दुकान में पोस्ट के लिये। बस याद आ गई हमें साली। अरे भाई श्री गोपाल प्रसाद 'व्यास' जी की साली पर लिखी हास्य कविता "साली क्या है रसगुल्ला है"। तो लीजिये आप भी रसगुल्ले का स्वाद!

साली क्या है रसगुल्ला है

गोपाल प्रसाद व्यास

तुम श्लील कहो, अश्लील कहो
चाहो तो खुलकर गाली दो !
तुम भले मुझे कवि मत मानो
मत वाह-वाह की ताली दो !
पर मैं तो अपने मालिक से
हर बार यही वर मांगूंगा-
तुम गोरी दो या काली दो
भगवान मुझे एक साली दो !

सीधी दो, नखरों वाली दो
साधारण या कि निराली दो,
चाहे बबूल की टहनी दो
चाहे चंपे की डाली दो।
पर मुझे जन्म देने वाले
यह मांग नहीं ठुकरा देना-
असली दो, चाहे जाली दो
भगवान मुझे एक साली दो।

वह यौवन भी क्या यौवन है
जिसमें मुख पर लाली न हुई,
अलकें घूंघरवाली न हुईं
आंखें रस की प्याली न हुईं।
वह जीवन भी क्या जीवन है
जिसमें मनुष्य जीजा न बना,
वह जीजा भी क्या जीजा है
जिसके छोटी साली न हुई।

तुम खा लो भले पलेटों में
लेकिन थाली की और बात,
तुम रहो फेंकते भरे दांव
लेकिन खाली की और बात।
तुम मटके पर मटके पी लो
लेकिन प्याली का और मजा,
पत्नी को हरदम रखो साथ,
लेकिन साली की और बात।

पत्नी केवल अर्द्धांगिन है
साली सर्वांगिन होती है,
पत्नी तो रोती ही रहती
साली बिखेरती मोती है।
साला भी गहरे में जाकर
अक्सर पतवार फेंक देता
साली जीजा जी की नैया
खेती है, नहीं डुबोती है।

विरहिन पत्नी को साली ही
पी का संदेश सुनाती है,
भोंदू पत्नी को साली ही
करना शिकार सिखलाती है।
दम्पति में अगर तनाव
रूस-अमरीका जैसा हो जाए,
तो साली ही नेहरू बनकर
भटकों को राह दिखाती है।

साली है पायल की छम-छम
साली है चम-चम तारा-सी,
साली है बुलबुल-सी चुलबुल
साली है चंचल पारा-सी ।
यदि इन उपमाओं से भी कुछ
पहचान नहीं हो पाए तो,
हर रोग दूर करने वाली
साली है अमृतधारा-सी।

मुल्ला को जैसे दुःख देती
बुर्के की चौड़ी जाली है,
पीने वालों को ज्यों अखरी
टेबिल की बोतल खाली है।
चाऊ को जैसे च्यांग नहीं
सपने में कभी सुहाता है,
ऐसे में खूंसट लोगों को
यह कविता साली वाली है।

साली तो रस की प्याली है
साली क्या है रसगुल्ला है,
साली तो मधुर मलाई-सी
अथवा रबड़ी का कुल्ला है।
पत्नी तो सख्त छुहारा है
हरदम सिकुड़ी ही रहती है
साली है फांक संतरे की
जो कुछ है खुल्लमखुल्ला है।

साली चटनी पोदीने की
बातों की चाट जगाती है,
साली है दिल्ली का लड्डू
देखो तो भूख बढ़ाती है।
साली है मथुरा की खुरचन
रस में लिपटी ही आती है,
साली है आलू का पापड़
छूते ही शोर मचाती है।

कुछ पता तुम्हें है, हिटलर को
किसलिए अग्नि ने छार किया ?
या क्यों ब्रिटेन के लोगों ने
अपना प्रिय किंग उतार दिया ?
ये दोनों थे साली-विहीन
इसलिए लड़ाई हार गए,
वह मुल्क-ए-अदम सिधार गए
यह सात समुंदर पार गए।

किसलिए विनोबा गांव-गांव
यूं मारे-मारे फिरते थे ?
दो-दो बज जाते थे लेकिन
नेहरू के पलक न गिरते थे।
ये दोनों थे साली-विहीन
वह बाबा बाल बढ़ा निकला,
चाचा भी कलम घिसा करता
अपने घर में बैठा इकला।

मुझको ही देखो साली बिन
जीवन ठाली-सा लगता है,
सालों का जीजा जी कहना
मुझको गाली सा लगता है।
यदि प्रभु के परम पराक्रम से
कोई साली पा जाता मैं,
तो भला हास्य-रस में लिखकर
पत्नी को गीत बनाता मैं?

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मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

सुन्दर टैम्प्लैट वाला पान ठेला और जर्दे वाली मीठी पत्ती

बहुत दिनों से पान ठेले पर हमारी अनुपस्थिति देखकर ललित शर्मा जी के साथ ही पान ठेले वाले भी चिंतित थे। दरअसल हम नगरीय निकाय के चुनाव में व्यस्त थे और पान ठेले की चर्चा में पान के पीक घुटकते और पिचकारी मारते हुए शामिल नहीं हो पा रहे थे। आज दिनभर छत्तीसगढ के सभी पान ठेलों पर नगरीय निकाय चुनाव परिणामों की चर्चा हो रही थी, सो हम आज अनमने से घर से निकले और अपने एक पान खाने के शौकीन टायपिस्टि टाईप मित्र के साथ टहलते हुए शहर के एक पान ठेले पर जाकर खडे हो गए।

पान का आर्डर देने के पहले हमने पान ठेले के टैम्पलैट का मुआयना किया, आजू बाजू के साईडबार में पाउच गुटकों के विजेट लटकते मुस्कुरा रहे थे। फोटोशाप से बना सुन्दर हैडर चमचमा रहा था। हैडर के नीचे झिलमिल कर रही चायनीज लाईटों की लडी स्क्रोल होते मरकी जैसी नजर आ रही थी, जैसे उसमें लिखा हो आईये मेरे ठेले पर आईये, गुटका मसाला खाईये और फ्री में कैंसर का रोग ले जाईये। एड सेंस जैसे सिगरेट के विज्ञापन चिपके थे .....

‘वाह ! ......... बडा सुन्दर पान ठेला है भाई आपका, दो पान बनाईये।’
‘कौन सी पत्ती बनाउ बाबू, एक्सप्लोरर, मोजिला, क्रोम, ओपेरा या सफारी.’ उसने मीठा-बंगला-कपुरी टाईप पूछा।

‘सफारी’ का नाम सुनते ही हम उत्साह से भर गए बोले वही बनाओ भाई, हमारे एक मित्र उसी पत्ती में मसाला पान खाते हैं। हमें भी एक बार चखाया था। हमारे साथ वाले मित्र को सफारी कुछ नये टाईप की पान पत्ती‍ लगी वह समझ ही नहीं पाया तो हमने फिर समझाया कि ये पत्ती बडे काम की पत्ती है इसके खाने से दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। बिना पूछे चुपचाप पान खाओ तुम नही समझ पाओगे अभी तो तुम कवीता और टिप्पणी करना ही सीख पाये हो। मित्र हमारे कहने पर और मुफ्त मे मिलने पर संतुष्ट होकर पान ‘पगुराने’ लगा. उसके आंखों में रेमिंगटन आईएमई यूनिकोड टूल पाने के बाद वाली चमक मैं स्पष्ट देख पा रहा था। साथ में आया मित्र पान ठेले में ही खडे होकर ब्लागजगत की चिंतनकारी और विष्फोटक बातें करना चाह रहा था पर हम इस पर कोई चर्चा नहीं करना चाह रहे थे, क्योंकि हम जानते थे कि जैसे ही हम बात करना शुरू करेंगे मित्र अपने ब्लाग का क्या नाम रखूं यह पूछेगा। और आखरी में भावविभोर हो जाने पर विवश करते हुए भाव लिये कहेगा मेरे ब्लाग के लिए एक झकास नाम तो सुझा मित्र।

मित्र नया-नया कम्यूटर व इंटरनेट प्रयोग्ता बना है, बार-बार बातें ब्लाग तक ले आता था और अपनी बातों पर हमारी टिप्पणी भी चाहता था। मैं हां-हूं कर उसे टरका रहा था।  अचानक हमारी नजर पान ठेले में लगी प्रसिद्ध अभिनेत्री मीनाकुमारी के चित्र पर पडी और हमनें मित्र से पूछा जानते हो मीनाकुमारी के छ:-छ: नाम थे। मित्र के बातों में रस लेते देख हमने मीनाकुमारी के संबंध में पढी जानकारी मित्र पर ठेल दिया। आप भी पढें -

फिल्मी कलाकार अक्सर पर्दे पर आकर अपने असली नाम बदल लेते हैं। इसके जीते-जागते उदाहरण हैं फिल्म इंडस्ट्री के ये कलाकार। कुमुद कुमार गांगुली अशोक कुमार और यूसुफ खान दिलीप कुमार बन गए। मुमताज जहां बेगम मधुबाला बनकर चमकीं, तो रीमा लाम्बा आज मलिका शेरावत के नाम से तहलका मचा रही हैं। हालांकि एक हीरोइन ऐसी भी थीं, जिनके एक-दो नाम नहीं, आधा दर्जन नाम थे। वे थीं मीना कुमारी। थिएटर की नर्तकी इकबाल बानो और हारमोनियम बजाने वाले मास्टर अली बख्श की तीसरी लड़की हुई, तो उन्होने  उसका नाम रखा महजबीं आरा। बहुत की कम लोगों को मालूम है कि मीना कुमारी की मां का संबंध रविन्द्रनाथ टैगोर परिवार से था। वे टैगोर परिवार की बहू थी, लेकिन बाद में उन्होने मुस्लिम धर्म अपनाकर मास्टर अली बख्श से निकाह कर लिया था। इकबाल बानो और मास्टर अली बख्श की तीसरी संतान महजबीं की आंखें छोटी थीं, इसलिए घरवालों ने प्यार से बाद के दिनों में उसे चीनी बुलाना शुरू कर दिया।

मां की बीमारी और पिता की बेकारी ने महजबीं को बचपन में बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट फिल्मों में काम करने पर मजबूर किया। उन्होने  प्रकाश पिक्चर्स की लेदर फेस में पहली बार काम किया। उस समय उनका नाम रखा गया बेबी मीना। इस नाम से उन्होने कई फिल्मों में काम भी किया। उल्लेखनीय यह है कि होमी वाडिया की फिल्म बच्चो का खेल में बेबी मीना ने पहली बार हीरोइन का रोल किया। वे इस फिल्म में मीना कुमारी बन गई और फिर इसी नाम से आखिरी फिल्म गोमती के किनारे तक लगातार काम करती रहीं। वैसे, मीना कुमारी का पांचवां नाम नाज भी था। उन्हे शायरी से गहरा लगाव था और खुद भी शायरी करती थीं। शायरी के लिए वे उपनाम नाज का इस्तेमाल करती थीं। मीना कुमारी को छठा नाम उनके पति कमाल अमरोही ने दिया था। वे मीना को यार से मंजू कहते थे। यहां तक कि मीना कुमारी से अनबन हो जाने के बाद भी कमाल अमरोही ने उन्हे जो खत लिखे, उनमें उन्हे मेरी मंजू ही लिखा। यानी एक अभिनेत्री मीना कुमारी के ही आधा दर्जन नाम थे- महजबीं आरा, चीनी, बेबी मीना, मीना कुमारी, नाज और मंजू। नाज के नाम से उन्होने गज़ल और शायरी की और कई को अपनी आवाज भी दीं। अपनी शायरी की अनमोल विरासत मीना कुमारी अपने मरने से पहले ही गुलजार के नाम कर गईं। मीना कुमारी ने अपनी वसीयत में अपनी कविताएं छपवाने का जिम्मा गुलजार को दिया, जिसे उन्होने नाज उपनाम से छपवाया।

मित्र अब तक काफी बोर हो चुका था सो हम दोनों पान ठेले पर और आने का वादा करते हुए अपने अपने रास्ते हो लिये.

संजीव तिवारी

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रविवार, 27 दिसंबर 2009

योगेन्द्र मौदगिल उवाच.."सुण ल्यो रै"........

फौज म्हं भरती होग्या ताऊ....


एक बै की बात...
माइ डीयर भाइयों अर डीयरेस्ट भाभियों


बात तब की सै जिब ताऊ जवान था उस टेम ताऊ मनोज कुमार की फिलम देख्या करता
फिलम देखता-देखता जोश म्हं आकै एक दिन्न फौज म्हं भरती होग्या
अर ट्रेनिंग पै चल्या गया


ईब भाई ट्रेनिंग आला मेजर सारा दिन ट्रेनिंग देता
ताऊ होग्या दुखी
दिमाग लड़ाया अक क्यूक्कर छुटकारा मिलै
हरियाणे का आदमी पीठ दिखा कै या मूं छिपा कै तो भाग्गै कोनी
ईब के करूं ?
ताऊ नै जितने बी देवी-देवता याद आये उनका नाम ले-ले कै तरकीब सोचणी सुरू करी
कमाल....!
कमाल का आइडिया रात नै ई आग्या....!
ताऊ सबेरे सबेरे मेजर धौरै पहोंचा अर बोल्या मेजर साब
म्हारे घरां तै फोन आया सै अक म्हारा बाप्पू चल बस्या थम हमनै उसके किरयाकरम खात्तर छुट्टी देद्यो
मेजर नै दे दी
ताऊ घरां चला गया देखते-देखते छुट्टियां बीतगी वापस फौज मैं आग्या
जी ईब बी ना लाग्गै सोच्या क्यूक्कर ल्यूं छुट्टी


हरियाणे का आदमी पीठ दिखा कै या मूं छिपा कै तो भाग्गै कोनी
ईब के करूं
ताऊ नै फेर जितने बी देवी-देवता याद आये उनका नाम ले-ले कै तरकीब सोचणी सुरू करी
कमाल
कमाल का आइडिया रात नै ई फेर आग्या
ताऊ सबेरे सबेरे मेजर धौरै पहोंचा अर बोल्या मेजर साब
म्हारे घरां तै फोन आया सै अक म्हारी मां चल बस्यी थम हमनै उसके किरयाकरम खात्तर छुट्टी देद्यो
मेजर नै दे दी
ताऊ घरां चला गया देखते-देखते छुट्टियां बीतगी वापस फौज मैं आग्या
जी ईब बी ना लाग्गै सोच्या क्यूक्कर ल्यूं छुट्टी


पर ताऊ के मान्नै था..?
ताऊ फेर सबेरे सबेरे मेजर धौरै पहोंचा अर बोल्या मेजर साब...
म्हारे घरां तै फोन आया सै अक म्हारा बापू चल बस्या थम हमनै उसके किरयाकरम खात्तर छुट्टी देद्यो
मेजर नै दे दी
ताऊ घरां चला गया देखते-देखते छुट्टियां बीतगी वापस फौज मैं आग्या
जी ईब बी ना लाग्गै सोच्या क्यूक्कर ल्यूं छुट्टी


पर कमाल.......... ताऊ के मान्नै था....?
ताऊ फेर सबेरे सबेरे मेजर धौरै पहोंचा अर बोल्या मेजर साब
म्हारे घरां तै फोन आया सै अक म्हारी मां चल बस्यी थम हमनै उसके किरयाकरम खात्तर छुट्टी देद्यो
मेजर नै दे दी ताऊ घरां चला गया


ये तरीका ताऊ नै जिब छटी-सातवीं बार दोहराया तो मेजर का माथा ठनका उसनै अपना कलर्क बुलाया अर सारी डिटेल कढ़वाई


कमाल की डिटेल ताऊ नै चार बेर बापू मार राखया अर पांच बेर मां...


मेजर नै ताऊ बुलाया अर बोल्या रै जवान मुझे तो तेरे पै बहोत यकीन था पर तू तो बहोत झूठा निकला


ताऊ बोल्या मेजर साब मैं सूं हरियाणे का झूठ नहीं बोलता आप मेरे पै गलत इल्जाम मत लगाऒ


मेजर नै डिटेल काढ़ कै उसके आग्गै धर दी अक् यू के सै ?
तू अगर झूठ नहीं बोलता तो बता यू चार बेर बापू का किरयाकरम अर पांच बेर मां का किरयाकरम क्यूक्कर कर्या


ताऊ बोल्या जी इसमैं झूठ के मैं तो असली का किरयाकरम कर कै आया


मेजर चिल्लाया रै ताऊ फेर झूठ बोल रह्या


ताऊ बोल्या रै मेजर साब चुप होजा मैं झूठ कोनी बोल रह्या ध्यान तै सुण
देख जिब पहली बार मेरा बापू मरा... मैं गया.. किरयाकरम कर कै आग्या.. मेरी मां नै दूसरा ब्याह कर लिया..
फेर मेरी मां मरगी... मैं गया.. किरयाकरम कर कै आग्या तो मेरे बापू नै दूसरा ब्याह कर लिया...
फेर मेरा वो बापू मरग्या... मैं गया किरयाकरम कर कै आग्या... तो मेरी इस मां नै दूसरा ब्याह कर लिया...
फेर मेरी या वाली मां मरगी... मैं गया.. किरयाकरम कर कै आग्या तो मेरे इस बापू नै दूसरा ब्याह कर लिया.


मेजर हाथ जोड़ कै बोल्या रै मेरे हरियाणवी बाप मान ग्या तनै
ईब तू चल्या जा भीत्तर....


ताऊ बोल्या जी... क्यूक्कर चल्या जाऊं... घरां तै फोन आया सै अक् मेरी मां मरगी छुट्टी देद्यो...
मेजर अपने बाल नोचता होया भाग खड्या होया....


अर म्हारा ताऊ खड्या खड्या सोच रहा.... अक मनै ईसा के कह दिया अक् यू मेजर न्यू ऐ भाज लिया.....
--योगेन्द्र मौदगिल



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शनिवार, 26 दिसंबर 2009

गइया को कचरा, तू दूध डकार!!!

गिरीश पंकज 
हमारे मुहल्ले में एक गौ-सेवक रहते हैं। अक्सर पान ठेले पर आते है, और गुटखा खा कर पूरे शहर में चित्रकारी करते घूमते है . पिच..पिच..करके थूकने की  प्रतिभा का प्रदर्शन भी करते है.  उनकी गायों की हड्डियों और गो-सेवक जी की तंदरुस्ती देख कर मैं समझ जाता हूँ, कि पट्ठा गो माता की सेवा करते-करते इतना बलिष्ठ हो गया है लेकिन गो-माता इतनी दुबली-पतली क्यों है? बहुत देर तक कारण सोचता रहा। फिर ख्याल आया, कि माँ तो माँ होती है न। बेटे को अपना खून सुखा कर भी दूध पिलाती है। यह गउ माता भी इसी कोटि की माँ है।
एक दिन मैंने देखा पान ठेले के पास ही पड़े कचरे में उनकी गैया मुंह मार रही थी.
एक दिन मैं गो-सेवक जी के घर पहुँचा। दूर से देखा, वह गाय का दूध दुहने के बाद उसमें पानी मिलाने का पवित्र-कर्म कर रहे थे। मुझे देख कर थोड़ा-सा सकुचाए। कहने लगे- 'आजकल लोगों को प्योर दूध हजम नहीं होता इसलिए सबके स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए थोड़ा बहुत पानी मिलाना पड़ता है। न चाहते हुए भी कई बार कुछ गलत-सलत काम तो करने ही पड़ते हैं साहब।Ó
 ''ये गलत नहीं, बिल्कुल सही काम है।Ó मैंने मुसकराते हुए कहा,  'दूध पचाने के लिए आप पानी मिला रहे हैं। पैसा कमाने के लिए थोड़े न ऐसा कर रहे हैं ?ÓÓ
 वह समझ नहीं सके, कि हाँ बोलूं या ना। मौन रहे। फिर अपनी गायों को सहलाने लगे। मैं गायों की हड्डिïयाँ गिनने लगा। थोड़ी देर बाद उन्होंने गायों को तिलक लगाया और प्रणाम किया। फिर उनके गले में बंधी रस्सी खोल कर ढील दी और मुझे देख कर मुसकराने लगे।
 ''यह मेरा रोज का क्रम है। गऊ माताओं को प्रणाम कर के ढील देता हूँ शहर की सड़कों पर।ÓÓ
''उस दिन गली में कुछ गऊ माताएं पॉलीथिन के बैग्स में भरे हुए जूठन को खा रही थीं।Ó मैंने कहा, 'कुछ गाएँ नुक्कड़ में मुँह मार रही थीं, क्या वे आपके यहाँ की गौ माताएं थीं ?ÓÓ
गो-सेवक अचकचा गए। बोले- ''अरे नहीं साब, हम अपनी गायों को कचरा-जूठन नहीं, अच्छा चारा खिलाते हैं, चारा। पौष्टिïक चीजें देते हैं। आखिर गाय हमारी माता है। इससे वर्षों पुराना नाता है।ÓÓ
बातचीत हो रही थी। तभी एक सज्जन गुस्से में फनफनाते हुए आ टपके। गो-सेवकजी पर बरसते हुए बोले- ''ये क्या तमाशा है पंडित जी, कितनी बार समझाया, लेकिन आपको तो कुछ समझ में ही नहीं आता। अरे, गाय का दूध तो आप पी रहे हैं और मुँह मारने के लिए हमारे बगीचे में भेज देते हो? शर्म नहीं आती ? तुम्हारी गाय और फलाने की बेटी, दोनों आजकल आवारा होती जा रही हैं। कहीं कुछ ऊँच-नीच हो गया, तो लेने के देने पड़ जाएंगे। अरे, गाय अंट-शंट खाते-खाते पॉलीथिन जैसे ज़हर को कब तक पचाएगी? कुछ तो गऊ माता की इज्ज़त करो। भविष्य में तुम्हारी गायें अगर मेरे बगीचे को चरती मिलीं, तो सीधे कांजी हाउस में भेज दूँगा, हाँ।ÓÓ
सज्जन के आक्रामक तेवर के चलते गो-सेवक जी सन्न-सट्ट रह गए। हकलाते हुए कहने लगे- ''अरे साब, आप तो जबरन कुछ की कुछ बके जा रहे हैं। मेरी गाएं इधर-उधर मुँह नहीं मारतीं। चरवाहा आता है और खेत ले जाता है।ÓÓ
 ''हमें उल्लू मत बनाइएÓ, सज्जन बोले, 'यहाँ कहाँ खेत आ गए  कांक्रीट के जंगल में ? ढंग से गायों की सेवा नहीं करते और खुद को गो-सेवक बोलते हो?ÓÓ
सज्जन आँधी की तरह आए और तूफान की तरह लौट गए। गो-सेवक की हालत उस नाले की तरह हो गई जिसका सीमेंटेड ढक्कन खुल गया हो और बदबू फैलती जा रही हो। फिर भी अपने को शुद्ध नदी प्रमाणित करते हुए गो-सेवक जी बोले- 'देखा साहब, क्या ज़माना आ गया है। गो-माता की सेवा करने का यह सिला मिला।Ó
मुझे लगा, अब मुझे भी इस महान गो-सेवी के पास ज्यादा देर नहीं रुकना चाहिए, वरना मेरी आत्मा में भी उस सज्जन की तरह नैतिक बल जोर मारेगा तो मैं भी गरियाने लगूँगा। सो, मैंने लौटना ही मुनासिब समझा। तब तक मन में एक दोहा आकार ले चुका था। आप भी देंखें -
गो सेवक जी धन्य हो, धन्य तेरा उपकार।
गाय  को  कचरा खिला,  तू तो दूध डकार।

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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

सैंटा ज़रूर आएगा!!

***राजीव तनेजा***



क्रिसमस की छुट्टियाँ क्या आरम्भ हुई कि बच्चों का चहकना भी साथ ही साथ शुरू हो गया कि..."सैंटा क्लाज़ आएगा...सैंटा क्लाज़ आएगा...नए-नए तोहफे लाएगा"...उन बेचारों को क्या मालुम कि गिफ्ट तो हर साल उनके तकिए के नीचे उनका मामा याने के मेरा साला रख जाता है...जो इस बार भारत में नहीं बल्कि अमेरिका में है।बच्चे बेचारे तो हमेशा से यही समझते थे कि ये सब सैंटा करता है...सो!..उसी का गुणगान करते नहीं थक रहे थे और मैँ इसी उधेड़बुन में फंसा था कि कैसे समझाऊँ इन्हें कि इस बार कोई सैंटा  नहीं आने वाला है।समझ नहीं आ रहा था कि वजह पूछेंगे तो क्या जवाब दूंगा?..कैसे कहूँगा कि उनका मामा जो इस बार इंडिया में नहीं.. बल्कि 'अमेरिका' में है?..इसलिए 'गिफ़्ट्स' का तो सवाल ही नहीं पैदा होता।
मेरे हिसाब से तो उन्हें सच्चाई से रुबरू करवा ही देना ही बेहतर रहता,इसलिये मैने भी दो टूक जवाब दे दिया कि "कोई 'सैंटा-वैंटा' नहीं आने वाला है इस बार लेकिन बच्चे तो बच्चे ...विश्वास ही नहीं हो रहा था उन्हें मेरी इस बात का।उन्हें अपने विश्वास पे कायम देख मैँ भी पूरी तरह से ज़िद पे अड बैठा कि....मैँ तो दुअन्नी भी नहीं खर्च करूँगा अपने पल्ले से..रोते हैँ तो बेशक रोएँ जी भर के।अगर वो ज़िद पर अड़ सकते हैँ तो मैँ क्यों नहीं?आखिर!...बाप हूँ उनका..कोई ऐंवे ही का कोई आलतू-फालतू नहीं।अब!...कह दिया तो..बस...कह दिया...अब अपने कहे से पीछे हटने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता।
अपने टाईम पे हमने कौन सा ऐश कर ली जो इन निगोड़ों को मैँ करवाता फिरूँ? लेकिन दिल के किसी कोने में एक सवाल सा उठ रहा था बार-बार कि..क्या मेरी औलादें भी हर उस चीज़ के लिए तरसती रहेगी जिस-जिस चीज़ के लिए मै तरसा? ...क्या इन मासूमों ने पैदा होकर कोई गुनाह किया है? क्या इनकी कोई हसरतें...कोई अरमान नहीं हो सकते?...क्या इनको भी मेरी तरह ही घुट-घुट कर जीना पडेगा?..क्या इनकी सारी इच्छाएँ..मात्र इच्छाएँ बन कर रह जाएँगी?...क्या कभी पूरे नहीं होंगे इनके सपने?
ध्यान पुरानी यादों की तरफ जाता जा रहा था...हमारे बाप-दादा ने कभी हमें ऐश नहीं करवाई।वो खुद तो पूरी ज़िन्दगी नोट कमा-कमा के थक गये लेकिन जैसे दुअन्नी भी खर्चा करना हराम था उनके लिये।वो भला कैसे लुटाते फिरते अपनी दौलत किसी दूसरे पे?...शुरू से निन्यानवे के फेर में जो पड चुके थे...सो!...लगे रहे पूरी ज़िन्दगी उसी चक्कर में...कभी बाहर ही नहीं निकल पाए।...लेकिन मैँ पूछता हूँ कि क्या फायदा ऐसी दौलत का कि अपने...अपने ही ना रहें?...बाड़ ही खेत को खाने लगे?...जिन पर भरोसा किया...उन्होने ही बेडा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिसके हाथ जो लगा,उसने उसी को सम्भाल लिया।किसी ने गोदाम....तो किसी ने खेत...किसी ने प्लाट पे कब्ज़ा जमा ठेंगा दिखा दिया...कोई  नकदी पे नज़र गड़ाए बैठा था...तो कोई दूर का...अनजाना सा रिश्तेदार सेवा करने के नाम पे चिपका बैठा था...कोई दादा जी को उनके नाम का मन्दिर बनवा...स्वर्ग जाने का रास्ता सुझा रहा था। सुझाता भी क्यों ना?...आखिर!...मन्दिर का ट्रस्टी जो उसे ही बनना था।असल में...सबको अपनी-अपनी ही पड़ी थी...तगडा माल जो हाथ लगने की उम्मीद थी लेकिन ऊपरवाले के घर देर है पर अन्धेर नहीं..."जाको राखे साईयाँ...मार सके ना कोए"
ऐन मौके पर सब कुछ हाथ से निकलता देख हमारे पिताजी और चाचा जी में सुलह हो गयी।उनकी आपसी फूट का ही तो ये सब नतीज़ा था कि....घरवाले चुपचाप खडे तमाशा देखते रह गये और कुत्ते मलाई चाटते चले गये।इतना सब कुछ होने के बाद भी हालात कुछ खास बुरे नहीं थे हमारे...ऊपरवाले की दया से काफी कुछ अब भी बचा रह गया था लेकिन शायद....इतना सबक काफी नहीं था हमारे बुज़ुर्गों के लिये।...अब भी पैसे के पीर बने बैठे हैँ...छाती से लगाए बैठे हैँ दौलत को... ये भी भूले बैठे हैँ कि एक ना एक दिन तो सभी को ऊपर जाना है...फिर ये सब भला किस काम आएगा? कौन लूटेगा मज़े इसके? क्या फायदा ऐसी दौलत का जो किसी काम ना आए? खर्च ना कर सको जिस दौलत को...ऐसी दौलत बेमतलब की है...फिज़ूल की है।अभी जोड़ते रह जाओ ...बाद में पराए लूट ले जाएँ सब। ये क्या बात हुई कि बस..घडी-घडी टुकुर-टुकुर ताकते फिरो अपनी तिजोरी को?...बाद में पता चले कि बाहर तो ताला लटका रह गया और अन्दर ही अन्दर माल-पानी कोई और ले उडा। अरे!...समझो कुछ....पता है ना कि पैसा बना ही खर्च करने के लिए है? तो फिर खर्च क्यों नहीं करते हो यार?...किस शुभ घडी का इंतज़ार है आपको?
मेरा पूरा बचपन खिलौनों के लिए तरसता रहा लेकिन....नहीं मिले। जवान हुआ तो मोटर बाईक के लिये तरसता रहा लेकिन नहीं मिलनी थी,...सो!..नहीं मिली। उल्टा...जवाब मिला कि...पूरी दुनिया बसों में धक्के खाती फिरती है....
तुम भी खाओ। पढाई में भी तो इसी चक्कर में पिछड गया था मैँ....जब नई किताबों और ट्यूटर लगवाने की बात की तो जवाब मिला... सैकेंड हैंड मिलती हैँ बाज़ार में...वही ले आओ और  ये ट्यूटर-ट्यूटर की क्या टर्र-टर्र लगा रखी है?...अपने आप पढो...हमने भी अपने आप पढाई की है लैम्प पोस्ट के नीचे बैठे-बैठे। शुक्र मनाओ ऊपरवाले का कि तुम्हारे सर पे छत तो है।गनीमत समझो कि इतना भी नसीब हो रहा है तुम्हें...हमारे बाप ने तो हमें इतना भी नहीं दिया जितना तुम खा-पहन और ओढ रहे हो। खुद कमाने लगोगे तो आटे-दाल का भाव पता चलेगा। जैसे अपने बाप-दादा के राज में हम ऐश नहीं कर पाए....वैसे ही तुम भी नहीं कर पाओगे....हमारे जीते जी। समझे कुछ?...या दूँ कान के नीचे एक बजा के?
आखिर!...क्या नाजायज़ मांग लिया था मैने?...क्या मुझे खिलौनों से खेलने का शौक नहीं रखना चाहिये था? या फिर....सब दोस्तों को बाईक चलाते देख उसके बारे में सोचना भी नहीं चाहिये था?...'बाईक' ना होने की वजह से ही तो मेरी 'गर्ल फ्रैंड'...हाँ!..मेरी गर्ल फ्रैंड मेरी नहीं रही थी...छोड़ कर चली गयी मुझे किसी दूसरे की खातिर...उसके पास नई 'यामाहा RX 100' जो थी और मेरे पास पुराना 'प्रिया' स्कूटर...स्कूटर या बस में बैठना पसन्द जो नहीं था उसे और.... और मैँ 'बाईक' कहाँ से लाता?...चोरी करता या कहीं डाका डालता?
पता ही नहीं चला कब आँखो से झर-झर आँसुओं की धारा बह निकली...ये भला क्या बात हुई कि बेशक तिजोरी भरी की भरी पड़ी सड़ती फिरे लेकिन रहना फटेहाल ही है।बड़े-बूढे सोचते हैँ कि वो आने वाली नस्ल के लिए जोड रहे हैँ...
तो एक बात बताओ यार कि आने वाली नस्ल क्या आसमान से टपकेगी?.. जो सीधे तौर पर उनके वारिस हैँ....उनसे डाईरैक्टली जुड़े हैँ...वो तो तरसते फिरें ..और ये महाशय चले हैँ जोड़ने...आने वाली नस्लों के लिए"
"हुँह!...उनका ख्याल है इन्हें ...जिन्हें ना इनका नाम मालुम होगा और ना ही रिश्ता और ना ही होगी छोटे-बड़े की कोई कदर। अरे!...ये पुरानी कहावत भी तो इन्ही की ज़बानी सुनी थी कभी हमने कि...
"पूत कपूत तो क्यों धन संचय?...पूत सपूत तो क्यों धन संचय?"
मतलब कि..अगर औलाद नालायक निकली तो फिर जोड़ कर क्या फायदा?...वो तो सब उजाड़ ही देगी और अगर औलाद लायक निकली तो फिर जोड-जोड के फायदा ही क्या है?...वो तो खुद ही उस से कहीं ज़्यादा अपने आप खा-कमा लेगी।
बस!..ये ख्याल दिल में आते ही मैने मन ही मन ठान लिया कि अब ऐसा नहीं होगा।...मैँ अपने बच्चों की हर जायज़ फरमाईश को पूरा करूंगा...अपने जीते जी उनको किसी चीज़ के लिये तरसने नहीं दूंगा...और मैँ बच्चों को बुला कह रहा था कि ... सैंटा ज़रूर आएगा...हाँ!..ज़रूर आएगा

***राजीव तनेजा***
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गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

राजिम - छत्तीसगढ़ का प्रयाग

राजिम का स्थान छत्तीसगढ़ के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में आता है। यह महानदी के तट पर स्थित है।

प्राचीनकाल में राजिम को कमलक्षेत्र के नाम से जाना जाता था। माना जाता है कि शेषशैय्या पर सोये हुए भगवान विष्णु के नाभि से निकला कमल, जिससे ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई थी, यहीं पर स्थित था जिससे इसका नाम कमलक्षेत्र पड़ा। ब्रह्मा जी ने राजिम से ही सृष्टि की रचना की थी।

राजिम में छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध राजीवलोचन मंदिर है। राजीवलोचन मंदिर में भगवान विष्णु की प्रस्तर प्रतिमा प्रतिष्ठित हैं।

तीन नदियों, महानदी, पैरी नदी और सोंढुर नदी, का त्रिवेणी संगम होने के कारण राजिम को छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहलाने का भी गौरव प्राप्त है। संगम में अस्थि विसर्जन तथा संगम किनारे पिंडदान, श्राद्ध एवं तर्पण किया जाता है।

संगम के बीचोबीच कुलेश्वर महादेव का विशाल मन्दिर बना हुआ है जिसकी शोभा देखते ही बनती है। किंवदन्ती है कि त्रेता युग में अपने वनवास काल के समय भगवान श्री राम ने इस स्थान पर अपने कुलदेवता महादेव जी की पूजा की थी इसलिये इस मन्दिर का नाम कुलेश्वर हुआ।

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मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

म्हारा ताऊ .......


या बात उन दिनों की सै जब म्हारा ताऊ बोम्बे मैं रहया करै था
एक दिन भाटिया जी का जी कर पडा अक ईबकै तो जरमनी जाता होया ताऊ नै मिल कै जाऊंगा सो आव देख्या ना ताव भाटिया जी म्हारी भाभी अर भतीज्जों नै लेकै ताऊ कै पहोंचगे
दिन तो आवभगत अर मजाकबाजी मैं कट ग्या
रात होगी

भाटिया जी का वहीं रहण का इरादा देख कै ताई बोली, रे बीजमरे, यो तेरा भाटिया जी तो न्यू लाग्गै अक कुणबे नै लेकै अड़ैई सोवेगा.......... अर म्हारै फालतू खाट कोनी.......... ईब के करैं..........
ताऊ बोल्या.......... ताई बणगी अर अकल रिवाड़ी छोड़ यायी........... इस म्हं चिंता के........... यहां पड़ौस मैं नीरज जी रहवैं सैं उनकै तै खाट मांग ल्यावांगें............ मैं ईब गया अर ईब आया

न्यू कहकै ताऊ नीरज जी कै चाल पडया
नीरज जी नै दरवज्जे की घंटी सुणी अर दरवाजा खोलते ही ताऊ नै देख कै खुसी तै चिल्लाया.............. वैलकम.. स्वागतम.. वैलकम.. स्वागतम..

ताऊ हंसते होए भीत्तर आग्या

नीरज जी बोल्ले, ताऊ इस टैम क्यूक्कर...?

ताऊ नै बगैर किसी भूमिका कै सारी बात बता दी....... अक भाई तेरे धौरै फालतू बैड पडया हो तो दे दे..

नीरज जी बोले
ताऊ तनै तो पता ई सै.... अक मैं झूठ नहीं बोलता.... अर साच्ची बात या सै.... अक म्हारे घर मैं दो बैड सैं... एक पै म्हारी घरआली अर म्हारी माता जी सोवैं.... अर दूसरे पै मैं अर मेरे पिता जी सोवैं...

ताई बोल्या, रै नीरज जी, मनै पता सै.... थम झूठ नहीं बोलते......... थमनै जिसा कहया सै उसा ही होगा........ पर भाई एक बात कहूं बैड देण कै तो मारो गोली पर सोया तो कम तै कम तरीकै तै करो..........
--योगेन्द्र मौदगिल

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सोमवार, 21 दिसंबर 2009

बोया पेड़ बबूल का

***राजीव तनेजा***
चेहरा उदास हो चला था और माथे से  पसीना रुकने का नाम नहीं ले रहा था…कंपकपाते हुए हाथों से फोन को वापिस रख मैँ निढाल हो वहीं सोफे पे धम्म जा गिरा|सोच-सोच के परेशान हुए जा रहा था कि क्या होगा?....कैसे होगा?...कैसे मैनेज करुंगा सब का सब? कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि क्या किया जाए? और कैसे किया जाए? बार-बार ऊपरवाले को याद कर यही प्रार्थना किए जा रहा था कि काश!…ये होनी टल जाए किसी तरह|उनका आना कैंसल करवा दे भगवान|इक्यावन!… पूरे इक्यावन रुपए का प्रसाद चढाउंगा|सच ही तो कहा है किसी नेक बन्दे ने कि …”जब आफत लगी टपकने...तो खैरात लगी बटने"
अन्दर ही अन्दर सोच रहा था कि पहले काम तो बने ...फिर देखुंगा कि 'इक्यावन' का चढाऊँ के 'इक्कीस' का?..या फिर 'ग्यारह' में भी क्या बुराई है आखिर? भोग ही तो लगाना है बस। बाकी पाड़ना तो उसे अपुन जैसे हाड-माँस के इनसानों ने ही है।सो!....कुछ कम या ज़्यादा से क्या फर्क पडने वाला है?वैसे  भी पत्थर की मूरत को क्या खबर कि 'देसी' की खुशबू क्या है और 'डाल्डा' कि क्या?
हाँ!...मुझ पागल को ही फोन उठाना था उनका...मति तो मेरी ही मारी गयी थी ना जो फ्री इनकमिंग के लालच में चार-चार फोन लगवा डाले और रौब झाडने के चक्कर में मामाजी को उन सभी के नम्बर थमा बैठा।अब एक पैसा प्रति सैकैंड का कॉल हो तो बंदा तो बेवाकूफी कर ही बैठेगा ना?सो!...मैँ भी कर बैठा।इसमें कौन सी बड़ी बात है?
क्या ज़रूरत पड़ गई थी मुझे इतनी जल्दी उनका एहसान उतारने की?अच्छे-भले मुम्बई में बैठे-बैठे 'राज ठाकरे' के आंतक का मज़ा ले रहे थे...लगने देता उनकी वाट...मेरा क्या जा रहा था?.. लेकिन नहीं...पागल कुत्ते ने काटा था ना मुझे जो मैँ उन्हें उसके ताप से बचने के लिए कुछ दिन दिल्ली में आ हमारे साथ...हमारे घर में बिताने की युक्ति सुझा बैठा।सुनते ही बांछे खिल उठी थी उनकी...उसके बाद तो लगे दे पे दे फोन करने लगे एक के बाद एक...मुझे तभी समझ जाना चाहिए था कि बेटा राजीव...तू तो गया काम से...अब भुगत...
अब अगर किसी बन्दे से अनजाने में कोई गलती हो भी गई तो बच्चा समझ के माफ कर दो उसे...ये क्या कि उसकी बात को गाँठ में बाँध..पत्थर की लकीर समझ लो और पड़ जाओ हाथ थो के उसके पीछे? अपने...खुद के..सगे वालों का ही तो बच्चा है... कोई पराई औलाद तो नहीं कि ले बेटा...तू ये भी और वो भी?...
उफ!..अब स्साला...एक फोन ना उठाओ तो मिनट से पहले दूजे की घंटी बज उठती है....दूजा ना उठाओ तो तीजे पे और  तीजा ना उठाओ तो  चौथा गला फाड़ चिंघाड़ने लगता है।मैँ तो तंग आ गया हूँ इन मुसीबत के मारे मोबाईल फोनों से।स्सालों!...ने एक पैसा पर सैकेंड का पंगा डाल पंगू बना डाला पूरी इनसानी जमात को।पहले कितना अच्छा था ना कि रीचार्ज ना करवाओ तो पट्ठे तुरंत ही लाईन कट कर  डालते थे कि..."ले बेटा!...हो जा आज़ाद... कोई तंग नहीं करेगा अब"
और अब?...अब भले ही जेब में इकलौती चवन्नी गुलाटियाँ मार कलाबाज़ियाँ खाने में शर्म महसूस कर रही हो लेकिन फोन वही ढीठ का ढीठ....सुसरा...चालू का चालू...बन्द होना तो जैसे भूल ही गया हो।अब इसे ...बैलैंस हो ना हो से कोई फर्क नहीं पड़ता।किसी को गोली देने लायक भी तो नहीं छोड़ा पट्ठों ने कि...."भैय्या मेरे...'फोन' में बैलैंस नहीं था....सो!..बन्द हो गया...कैसे बात करता आपसे?"
                                      अच्छा  झुनझुना थमाया है पट्ठों ने ये लाईफ टाईम वाला ...पता भी है इस संसार में हर चीज़ नश्वर है...हमारे...आपके ...सबके समूचे कुल ने नाश हो जाना है एक दिन... लेकिन इन्हें अकल हो तब ना...कोई जा के इनसे पूछे तो सही कि "क्या ज़रूरत थी इनको मोबाईल की लाईफ अनलिमिटिड करने की?"...."डॉक्टर ने ऐसा करने को कहा था या फिर कमाई हज़म नहीं हो रही थी?"...अगर नहीं हो रही थी तो मुझसे से कहते..मैँ काम आ जाता तुम्हारे...अपना चुपचाप आपस में मिल बाँट के खा लेते और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होती लेकिन वो कहते हैँ कि देवर को नहीं ....भले ही खूंटे से....
खैर!...लाईफ अनलिमिटिड कर दी..सो कर दी...जब चिड़िया चुग गई खेत तो अब किया ही क्या जा सकता है? लेकिन कोई मुझे बताएगा कि क्या ज़रूरत पड़ गई थी इन्हें कॉल रेट कम करने की?...बेवाकूफ के बच्चे!...इतना भी नहीं जानते कि कॉलें सस्ती करने से भी लोगों की नीयत में फर्क नहीं पड़ता।मिस्ड कॉल मारने वाले तो अभी भी मिस्ड कॉलें ही मार रहे हैँ ना? कि ले बेटा!..अपना काम तो कर दिया हमने...अब तू भी अपना कर्तव्य निभा" ...
"स्साले!...दुअन्नी छाप कहीं के"... 
"पैसे कौन भरेगा?...तुम्हारा बाप?"...
"कान खोल के सुन लो सब के सब...पैसे पेड़ पर नहीं उग रहे मेरे और ना ही मेरा बाप कोई चलता मिल छोड गया है कि... "ले बेटा ...तू उड़ा...मौज कर...मैँ हूँ ना"..
"अब अगर कोई लडकी मिस्ड काल करे तो बात समझ में भी आती है कि लिपिस्टिक-पाउडर के लिए पैसे बचा रही होगी और फिर उनका फोन हम उठाएँ भी तो किस मुँह से?...शर्म नहीं आएगी हमें?...
गर्ज़ जो अपनी है कि कहीं पट्ठी नाराज़ हो के किसी और के साथ ही चोंच लड़ाने में मस्त ना हो जाए।बड़ी ही कुत्ती शै है ये औरत ज़ात भी...इनकी 'हाँ' में भी कहीं ना कहीं 'ना' छुपी रहती है...कोई भरोसा नहीं इनका...हम इस मुगालते में भरी दोपहरी सड़क किनारे खड़े-खड़े काट देते हैँ कि अब आएगी...अब आएगी और बाद में पता खुफिया सूत्रों के जरिए चलता है कि महारानी साहिबा आज किसी नए पंछी के साथ  कम्पनी बाग के कोने वाले झुरमुट में कुछ गैर ज़रूरी मसलों पर गुटरगूं करते हुए ज़मीन पे बिछी हुई मखमली खास का बेरहमी से कत्लेआम कर रही थी।...
इसलिए भइय्या!...ये चाहे मिस्ड कॉल करें या फिर फिस्ड कॉल करें और चाहें तो कुछ भी ना करें...हम तो इन्हें ज़रूर फोन करेंगे...बिलकुल करेंगे...डंके की चोट पे करेंगे ..अब ऐतने बुरबक्क तो नहिए हैँ ना  हम कि रुपये दो रुपये बचाने की खातिर पूरा लड्डू ही हाथ से गवाँ बैठें?
                                      बस यही बुदबुदाते हुए पता ही नहीं चला कि कब आँख लग गयी।जाने कैसा शोर था? कि मैँ अचानक चौंक के उठ खडा हुआ।वही हुआ जिसका मुझे डर था...मोबाईल ही घनघना रहा था।'डेट'...'कन्फर्म हो चुकी थी उनके आने की।निर्दयी...निर्मोही ऊपरवाले ने एक ना सुनी और कर डाली अपनी मनमानी।लाख माथा फोड़ा उसके आगे लेकिन कोई फायदा नहीं...
"कर ली उसने अपने दिल की पूरी...निकाल ली अपनी भड़ास"...
मैँ तो ऐसे ही मज़ाक-मज़ाक में मज़ाक कर रहा था कि 'इक्यावन' या 'इक्कीस' और इन्होंने झट से बुरा भी मान लिया।भला!...'डाल्डा' का प्रसाद भी कोई चढाने लायक होता है?....जो मैँ चढाता?अब ये क्या बात हुई कि...वो खुद...पूरी ज़िन्दगी हमसे मज़ाक पे मज़ाक करता फिरे तो कोई बात नहीं?...हमने ज़रा सी ठिठोली क्या कर ली,...यूँ मुँह फुला के बैठ गये जनाब जैसे मैने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर डाला हो...पाप कर डाला हो।अच्छी तरह!...अच्छी तरह मालुम है मुझे भी और उन्हें भी कि चलेगी तो उनकी ही....सर्वशक्तिमान जो ठहरे...इसीलिए चौड़े हो रहे हैँ।
हाँ-हाँ!...और चौड़े होओ...खूब चौड़े होओ।इस अदना से बन्दे की रज़ा पूछने की ज़रूरत ही क्या है?...वो लगता ही क्या है तुम्हारा?...और फिर इन्हें फर्क भी क्या पडता है कि इनके राज में कोई मरे या जिए?    
इनकी बला से मैँ कल का मरता आज मर जाऊँ...इन्हें कोई फिक्र नहीं...कोई परवाह नहीं।
"हुँह!..खुद तो ऊपर...मज़े से...गद्देदार सिंहासन पे विराजमान बैठे हैँ सबकी ज़िन्दगियों का फैसला करने के लिए और यहाँ?...यहाँ नीचे वालों की कोई चिंता ही नहीं...कोई सुध ही नहीं है जनाब को।
"अरे!...जो आपका काम है...उसे ही मस्त हो के करो ना भाई"..
"काहे को दूसरे के फटे तंबू में अपना बम्बू फँसाते हो?"...
"नेकी करते जाओ और कुँए में डालते जाओ"...बचपन से यही सुनते-सुनते कान पक गए हैँ हमारे।अपनी सीख हमें सिखाते हैँ और खुद ही भूले बैठे हैँ जनाब।पूरी ज़िन्दगी का ठेका इन्होंने ही ले लिया हो जैसे।हर बंदे का हिसाब-किताब ऐसे सम्भाल के रखते हैँ मानो गर्ल-फ्रैंड्ज़ के मोबाईल नम्बर कि...एक भी ना छूट जाए कहीं भूले से भी।
अब फलाने ने ये-ये अच्छा किया और ये-ये बुरा...तुम्हें इससे टट्टू लेना है? अगले की मर्ज़ी ...जो जी में आए...करे लेकिन नहीं!...तुम्हें चैन कहाँ?...बस हर एक के पीछे ही पड़े रहा करो हाथ धो के...और कोई काम-धाम तो है ही नहीं ना तुम्हें?
"ठीक है!...माना कि पैदा करने वाला 'वो'...और मारने वाला भी 'वो' लेकिन ये जो बीच का वक्त है 'ज़िन्दगी' और 'मौत' के...उसे तो अपनी मर्ज़ी से जी लेने दो हमें कम से कम"
"क्या ज़रूरत पड़ जाती है आपको जो ऐसे मुँह उठा के टांग अडाने चले आते हो हमारी निजी ज़िन्दगियों के बीच में?"..
"कोई और काम-धाम है कि नहीं?"मन ही मन 'उसे' कोसते हुए पता ही नहीं चला कि वक़्त कैसे तेज़ी से सरपट दौडे चला जा रहा था। रौंगटे खडे होने को आए थे कि वो भी एक-एक चीज़ का बदला ज़रूर लेंगे।
कोई कसर बाकी नहीं रहने देंगे।आज महसूस हो चला था कि एक ना एक दिन सेर को सवा सेर ज़रूर मिलता है।सही या गलत...सब का हिसाब यहीं...इसी धरती पर ही चुकाना पडता है।ये सब अगला जन्म- वन्म सब बेकार की...बेफिजूल की बातें हैँ।इनका कोई मतलब नहीं...असलियत से इनका कोई सरोकार नहीं।जिसका जैसा मौका लगता है वो वैसा दाव चले बगैर नहीं रहता।अन्दर ही अन्दर मेरा चोर दिल कह रहा था कि आखिर तुमने भी भला कौन सी कसर छोडी थी जो अब उसकी तरफ ऐसे कातर नज़रों से टुकुर-टुकुर ताक रहे हो?...
"क्या अपना खुद का माल होता तो इस बेदर्दी से उडाते?"... 
"नहीं ना?"...
"तो फिर?"...
"अब भुगतो"...
"जैसा करोगे...वैसा तो भरना ही होगा मित्र"... "
बोया पेड बबूल का तो फल कहाँ से होय?"..
"जैसी करनी वैसी भरनी"...
"खुद तो दूसरों के घर में 'नवाब सिराजुदौला' बने बैठे थे ना जनाब?...अब क्यों साँप सूँघ गया आपको?"..
"बाप का माल समझ के उड़ा रहे थे ना सब का सब?"...
"अरे!...अगर सचमुच बाप का समझा होता तो आज ये नौबत ही नहीं आती कि खुद अपनी ही करतूतों से मुँह छुपाते फिरते"
"उस वक्त अक्ल क्या घास चरने गयी थी जब फोकट का माल समझ...'राम नाम जपना...पराया माल अपना' की पालिसी पर चल रहे थे?.... हर चीज़ तो तोड-ताड के बन्ने मारी थी तुमने और तुम्हारी नालायक औलादों ने।कोई कंट्रोल-शंट्रोल भी होता है कि नहीं? या फिर बस...खुले साँड की तरह खोल डालो अपने नमूनों को कि....
"लो बच्चो!...सामने पराया खेत है....मनमर्ज़ी से रौंद डालो...कुचल डालो...तहस-नहस कर डालो"...
"क्या सोचा था उस वक्त कि...कौन सा अपने बाप का है?"...
"सैल्फ कंट्रोल भी कोई चीज़ होती है कि नहीं?...अब भुगतो"...
गलती से 'मुम्बई' आने का न्योता क्या दे बैठे मामा जी...खुद ही अपने पाँव पे कुल्हाडी चला डाली उन्होंने। उन्हें भी क्या पता था कि पक्के बेशर्मों से पाला पडा है?...न्योता मिला और पहुँच गये सीधा अगली ही ट्रेन से अपने सात बच्चों की पलटन लेकर लेकिन एक बात की तो दाद देनी ही पडेगी मित्र...माथे पे एक शिकन तक नहीं आई थी उनके और एक तुम हो कि अभी से साँसें फूलने लगी?
"बारिश के आने से पहले ही तंबू के छेद तक गिनने बैठ गये?"...
"कैसे मर्द हो तुम?"...
"किस सोच में डूबे हो?"..
"कहीं मेरी कही इन बातों का तुम पर उलटा असर तो नहीं हो रहा है ना मित्र?"...
"मेरी बातों में आ के कहीं तुम उनके स्वागत की तैयारी के बारे में तो नहीं सोचने लगे ना?"...
"क्या कहा?"...
"अक्ल कहीं घास चरने  तो नहीं चली गई तुम्हारी?...पता भी है कि कितने की वाट लगेगी?"...
"तो फिर तुम्हीं बताओ कि मैँ क्या करूँ?"...
"ये?...ये तुम मुझ से पूछ रहे हो?"...
"यूँ!...यूँ हाथ पे हाथ धरे रहने से कुछ नहीं होगा जनाब...कुछ सोचो"..
"सोचो कुछ...दिमाग के घोडे दौड़ाओ...कोई तो तरकीब होगी इस मुसीबत से निकलने की"...
"याद रखो...इस दुनिया में नामुमकिन कुछ भी नहीं है...कोई ना कोई हल तो निकलेगा इस मुसीबत का"...
"हाँ!...ज़रूर निकलेगा"..
"क्या करूँ?...कहाँ जाऊँ?..कुछ समझ नहीं आ रहा है"... 
"यैस्स!...यैस...यैस...एक आईडिया है"..
"हाँ!...
"हाँ-हाँ!...यही ठीक भी रहेगा..घर को ही 'ताला' लगा खिसक लेता हूँ कहीं बच्चों समेत...ना होगा बाँस और ना ही बजेगी मेरी बाँसुरी"...
"उफ!...ये स्साला...ऐन टाईम पे कुछ सूझ ही नहीं  रहा है कि कहाँ जाऊँ?...किसके घर जा के डेरा जमाऊँ?"...
"कम्बख्त!...किसी का न्योता भी तो नहीं आया इस बार कि वहाँ जा के लौट लगाऊँ"...
"हाँ-हाँ!..पिछले साल का भूला नहीं हूँ मैँ..बिना न्योते के ही जा पहुँचे थे चाचा जी के घर....आगे मुँह चिढाता ताला लटका मिला था। लेने के बजाए देने पड गए थे...आमदनी दुअन्नी भी नहीं और खर्चा चोखा...पूरे रास्ते बीवी के ताने सुनने पडे...सो अलग" ...
"या एक काम क्यों नहीं करता मैँ?...यहीं-कहीं...आस-पास ही जा के छुप जाता हूँ...कैसा रहेगा?"... "नहीं!...बिलकुल नहीं...ये ठीक ना होगा...अपने घर से ही मुँह छिपाता फिरूँ?"...
"लोग क्या कहेंगे?..और फिर इसमें समझदारी ही कहाँ की है कि मैँ अपने ही घर में छुप-छुपाई खेलता फिरूँ?"..
"तो फिर तुम्हीं बताओ कि मैँ क्या करूँ?"....

"क्या करूँ?...क्या करूँ?...करने से कुछ नहीं होगा...कोई ना कोई चक्कर तो ज़रूर चलाना पडेगा और वो तुम्हें ही चलाना पड़ेगा"...
"हाँ!...मैँ तुम्हारा लगता ही कौन हूँ?...तुम तो मेरी मदद करने से रहे"...

"मुझे ही कुछ करना पड़ेगा"...
"तो फिर सोच क्या रहे हो?...कुछ करते क्यों नहीं?"...
"इतनी देर से सोच ही तो रहा हूँ...झक्क थोड़े ही मार रहा हूँ"...
"ठीक है!...तो फिर सोचो...सोचो!...खूब सोचो"...
"हाँ!...एक आईडिया और है"...
"क्या?".. 
"हाँ!...यही ठीक है और...यही ठीक भी रहेगा"... 
"हमेशा के लिए ही रास्ता बन्द... नंगपना दिखा के एक ही बार में पक्का बेशर्म बन जाता हूँ"... 
"पैसे बचाने में कैसी शर्म?"
"अगर समझदार होंगे तो तुरंत ही अपना 'झुल्ली-बिस्तरा' सम्भाल 'मुम्बई' वापसी का टिकट कटवा लेंगे"...

"और अगर तुम्हारी तरह बेवाकूफ हुए तो?"...
"तो फिर किसी नई जगह पर...नए लोगों से ...नई तरह की रिश्तेदारी गांठने की कोशिश कर रहे होंगे...मेरे यहाँ तो शरण मिलने से रही"...
"गुड!...वैरी गुड लेकिन ऐसे सर्दी के मौसम में वो आखिर जाएँगे कहाँ?"...
"क्या बात?...तुम्हें बड़ी चिंता हो रही है"...
"म्मुझे?...मुझे भला क्यों चिंता होने लगी...रिश्तेदार तो तुम्हारे हैँ"...
"और तुम किसके हो?"..
"ये क्या बात हुई कि तुम किसके हो?"...पता भी है कि मैँ तुम्हारा अंतरमन हूँ...तुम्हारी आत्मा हूँ..जब तक तुम जीवित हो याने के परमात्मा से मिल नहीं जाते ..तब तक मैँ तुम्हारे साथ...साथ ही रहने वाला हूँ"...
"तो फिर मेरी मदद क्यों नहीं करते?"...
"कर ही तो रहा हूँ"...
"कैसे?"...
"ये जो तुम्हारे दिमागी भंवर में एक से एक बढकर चिंताएँ जो उमड़-घुमड़ कर उफान पैदा कर रही हैँ"....
"तो?"...
"इस उफान को उठाने वाला मैँ ही तो हूँ"...
"ओह!...मुझे लगा कि तुम मेरी साईड नहीं बल्कि मामा जी की तरफ हो?"...
"ऐसा तुमने सोच भी कैसे लिया वत्स?"...
"तुम्हें ही तो बड़ी चिंता सता रही थी कि...ऐसे सर्दी के मौसम में वो कहाँ जाएँगे?...क्या करेंगे?"....
"तो?...तुम्हारी तरह इतने निर्मोही भी नहीं हम...थोड़ी-बहुत इनसानियत तो हम आत्माओं में भी होती ही है...चाहे ऊपरी तौर पर ही सही"...
"ओ.के...ओ.के लेकिन इसे बस ऊपरी ही रहने देना....असलियत में इसका कोई वजूद नहीं होना चाहिए हमारी ज़िन्दगी में"...
"बिलकुल"...
"हाँ!...तो मामा जी से छुटकारा पाने का तुम कौन सा आईडिया सुझा रहे थे?"..
"मैँ तो ये कह रहा था कि रोज़-रोज़ के टंटे से मुक्त होने के लिए बेहतर यही होगा कि सारी शर्म औ हया त्याग हम एक बार में ही मुँहफट हो जाएँ"...
"गुड!...वैरी गुड...हमारी अच्छी सेहत के लिए मुँहफट हो जाना ही बेहतर होगा"... 
"तो फिर सीधे-सीधे फोन कर के ही कहे देता हूँ उनसे कि..."हम तो खुद ही जा रहे हैँ दो महीने के लिए 'बाबाजी' के आश्रम...बीवी की तबियत जो ठीक नहीं रहती...शायद!..'योगा-वोगा' से ही ठीक हो जाए"
"गुड!..वैरी गुड....समझदार को इशारा ही काफी रहेगा....नासमझ नहीं हैँ वो दोनों कि इतनी सी भी बात पल्ले ना पड़े..सब अपने आप समझ जाएंगे और आने से पहले ही चलते बनेंगे"...

"तो फिर मैँ चलूँ?"...
"हाँ!..बिलकुल"..
"ओ.के...बॉय"...
"बॉय"...
"अपना ध्यान रखना"...
"तुम भी"..
              अपनी मुश्किल का इतना आसान हल होता देख खुशी भरी मुस्कान अभी ठीक से चेहरे पे आयी भी नहीं थी कि मुय्या फोन फिर से घनघना उठा।मोबाईल वालों को सौ-सौ गाली बकते हुए फोन उठाया तो जो खबर मिली...सुन के...फीकी पडती मुस्कान चेहरे पे फिर से खिल उठी थी...
मामा जी का ही फोन था।खबर ही कुछ ऐसी थी कि मेरी बाँछो ने तो खिलना ही था...सो!...बिना किसी प्रकार की देरी किए वो खिल उठी। उनका आना कैंसिल जो हो गया था ....'बाबाजी' के आश्रम जा रहे थे वे दोनों...मामी की तबियत जो ठीक नहीं रहती थी आजकल
"सचमुच!...'बाबाजी' के 'योगा' में बड़ा चमत्कार है...बडी-बडी बिमारियाँ...भीषण से भीषण विकार भी जड़ से मुक्त हो जाते हैँ...कुछ ही महीनों में"... 

"अब मैँ 'मामाजी' को 'बाबा' के योगा के गुण बढ-चढ कर बता रहा था"
जय हिंद"...

***राजीव तनेजा***
rajivtaneja2004@gmail.com 
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+919213766753
+919136159706

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रविवार, 20 दिसंबर 2009

कैसे करूँ, किस-किस को दूँ!!!!

ललित शर्मा 


हमारे गांव में चुनाव का घमासान मचा हुआ है. गांव के जितने भी छुटके-बड़के सेवक हैं सब जन सेवा का संकल्प लेकर ताल ठोक कर आ गए हैं मैदान में. पान की दुकान पर छुट भईये नेता लोंगो का जमावड़ा बढ़ गया है. यहाँ से सारी सूचनाएं प्रसारित होती रहती हैं.

कौन पार्टी से गद्दारी करके किसके साथ फिट हो गया है? कौन जितने वाला है कौन हारने वाला है? सबका फैसला यहीं पर खड़े-खड़े पान चबाते हुए हो रहा है. आज पान लगाने की ड्यूटी हमारी है और इलेक्शन के कारण हमारा फुल मनोरंजन हो रहा है. हम गुरु जी का पान लगाते-लगाते सबकी कथा कहानी सुन रहे हैं.

भईया "निष्ठावान" पार्टी से काफी नाराज है .पार्टी ने उसकी सेवाओं को किनारे रखते हुए उसका टिकिट काट दिया और एक नोट वाले "अवसरवादी" भईया को दे दिया. अब ये श्रीमान रात को एक पव्वा मार कर सबको हराते और जिताते फिर रहे है और कहते हैं सबकी वाट लगा कर छोड़ेंगे. 

रात दिन प्रत्याशियों का दौरा चल रहा है. हाथ जोड़ कर पैर पकड के वोट मांग रहे हैं. एक प्रत्याशी तो हमें ही मिल गए और आकर पैरों में गिर गये भईया हमी को वोट देना. हमने इनकी सकल १० साल में देखी है. किसी से सरोकार नहीं रखते बस हाथ में डंडा लेकर रात दिन भांजते रहते है. अब बस सबका गोड़ धर के आशीर्वाद ही मांगने का काम कर रहे हैं.


एक कहते हुए घूम रहे हैं कि मैं आपके दरवाजे का कुत्ता हूँ, आपसे गद्दारी नहीं करूँगा. एक बार मेरी वफ़ादारी भी अजमा कर देख लो. ये सब फर्जी लोग आपके काम नहीं आयेंगे. आखिर मैं ही काम आऊंगा आपके. इन्होने दारू भट्ठी से आते हुए समारू बाबा का पैर पकड लिया. वो भी टुन्न थे उन्होंने कह दिया भईया मुझे कुत्तों से बड़ा डर लगता है काट ले चौदह इंजेक्शन लगवाना पड़ता है. बेचारा अपना सा मुंह ले कर चला गया.


एक नेता जी हैं टिकट नहीं मिला तो निर्दलीय भाग्य अजमाने खड़े हो गए हैं. सुबह अपने घर से गेंदे का माला गले में डाल कर निकलते हैं. क्या पता कोई रास्ते में पहनाये या ना पहनाये. बिना माल और माला के नेता की कैसी शोभा? आगे आगे धमाल बैंड पार्टी का ढोल बजता है और ये सबकी चरण धूलि लेते हुए घूम रहे हैं.


एक बात आज मैंने खास देखी उसे तो बताना ही भूल गया था. कंस राम ठेले पर आकर खड़ा हुआ. फुल दारू के नशे में टुन्न. खड़े-खड़े झूम रहा था. पता नहीं कब से पी रहा था. इलेक्शन की मुफ्त की दारू नशा भी ज्यादा करती है. झूमते-झूमते एक छत्तीसगढ़ी की पैरोडी गा रहा था. एला दांव के ओला देंव, कईसे करंव कोन-कोन ला दंव, काला-काला दंव. (इसको दूँ कि उसको दूँ, कैसे करूँ, किस-किस को दूँ.) 

तब मैंने कहा कि भईया- इतना माल सबसे क्यों ले लिए? कि जो खुद ही चक्कर में पड़ गए. अब मैं वोट किसको दूँ? तो उसने कहा " क्या बताऊँ महाराज! आते हैं और सब लोग अपनी-अंपनी दारू छोड़ कर चल देते हैं. अब मेरे को मुसीबत में डाल दिये हैं. सबका अलग-अलग ब्रांड घाल-मेल हो गया है. चुनाव चिन्ह ही समझ में नहीं आ रहा है? 


तो ये हाल हो गया है. इस इलेक्शन में .

ललित शर्मा

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गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

दुकान पान के शौकीनों को मेरा नमस्ते.....

पान की दूकान पर चर्चा करने अब भाई मै भी आ गया हूँ भाई ललित जी ने जोर डाला की आप भी पान की दुकान पर आये और चर्चा करें यहाँ बड़ी मदमस्त चर्चा होती है ....सो मै भी पान की दुकान पर बतियाने आ गया हूँ.

पान के शौकीनों भाई समीर लाल, भाई अनिल पुसदकर, भाई राजकुमार ग्वालानी, भाई गिरीश पंकज, भाई बी.एस. पावला, भाई संजीव तिवारी, भाई राजीव तनेजा और भाई बालकृष्ण अय्यर, ललित शर्मा को मेरा अग्रिम नमस्कार पहुंचे.

हाँ मै एक बात और कहें देत हूँ की मै नागपुरी मीठी पान पत्ती का शौकीन हूँ और उसमे थोडा सा रिमझिम और नारियल कतरी और थोड़ी सी तम्बाखू हो तो वाह फिर क्या कहने . बस मीठी पत्ती का स्वाद चखते ही तबियत भी मद मस्त हो जाती है और दिमागी घोड़े भी तेजी से हरकत करने लगते है.

भाई पानवाले आज मेरी और से सभी पान के शौकीनों को पान खिलाओ उसके बाद ही हमारी चर्चा पर ध्यान देना. आज पहली बार आया हूँ सो ज्यादा तो बतिया नहीं सकता परन्तु बाद जो बतियाने का सिलसिला शुरू होगा जो किसी सीरियल ब्लास्ट से कम न होगा.

भैय्या अपने जा बात सुनी है की नववर्ष पर होने वाले कार्यक्रम में विपाशा बासु ने अपने लटके झटके दिखाने के लिए दो करोड़ की मांग कर डाली है और आयोजको ने दो करोड़ देने की पेशकश कर दी है ... बताओ भैय्या नंग पन दिखाने के इतनी बड़ी रकम दी जा सकती है तो आगे क्या होगा ? जा बात समझ से परे है पर मेरा दिल कह रहा है की आगे रकम मिलने नंगे कलाकार भी सामने आने लगेंगे.

इतने में पान वाले ने टोककर कहा भैय्या तनिक हमें भी तो बताओ नंगे होने पर कहाँ पैसे मिलते है. हमारे देश में कई राजनीतिक व्यापारी और कलाकार है उनमे नंगो की कमी नहीं है जहाँ देखो वही नंगे नजर आते है.

उसकी बात सुनकर मुझे जोर की हंसी आ गई और मैंने पान थूककर कहा भाई पान वाले तू अपनी दुकान चला जिसमे सार है.. बतियाने का काम हम लोगो का है .

अच्छा तो हम चलते है फिर मिलेंगे....राम राम राम

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ताऊ बोल्या मै पूछूं था??

ताऊ बोल्या मै पूछूं था


बता  तू  अकल बड़ी के भैंस........................
मास्टर जी ने सवाल लगाया के बतावे सुरेश
भैंस  में तै  पाड़ी  घटाई,झोट्टा रह गया शेष
बता तू अकल बड़ी के भैंस..........................


जाडा   घणा   पड़े  था   भाई, खूब  लगाई रेस
पहले  तो  कम्बल  ओढ़या, उस पे डाला खेस
बता तू अकल बड़ी के भैंस..........................


राधे नै  कुत्ते के पिल्लै  पकड़े, उसके  मुंडे केश
बिना उस्तरे नाइ मुंड गया ताऊ पे चल्या केश
बता तू अकल बड़ी के भैंस............................


बिना  चक्के  की  गाड्डी चाली रेल उडी परदेश
गार्ड  बेचारा  खड़ा  रह  गया  देखे  बाट   नरेश
बता तू अकल बड़ी के भैंस............................


एक पेड़ पे चालीस चिडिया तभी घटना घटी विशेष
शिकारी  की  एक गोली चाली बच गई कितनी शेष
बता तू अकल बड़ी के भैंस.................................



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बुधवार, 16 दिसंबर 2009

खूंटा एक्सप्रैस का पहला बाट

ललित शर्मा जी और अनिल पुसदकर जी
यह सुना-सुनाया किस्सा आपको समर्पित


एक जाट की भैंस गुम हो गई. अपने छोरे नै साथ लेकै जाट नै आसपास हर तरफ ढूंढ ली पर भाई भैंस ना मिली.

थक हार कै दोनों बापू बेटे रास्ते में आए हनुमान मंदिर में जाके भैंस मिलाने की प्रार्थना करने लगे. प्रार्थना समाप्त कर जाट जोर से हनुमान जी से बोला के हनुमान जी जे आज सवेरे तक भैंस मिलगी तो एक थन आपका. उसका दूध आपकै ही चढ़ेगा.


थोड़ी आगे चले तो देवी मंदिर आग्या. दोनों देवीमंदिर में जाके भैंस मिलाने की प्रार्थना करने लगे. प्रार्थना समाप्त कर जाट जोर से देवी भगवती से बोला के दुर्गा माता जे आज सवेरे तक भैंस मिलगी तो एक थन आपका उसका दूध आपकै ही चढ़ेगा.


थोड़ी और आगे चले तो भैंरों मंदिर आग्या. दोनों मंदिर में जाके भैंस मिलाने की प्रार्थना करने लगे. प्रार्थना समाप्त कर जाट जोर से भैंरों बाबा से बोला के हे बाबा जे आज सवेरे तक भैंस मिलगी तो एक थन आपका उसका दूध आपकै ही चढ़ेगा.


थोड़ी और आगे चले तो ग्रामदेवता का मंदिर आग्या. दोनों मंदिर में जाके भैंस मिलाने की प्रार्थना करने लगे प्रार्थना समाप्त कर जाट जोर से बोला के हे ग्राम देवता जे आज सवेरे तक भैंस मिलगी तो एक थन आपका उसका दूध आपकै ही चढ़ेगा.


यह सुनते ही उसके साथ खड़ा जाट का छोरा बोल्या बापू तनै तो चारों थन देवी देवताऒं में बांट दिये अब अगर भैंस मिल भी गई तो क्या फायदा ?
हम कौन से थन का दूध पीवेंगें ?

जाट बोल्या रै छोरे मैं जाट सूं तनै के समझ राख्या..
एक बार बस भैंस मिल जाण दे इन देवी-देवताऒं नै तो मैं आप देख ल्यूंगा

--योगेन्द्र मौदगिल




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मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

सालोमन भारत श्रेष्ठ



२४वें फेडरेशन कप में छत्तीसगढ़ के बॉडी बिल्डर पी। सालोमन ने भारत श्रेष्ठ का खिताब जीत लिया। वे यह खिताब जीतने वाले छत्तीसगढ़ के पहले बॉडी बिल्डर हैं। इसी के साथ छत्तीसगढ़ के दो और खिलाडिय़ों ने कांस्य पदक जीते। इसके पहले सालोमन इसी साल भारत श्री भी बने थे।


लखनऊ में खेली गई इस स्पर्धा के बारे में १२ राज्यों के ४५ श्रेष्ठ खिलाडिय़ों के बीच हुए मुकाबले में अंतिम मुकाबला छत्तीसगढ़ के पी. सालोमन, कर्नाटक के एन. विश्वनाथन, जे. वर्गीस और उप्र के मो. इलियाज के बीच हुआ जिसमें सालोमन ने बाजी मारते हुए भारत श्रेष्ठ का खिताब जीत लिया। इसके पहले उन्होंने अपने सुपर टॉल ग्रुप में स्वर्ण पदक जीता था। इसके पहले इसी साल मुंबई में हुई ५६वीं राष्ट्रीय स्पर्धा में पी. सालोमन पहले पं. भारत श्री और फिर भारत श्री भी थे। छत्तीसगढ़ के दो खिलाडिय़ों राजकिशोर झा और सुमित चौधरी ने अपने-अपने वर्ग में कांस्य पदक जीता। अब सालोमन का चयन भारतीय टीम में हो गया है और वे विश्व स्पर्धा में खेलने के लिए जाएंगे। उनसे वहां भी पदक जीतने की उम्मीद है। सालोमन पुलिस विभाग दुर्ग में कार्यरत हैं।

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सोमवार, 14 दिसंबर 2009

ब्लागबाबा को नहीं जानते? तो क्या जानते हो.?..

भारत में बाबाओं, उपदेशकों और संतों की संख्या में तेजी से ईजाफा हुआ है, हाल ये है शहर से एक बाबाजी के कूच करते ही, दूसरे बाबा का प्रवचन शुरू हो जाता है. मुझे ये देखकर भारी अचरज हुआ कि सारे प्रवचन हाउसफुल होते हैं. एक तरफ धर्म के प्रति आस्था तेजी से बढ़ती दिखती है, साथ ही लोग प्रवचनों में पिले पड़े हैं, तो दूसरी ओर पाप, अन्याय, अत्याचार और वो तमाम चीजें जो बुराई के दायरे में आती है, दुगनी रफ्तार से बढ़ रही हैं.
छत्तीसगढ़ में कोई बाबा लोकल नहीं है, यहां जो भी आ रहे हैं सब इम्पोर्टेड हैं, या शायद बाबागिरी का काम लोकल स्तर पर उतना सफल नहीं होता. हम हिन्दुस्तानियों का  इम्पोर्टेड का पागलपन आज का नहीं है, ये हमारी गुलामी के दौर के शुरुआत से ही हम से चिपक चुका है, तो भला बाबा हमें लोकल कब से रास आने लगे.
आप भी सोच रहे होंगे मै यह क्या अजीब टापिक ले बैठा, दरअसल आज शाम नुक्कड़ पर पान की दुकान के पास दो लोगों की बातचीत सुनते सुनते मैं अपने आप को उस बातचीत में शामिल होने से रोक नहीं पाया और टापिक था बाबाओं की शहर में लगातार उपस्थिति.
मै ये जानकर भारी अचरज में पड़ गया कि उन लोगों के पास तमाम बाबाओं की एकदम अप्-टू-डेट जानकारी थी, मुझे लगा मेरे पास भी एक बाबा  की जानकारी है जो शायद  अभी इन तक नहीं पहुंची होगी. मैने भी पुड़िया छोड़ी...
मैं अच्छा आप लोग अपने छत्तीसगढ़ के एक बहुत फेमस बाबा को तो जानते ही होगे.
आदमी 1 क्या कहा आपने? छत्तीसगढ़ के और फेमस..! नहीं तो.
आदमी 2 देखिये भाई साहब दूर-दूर तक ऐसा कोई बाबा नहीं जिसे हम ना जानते हों. और आप है की किसी लोकल साधू को बाबा बनाये दे रहे हैं.
मैं देखिये ये जिन बाबाजी की मैं बात कर रहा हुं, ये कोई सामान्य बाबा नहीं है, आप
    लोगों के बाबागण तो आपके सामने सशरीर उपस्थित होते होगें, है ना..
आदमी 1 भाई साहब आप तो मजाक...
मैं  अरे नहीं-नहीं अपने ये बाबाजी कभी सामने उपस्थित नहीं होते...
आदमी 2 तो फिर कहां मिलते हैं?
मैं   देखो भैय्या लोग आप लोग तो अपने छत्तीसगढ़ को पिछड़ा समझते हैं, लेकिन  देश  का पहला हाई-टेक बाबा देने का श्रेय अपने छत्तीसगढ़ को ही जाता है.
आदमी 2 अच्छा..! मगर ये बाबाजी छत्तीसगढ़ के हैं किस शहर से और मिलने का ये
          हाई-टेक तरीका क्या है?
आदमी 1 ( आदमी 2 से) कमाल की बात है यार दुनिया भर के बाबा की जानकारी    
         लोग हम से लेते हैं, और लोकल लेवल के ईतने सोलिड बाबा के बारे में..
आदमी 2 हां यार, अच्छा भाई साहब ये हाई-टेक बाबागिरी क्या होती है? अब जैसे
         हमें इनसे मिलना हो तो? और ये किस नाम से जाने जाते हैं?
मैं देखिये भाई साहब ये बाबाजी सिर्फ इंटरनेट पर मिलते है और वो भी तब जब
     उनकी मर्जी हो... उनका रहना छत्तीसगढ़ के किस हिस्से में होता है ये तो पता
    नहीं... मगर ये उन्हीं ने बातों-बातों मे बताया था कि वो छत्तीसगढ़ से है और
    छत्तीसगढी में बातें करने में उन्हें बड़ा रस आता है. अब रही बात उनके नाम की तो 
    उनका बाबागिरी वाला नाम तो स्वामी ललितानंद है मगर इंटरनेट की दुनिया में वो
    ब्लागबाबा के नाम से दुनिया भर में जाने जाते हैं.
आदमी 2 दुनिया भर में..?
मैं हां-हां दुनिया भर में, अब आप लोग गर्व से कह सकते हो, अपने छत्तीसगढ़ के पास
     अपनी तरह का अनोखा अशरीरी, इंटरनेशनल, सिर्फ इंटरनेट पर दिखने वाला   
    अदभुत बाबा है, ब्लागबाबा.
आदमी 1 हां यार ये तो कमाल का बाबा है, इस बाबा के बारे में सबको बताना पड़ेगा.
आदमी 2 भैय्या इनकी कोई तस्वीर वगैरह है क्या आपके पास... दर्शन हो जाते...
मैं अभी लो भैय्या, मैं तो इनको.. मेरा मतलब है इनकी तस्वीर हमेशा जेब में लिये फिरता हुं, ये देखो...
आदमी 1 वाह भैय्या क्या तेज है चेहरे पर...
आद्मी 2 मगर भैय्या इनके चेहरे से तो उम्र ज्यादा नहीं दिखती, और बाले पूरे सफेद.... कहीं नकली तो...
मैं -  क्या बोलते हो..! इस उम्र में भी चेहरे पर  जवानो जैसी चमक बने रहने के पीछे कारण है.
आदमी 1 कौन सा कारण?
मैं इनके पास एक जादूई द्रव है, रोज लेते रहने पर जवानों जैसी चमक बनी रहती है.
आदमी 1 तब तो इनसे मुलाकात जरूरी हो गयी है भैय्या. अपने को भी चमक बनाये रखना है यार..
मैं –  पहुंची हुई चीज है भाई लोगों, ऐसे बाबाजी आपको ढूंढे नहीं मिलने वाले.
आदमी 2 भाई साहब एक बात तो आपने बताई ही नहीं.
मैं  वो क्या?
आदमी 2 ये अपने छत्तीसगढ़ के ब्लागबाबा ललितानंद जी कुछ चमत्कार वगैरह भी करते हैं या इंटरनेट पर सिर्फ प्रवचन करते है?
मैं भाई लोग इनके चमत्कार सुनोगे तो बाकी जितने बाबा लोगों को जानते हो पानी भरते नजर आयेंगे, इनके चमत्कारों का बयान इनके ब्लाग पर जाने वाले और इनके शिष्य ही बता पायेंगे और फिर सारी जानकारी क्या एक ही बार में ले लोगे. शेष अगली
मुलाकात में....
आदमी 1 मगर आपसे अगली मुलाकात्..
मैं कल फिर इसी समय इसी पान की दुकान पर आ जाना.      

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मोहम्मद रफ़ी ने किशोर कुमार के लिये गाना गाया

जी हाँ, प्रख्यात गायक किशोर कुमार के लिये भी रफ़ी साहब ने गाने गाये हैं। किशोर कुमार एक अच्छे गायक और अभिनेता होने के साथ ही साथ निर्माता, निर्देशक और संगीतकार भी थे। अपने गाने स्वयं ही गाया करते थे वे। पर संगीतकार ओ.पी. नैयर रफ़ी साहब के की आवाज से इतने प्रभावित थे कि फिल्म रागिनी (1958) के शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत 'मन मोरा बावरा गाये.....' को किशोर कुमार के लिये रफ़ी साहब से ही गवाया था। सन् 1958 में ही फिल्म शरारत में भी मोहम्मद रफ़ी ने फिर से एक बार किशोर कुमार के लिये गाना गाया था। गीत के बोल हैं 'अजब है दास्ताँ तेरी ऐ जिंदगी.....'। और आखरी बार सन् 1964 में मोहम्मद रफ़ी ने फिल्म बाग़ी शहज़ादा में भी किशोर कुमार के लिये गाया था (इस बात का खेद है कि गीत के बोल मुझे याद नहीं है)।

महान गायक थे मोहम्मद रफ़ी साहब। बेहिसाब गाने गाये हैं उन्होंने। गायन के लिये 23 बार उन्हें फिल्म फेयर एवार्ड मिला था। उनके कंठस्वर से ही प्रेरणा पा कर ही सोनू निगम आज एक सफल गायक बन पाये हैं।

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गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

ज़मीर जाग उठा

***राजीव तनेजा*** 
आज बीवी बडा उछल रही थी...पूछने पर खत हवा में लहराते हुए बोली..."मामा जी का खत आया है और छुट्टियों में मुम्बई बुलाया है"
"मैँ सोच में डूब गया कि 'क्या करें?....जाएं के ना जाएं?..मन तो कर रहा था कि मना कर दूँ...वजह?...खर्चा बहुत हो जाएगा।सात-सात बच्चों को लेकर मुम्बई जैसे महँगे शहर में जाना कौन सा आसान काम है?अभी सोच ही रहा था कि बीवी ने तसल्ली दी कि...."चिंता क्यों करते हो?"
"मैँ हूँ ना"...माननी पडी उसकी बात..आखिर!..घर में चलती तो उसी की ही थी ना।सो!...जाना पडा।मन ही मन सोचे जा रहा था कि बीवी वहाँ जा के पता नहीं क्या-क्या 'तमाशे' करेगी?...कौन-कौन से 'गुल' खिलाएगी?..लेकिन कुछ-कुछ बेफिक्र सा भी हो चला था मैँ..रग-रग से वाकिफ जो था उसकी।इसलिए गारैंटी तो थी ही कि किसी भी हालत में लेने के देने नहीं पडेंगे।फिर क्या था?...बस!...टिकट कटाई और चल दिये अपनी सात बच्चों की 'पलटन' ले आम्ची 'मुम्बई 'की ओर।पूरे रास्ते बीवी चहकती हुई मुझे सब समझाती जा रही थी कि..किस से?,...किस तरह? ...और कैसे पेश आना है?...वगैरा-वगैरा।प्लानिंग के मुताबिक स्टेशन पर उतरते ही उसकी तबियत ने बिगडना था ...सो!...अपने आप तबियत कुछ ना-साज़ हो चली थी उसकी।..."हाय!...मैँ मर गयी"...."हाय! मैँ मर गयी"...जो उसने कराहना शुरू किया तो फिर ना रुकी"
"मैँ आई ही क्यों?...पता होता कि सफर में इतनी दिक्कत होगी,तो हम आते ही ना"....हुकुम के गुलाम के माफिक मैँ चुप-चाप दीन चेहरा लिये उसकी 'हाँ में हाँ' मिलाता चला गया।"पूरे रास्ते उलटियाँ करते आए हैँ ये बेचारे"मेरी तरफ इशारा करते हुए बीवी बोली..."अब इनकी भी तबियत ठीक नहीं रहती न"..."लम्बा सफर सूट जो नहीं करता है इन्हे"..."लाख समझाया कि सेहत ठीक नहीं है ,सो!...इस बार रहने दें लेकिन ये माने तब ना"....कहने लगे "बहुत दिन हो गये मामा-मामी से मिले हुए...दिल उदास हो चला है"..."सुनते तो मेरी बिलकुल हैँ ही नहीं ना"... "उफ!...ऊपर से मैँ भी बिमार पड गयी"..."अब इनका ख्याल कौन रखेगा?"बीवी रुआँसी होती हुई बोली..."मामा जी!आप एक काम कर दें...
हमारा वापसी का टिकट कटवा दें"..."दिल्ली जाएंगे वापिस",...."किसी तरह इनकी तबियत ठीक हो जाए बस"बीवी ऊपरवाले को हाथ जोड विनती करती हुई बोली...."फिर कभी आ जाएंगे आपसे मिलने"..."यहाँ रहे तो आप भी नाहक परेशान होते रहेंगे हमारे लिए"...
"इतना काहे को सोच रही हो?....सब ठीक हो जायेगा"मामी बोली
"नहीं!..हम आपको परेशानी में नहीं डालना चाहते और फिर डाक्टर ने ताकीद जो की है कि जब तक ये पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते...
तब तक इन्हें खालिस' केसर वाले दूध' और अनार के 'जूस' के अलावा कुछ नही"..."ये डाक्टर भी पता नहीं क्या-क्या परहेज़ बता डालते हैँ?...अब परदेस में भला अनार कहाँ से छीलती फिरूँगी?"
"हमारे होते हुए कैसी बातें करती हो?...चिंता ना करो...सब इंतज़ाम हो जायेगा"
"लेकिन...
"तुम बेकार में ही नाहक परेशान हो रही हो...सब चिंता छोडो और बस आराम करो"मामी बोली
"मुझे शर्म ना आएगी?...मैँ महारानी की तरह आराम से बिस्तर पे पड़ी रहूँ और आप नौकरानियों की तरह सारे काम करती फिरें"बीवी आहिस्ता से बोली....मानो अपना फर्ज़ भर अदा कर रही हो
"अब जब तबियत ठीक नहीं है तो आराम करना ही होगा ना?...तुम्हारी जगह अगर मेरी अपनी बेटी होती तो क्या उसे मैँ यूँ ही जाने देती?"
"जैसा आप उचित समझें"बीवी की छुपी हुई कुटिल मुस्कान को समझ पाना मामा-मामी के बस की बात कहाँ थी?...दिन भर तो बीवी ने कुछ खाया-पिया नहीं...बस!...सर पे पट्टी बाँधे 'हाय-हाय' कर कराहती रही और...रात को अन्धेरे में चुप-चाप ठूसे जा रही थी दबा के माल-पानी।
काम करने के नाम पे उसका सर...दर्द के मारे फटने को आता था लेकिन....खाते-पीते और घूमते-फिरते वक़्त एकदम टनाटन।अब इतने बावले भी नहीं थे हम...पता था कि कब तबियत ने ठीक होना है और कब 'नासाज़।खूब खातिरदारी हो रही थी हमारी...खाओ-पिओ और मौज करो के अलावा कोई काम नहीं था हमें।जूहू...चौपाटी...बान्द्रा...पाली हिल...फिल्मसिटी.. कोई जगह भी तो हमने नहीं छोड़ी थी।बीवी दिनभर पलंग तोडते हुए गप्पें मारती.... और मैँ सोफे पे लदा-लदा...उसकी ऐसी-तैसी करते हुए कभी ये खा....तो कभी वो पी।मामा-मामी दोनों बेचारे...दिन-रात हमारी ही तिमारदारी में लगे रहते।अपने घर में तो सब चीज़ ताले-चाबी के अन्दर थी...तो यहाँ खुला मैदान देख बच्चों का मन भी डोल गया..बाल-सुलभ जो ठहरा....रहा ना गया उनसे...टूट पडे एक-एक आईटम पर मानो ऐसा मौका फिर हाथ नहीं लगने वाला।कोई 'कप्यूटर' से पंगे ले रहा था तो...कोई 'डी.वी.डी' प्लेयर का ही बंटाधार करने पे तुला था ....कोई उनकी मँहगी किताबों के कागज़ का इस्तेमाल 'हवाई जहाज़' बना उन्हें उड़ाने में कर रहा था
तो कोई टीवी रिमोट के साथ 'टक-टक' किए जा रहा था..कभी कार्टून नैटवर्क...तो कभी 'आज तक' ...अपने बच्चे 'सबसे तेज़' जो थे...उनका महँगा वाला 'मोबाईल फोन 'तो पहल्रे ही दिन 'कण्डम' हो कूड़ेदान की राह तक चुका था और अपने छोटे वाले ने तो जैसे उनका कोई भी बिस्तर सूखा ना छोडने की कसम खाई हुई थी।इधर चद्दर बदली ...उधर फर्र से 'फौवारा' चालू।खरबूजे को देख खरबूजे ने भी रंग बदल डाला...अपने टॉमी ने भी आँखे मूंद जोश में आ जो टांग उठाई...नतीजन...उनका 'लैपटाप' अपनी अंतिम सांसे गिन रहा था।खूब 'चिल्लम-पों' हो रही थी...जिसके जो जी में आए वही कर रहा था।अब तक हम सब मिलकर साफ-सुथरे घर की 'वाट' लगा चुके थे।कोई 'रोकने-टोकने' वाला जो नहीं था।मामा बडा दिलदार था सो कुछ नही बोला लेकिन मामी के चेहरे पे कई रंग आ-जा रहे थे।परंतु अपुन को इस सब से क्या?
ये तो वो ही सोचें..जिन्होने बिना सोचे समझे न्योता भेजा था।हमारी खातिर चूल्हे पर हर वक़्त देगची चढी रहती थी...हरदम नये-नये पकवानों की फरमाईश जो आती रहती थी हमारी तरफ से..कभी 'पिज़्ज़ा' तो कभी 'गुलाब जामुन"...आवभगत तो हो रही थी अपनी...चाहे बुझे मन से ही सही।हमारे बढते हौसले देख एक दिन मामी के सब्र का बाँध टूटना था सो...टूट ही गया आखिर।
"बडे ही बेशर्म हैँ ये तो,...जाने का नाम ही नहीं ले रहे"..."हुँह!...बडे आए न्योता भेजने वाले...अब भुक्तो"
"बडा प्यार उमड रहा था ना अपने भांजे पर?"
"बाज़ुयेँ अकड गयी थी मिले बिना जनाब की"
"साँस अन्दर-बाहर नहीं हो रहा था ना?"
"करते रहो'सेवा-पानी'..मैँ तो चली मायके"
"तभी बुलाना वापिस...जब ये मुय्ये मुफ्तखोर दफा हो गए हों"
"मैँ दरवाज़े से कान लगाए चुप-चाप सुन रहा था सब।सर शर्म से पानी-पानी हुए जा रहा था...अब मामा-मामी से आँखे मिलाने की हिम्मत नहीं बची थी मुझमें।सर झुका आहिस्ता से बोला..."जी!...काफी दिन हो गये हैँ...अब छुट्टियाँ भी खत्म होने को हैँ...होमवर्क भी बाकी है बच्चों का"...
"सो!...अब चलेंगे"
"बीवी आँखे तरेरते हुए मुझे घूरे जा रही थी कि मैँ ये क्या बके चला जा रहा हूँ?"लेकिन मै बिना रुके बोलता चला गया।कमरे में घुसते ही बीवी दाँत पीसते हुए बोली..."ये क्या बके चले जा रहे थे?"
"दिमाग क्या घास चरने गया था जो ऐसी बेवाकूफी भरी बातें किये जा रहे थे?"
मेरे सब्र का बाँध टूट गया,बोला..."कुछ शर्म-वर्म भी है कि नहीं या वो भी बेच खायी?आखिर!...और कितना बे-इज़्ज़त करवाएगी?"
"समझदार को इशारा काफी था,बीवी चुप लगा के बैठ गयी।पता जो था कि अब अगर वो एक शब्द भी फालतू बोली तो आठ-दस तो पक्के ही समझो।ज़मीर जाग उठा था मेरा..
"उन्हें दिल्ली आने का न्योता दे हम चल पडे वापिस...पीछे मामा-मामी भी मंद-मंद मुस्काए चले जा रहे थे....आखिर!...उनका पिण्ड जो छूट गया था हम मुफ्तखोरों से"
*** राजीव तनेजा***
 
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