शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

नौकरी में सफलता के सूत्र- जरुर पढिये बड़े काम के हैं

ललित शर्मा 


सुबह-सुबह मैं काम पर निकला तो देखा तो अपनी तम्बाखू-चुनौटी घर पर ही भूल आया, चलो आगे "छलिया" की दुकान से ले लेंगे-सोचा. जब दुकान पर पंहुचा तो देखते ही छलिया बोला 
" राम-राम महाराज चल दिये का ड्यूटी मा"?
"राम-राम भाई......हाँ यार जाना तो है ही, चाहे बरसात हो या ओले गिरे या आग लगे ..... पापी पेट का सवाल है" 
"हाँ भैया....... पापी पेट की खातिर तो सब करे के लागी.......पान लगाओं"
"लगाओ......... और तम्बाखू चुना भी दे देना हम अपनी चुनौटी घर में ही भूल आये"
"लीजिये भैया........ हमने पान छलिया के हाथ से लिया ही था कि सुनाई दिया......"पाय लगी महाराज........चल दिये ड्यूटी में" हमने गर्दन घुमाई तो देखा हमारी यूनियन के लीडर पी.पी.लाल जी थे. जो मॉल खा पी के लाल हो गए थे, नौकरी में तो जाते नहीं थे. यही पान दुकान या होटल के पास घूमते रहते थे, कोई ना कोई बकरा मिल ही जाता था, खाने पीने से लेकर सारा खर्च  उसी से निकाल लेते थे. उनकी तो रोज पार्टी जैसी ही रहती थी, आज फंदे में हम फांस लिए गये थे, 
पी.पी लाल खीसें निपोर रहे थे........."हे हे हे....मैंने आपको देखा तो महाराज सोच कि पै लागी हो जाये......... आपके आशीर्वाद से दिन बढ़िया निकल जाता है".
मैं मन ही मन सोच रहा था........आज साला मुझे ही"बकरा' फांस रहा है. और कुछ नहीं तो पान तो खिलाना ही पड़ेगा, 
मैंने झूठी मुस्कान चेहरे पर लाते हुए कहा........ "बहुत ही बढ़िया सोच है" आओ क्या लेंगे......"अरे पान लगा रे नेताजी का"
"एक पान लगा देना ....... १० पान बांध देना साथ में...... बाबा १२० का एक पाउच भी दे देना............. कौन दिन भर यही पान बनवाने का लफडा करे' पी.पी.लाल जी ने कहा.......
"अरे जल्दी कर रे छलिया........ मेरे बस का टाइम हो गया है......... आती ही होगी........... ये नेता जी क्या है.......... भाई इनको कोई भी कुछ नहीं कहता ........आफिस जाएँ तब ठीक है...... नहीं जाये तो तो ठीक है....... हमारा अधिकारी जरा कडक है.........थोडा सा लेट होने पर सीधा कारण बताओ नोटिस जारी करता है"
"अरे आप कहे चिंता करते हैं, महाराज हम तो हैं, अफसरों के अफसर"
"पी.पी.लाल जी आपका कुछ नहीं बिगडेगा लेकिन मेरी तो वाट लग जायेगी
"आप चिंता ना करे....... मुंह से लार टपकाते हुए बोले...... हम आपको आज गुरु मंत्र दे ही देते हैं....... जिसके सहारे हमने २८ साल की नौकरी पूरी कर ली."
मुझे उनकी बात सुनकर थोडा अच्छा लगा........ चलो ५० रूपये के खर्च में "गुप्त ज्ञान" तो मिल जायेगा...... घाटे का सौदा नहीं रहेगा........." बताओ भाई" ........ मैंने उतावला होते हुए कहा....... क्योंकि आफिस जाने की पडी थी....... बस भी आ चुकी थी.
पी.पी. लाल ने मेरे कंधे पर हाथ रखा...................... कुछ दूर ले गये....... "मैं ६ सूत्रीय कार्यक्रम बता रहा हूँ महाराज... गांठ बांध लो, हमेशा ऐश ही करोगे,"
"बता भाई जल्दी"
पहला..सूत्र........बने रहो पगला------------------ काम करेगा अगला,

दूसरा सूत्र..........बने रहो फूल-------- ------------तनखा पाओ फुल,
तीसरा सूत्र........मत लो टेंशन-----------------नहीं तो फेमली पायेगी पेंशन,
चौथा सूत्र...........काम से डरो नही----------------और काम करो नहीं,
पांचवा सूत्र.........काम करो या ना करो---------पर उसकी फिकर जरुर करो,
छठवा सूत्र.........और फिकर करो या ना करो-----उसका जिक्र जरुर करो,
"ये नौकरी में सफलता के ६ सूत्र हैं........ जिनका पालन करके मैं अपनी तो नौकरी बजा ली"
'धन्य हो भैया.......आपने बहुत उपकार किया मेरे उपर.......ये सूत्र मैं अपने अजीज साथियों के साथ बाँटना चाहूँगा ....... आपका कोई कापी राईट या पेटेंट तो नहीं है ना इसके उपर"
"नहीं-नहीं ये तो सफलता के सूत्र हैं.......... आप इसे नए साल के कलेंडर में छपवा कर बाँट सकते हो....लेकिन मेरा फोटू लगाना मत भूलना.......इतने सालों की नौकरी का निचोड़ है इसमें मेरा"
मैंने पी.पी. लाल जी को एक बार फिर धन्यवाद दिया....... मेरी बस आ चुकी थी.........मैं चल पड़ा .....अपनी ड्यूटी पर..........


ललित शर्मा

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बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

अलख निरंजन

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

sadhu-01-500

***राजीव तनेजा***

 

 

 

 

 

 

 

 

"अलख निरंजन! बोल. ..बम....बम चिक बम। अलख निरंजन....टूट जाएं तेरे सारे बंधन" कहकर बाबा ने हुंकारा लगाया और इधर-उधर देखने के बाद मेरे साथ वाली खाली सीट पर आकर बैठ गया। पूरी ट्रेन खाली पड़ी है, लेकिन नहीं, सबको इसी डिब्बे में आकर मरना है। बाबा के फटेहाल कपड़ों को देखते हुए मैं बड़बड़ाया। सबको, मेरे पास ही खाली सीट नज़र आती है। कहीं और नहीं बैठ सकता था क्या? मैं परे हटता हुआ मन ही मन बोला, कहां जा रहे हो बच्चा? मेरी तरफ देखते हुए पूछा। 'पानीपत', मेरा अनमना सा संक्षिप्त जवाब था। डेली पैसैंजर हो? जी! मेरा बात करने का मन नहीं हो रहा था।
जानता था कि सब एक नम्बर के ढोंगी हैं, पाखंडी हैं, इसलिए दूसरी तरफ मुंह करके खिड़की से बाहर ताकने लगा। काम क्या करते हो? रेडीमेड दरवाजे-खिड़कियों का काम है। ना चाहते हुए भी मैंने जवाब दिया। कहां इस कबाड़ के धन्धे में फंसा बैठा है वत्स? तेरा चेहरा तो कोई और ही कहानी कह रहा है। मेरी दुखती रग पर हाथ रखने की कोशिश थी यह। तेरे माथे की लकीरें बता रही हैं कि राज योग लिखा है तेरे भाग्य में। राज करेगा तू, राज। राज वाली बात सुनकर आस-पास बैठे यात्रियों का ध्यान भी बाबा की तरफ हो लिया। मैं मन ही मन हंसा कि सही ड्रामा है, पब्लिक को बेवकूफ बनाने का। किसी एक को लपेट लो, बाकी अपने आप खिंचे चले आएंगे। यहां खाने-कमाने को नहीं है और ये राज योग बता रहा है। हुंह!
वही पुराने घिसे-पिटे डायलॉग, कोई नई बात बताओ बाबा! मैं बोला, पता नहीं कब आएगा ये राजा वाला योग। मैं मन ही मन बुदबुदाया। अपना हाथ तो दिखाओ ज़रा। ये नहीं, दाहिना हाथ। मैंने भी पता नहीं, क्या सोचकर हाथ आगे बढ़ा दिया। तेरे हाथ की रेखाएं बता रही हैं कि तेरी आयु बडी लंबी है। पूरे सौ साल जिएगा। यह तो मालूम है मुझे। सभी कहते हैं कि शैतान का नाम लो और शैतान हाजिर, मेरा जवाब था। हुंह! यहां मन करता है कि अभी ट्रेन से कूद पड़ूं और यह मुझे लम्बी उम्र का झुनझुना थमाने की जुगत में है। मैं मन में विचरता हुआ बोला। मेरे चेहरे पर आते-जाते भावों को देख बाबा बोला, परेशान ना हो बच्चा! जहां इतना सब्र किया है वहां दो-चार साल और ठंड रख। राम जी भला करेंगे। चिंता ना कर, तेरा अच्छा समय आने वाला है। सही झुनझुना थमा रहे हो बाबा। यहां खाने-कमाने के लाले पड़े हैं और आप हो कि दो चार साल बाद का लॉलीपॉप थमा रहे हो। ताकि ना रुकते बने और ना ही चूसते बने। बिना बोले मुझसे रहा न गया।
यहां चिंता इतनी है कि सीधे चिता की तैयारी चल रही है। प्यासा प्यास से ना मर जाए कहीं, इसलिए मुंह में पानी आने का जुगाड़ बना दिया कि बेटा, इंतज़ार कर। अभी तक अच्छा समय आने का इंतज़ार ही तो कर रहा हूं और क्या कर रहा हूं? मैं बुदबुदाया। ना जाने कब आएगा अच्छा समय, मैंने उदास मन से सोचा। आज ये बाबा कह रहा है कि दो-चार साल इंतज़ार कर। कल को कोई दूसरा बाबा भी यही डायलॉग मार देगा, मैं बड़बड़ा उठा। फिर दो-चार साल और सही। बस यूं ही कटते-कटते कट जाएगी ज़िन्दगी, मैं अन्दर ही अन्दर ठण्डी आह भरता हुआ बोला।
मेरी देखादेखी और लोग भी हाथ दिखाने जुट गए कि बाबा, मेरा हाथ देखो बाबा! पहले मेरा देखो। देख बाबा देख, जी भर कर देख, आंखे फाड़-फाड़कर देख। सभी को लॉलीपॉप चाहिए, थमा दे। तुम्हारे बाप का क्या जाता है, मै मुंह फेरकर आहिस्ता से हंसता हुआ बोला। शश्श! टी.टी आ रहा है, जिलानी साहब पर नज़र पड़ते ही मैंने कहा। टी.टी का नाम सुनते ही मजमा लगाई भीड़ कब छंट गई पता भी नहीं चला। जिलानी साहब अपने दल बल के साथ आ पहुंचे थे। टिकट? टिकट दिखाइए। मैं? मेरे साथ बैठा बन्दा सकपका गया। हां, तुम। तुम्हीं से बातें कर रहा हूं। सर एम.एस.टी। सुपर चढ़ा है? जी, जी सर। दिखाओ? एक मिनट! एक मिनट सर, लीजिए सर। हम्म, यहां साईन कौन करेगा? निकालो तीन सौ बीस रुपये। सर, गलती से रह गया साईन करना। अभी कर देता हूं। पहले तीन सौ बीस निकालो, बाद में करते रहना साईन-वाईन। प्लीज़ सर! इस बार छोड़ दीजिए, प्लीज़। आईन्दा ध्यान रहेगा। देख लो इस बार तो छोड़ देता हूं, पर अगली बार अगर सुपर चढ़ा नहीं मिला तो पूरे तीन सौ बीस रुपये तैयार रखना।जी सर।
बहुत दिन हो गए तुमसे भी इंट्रोडक्शन किए हुए, मेरी तरफ ताकते हुए जिलानी साहब बोले। जी, जी सर। वो! मेरे उस काम का क्या हुआ? जिलानी साहब पलटकर पीछे आते अनुराग से बोले। जी, कैंटीन बन्द थी ना सर, 26 जनवरी के चक्कर में। एक दो दिन में ला दूंगा सर। ध्यान रखना अपने आप, मेरी आदत नहीं है बार-बार टोकने की। जी! जी सर। आपका टिकट? जिलानी साहब 'मलंग बाबा' की तरफ मुखातिब होते हुए बोले, पर कोई जवाब नहीं। आपसे पूछ रहा हूं जनाब, टिकट दिखाइए। हम? हम बाबा हैं। फिर, क्या करूं? जिलानी साहब ने तल्खी भरे स्वर में कहा। हम इस मोह-माया के बन्धनों से आज़ाद हैं बच्चा। अच्छा? जिलानी साहब भी तुक मिलाते हुए बोले। ये फालतू की बातें छोड़ो, सीधे-सीधे टिकट दिखाओ। मैंने कहा ना टिकट दिखाइए? जिलानी साहब तेज़ आवाज़ में बोले।
किससे? किससे टिकट मांग रहे हो बच्चा? आपसे। जानते नहीं, हम कौन हैं? आप जो कोई भी हैं, मुझे मतलब नहीं। बस आप टिकट दिखाएं। फालतू बात नहीं। अगर है तो दिखाते क्यों नहीं? मैं भी भड़क उठा। नहीं है, तो तीन सौ बीस रुपए निकालें। जिलानी साहब रसीद बुक संभालते हुए बोले। हां, टिकट तो नहीं है हमारे पास। कभी लेने की ज़रूरत ही नहीं समझी होगी ना? मैं बोल पड़ा। किसी ने कभी रोका ही नहीं हमें कभी। आज तो रोक लिया ना? टी.टी गरम होता हुआ बोला। आप सीधी तरह से पैसे निकालें, इतना वक्त नहीं है।
वक्त तो बच्चा, सचमुच तेरे पास नहीं है। बाबा जिलानी साहब के माथे को गौर से देखते हुए शांत स्वर में बोले- शनि तेरे सर पर मंडरा रहा है। राहू केतु पर सवार चला आ रहा है। जल्दी से उपाय कर ले, वर्ना पछताएगा। जो होगा देखा जाएगा, आप बस जल्दी से पैसे निकालो। मुझे पूरी गाड़ी चेक करनी है। जिलानी साहब की आवाज़ सख्त हो चली थी। टी.टी साहब अड़कर खड़े हो गए कि इस बाबा से पैसे वसूल कर ही रहेंगे। बहस खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। ना बाबा मानने को तैयार, ना जिलानी साहब झुकने को तैयार और आग लगाने के लिए तो मैं काफी था ही। मज़ा जो आता था इन सबमें। तमाशा देखने वालों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। एक टिकट में दो-दो मज़े जो मिल रहे थे। सफर का सफर और एंटरटेन्मेंट भी।
बहस चल ही रही थी कि सोनीपत आ गया। अगर आप पैसे नहीं देंगे तो मुझे जबरन आपको यहीं उतारना पड़ेगा, जिलानी साहब गुस्से से बोल पड़े। तू! तू उतारेगा मुझे? जी हां, मैं उतारूंगा आपको। जिलानी साहब अपनी बेल्ट कसते हुए दृढ़ आवाज़ में बोले। सब! सब हिसाब देना पड़ेगा तुझे। आज तूने मलंग बाबा का अपमान किया है, बाबा की नशेड़ी आंखें गुस्से से लाल हो चुकी थी। चला जा चुपचाप यहां से, वर्ना घोर अनर्थ हो जाएगा। तूने ईश्वर का अपमान किया है, मुझसे टिकट मांगता है? तेरी औकात ही क्या है? बाबा गुस्से से थर-थर कांपते हुए बोले।
तेरे जैसे छत्तीस मेरे आगे-पीछे घूमते हैं, हमेशा। बाबा आसपास इकट्ठे हुए मजमे को देखते हुए बोले। मुझे गुस्सा ना दिला, कहे देता हूं, वर्ना पछ्ताएगा। टिकट और मुझसे? ये! ये तू ठीक नहीं कर रहा है। मेरा काम है आप जैसे मुफ्तखोरों को पकड़ना और मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि मैं अपनी ड्यूटी ठीक से बजा रहा हूं। जिलानी साहब गुस्से से चिल्लाए। अब देख तमाशा। देख, कैसे मैं तुझे श्राप देता हूं। फिर ना कहना कि बाबा ने पहले चेताया नहीं। कहते हुए बाबा ने आवेशित होकर अपने झोले में हाथ डाला और जय काली कलकत्ते वाली का जाप करते हुए पता नहीं क्या मंतर पढ़ा और मुट्ठी को जिलानी साहब के चेहरे पर फूंक दिया।
कुछ राख-सी उड़ी और अपने टी.टी साहब का मुंह धूल से अटा पड़ा था। उतारो साले इस पाखंडी बाबा को, उनका गुस्सा भड़क उठा। हमको उतार सके, ये तुझमें दम नहीं। तू हमारे से है, हम तुमसे नहीं- बाबा गुस्से में भी शायरी करता-सा नज़र आया। तेरी इतनी औकात नहीं कि तू मुझे उतार सके। अच्छा? जिलानी साहब उपहास उड़ाते हुए बोले। देखता हूं, मुझे लिए बिना यहां से गाड़ी कैसे हिलती भी है? कहते हुए बाबा गाड़ी से उतरा और तेज़ी से इंजन की तरफ लपका। वो आगे-आगे और मुझ समेत सारी पब्लिक पीछे पीछे। पब्लिक को तो बस मसाला मिलना चाहिए, चाहे जैसे भी मिले। पूरा इंजॉय करती है, सो मैं भी कर रहा था।
इंजन तक पहुंचते ही बाबा सीधा छलांग लगाकर ड्राइवर के केबिन में जा घुसा और झोले से वही राख मंत्र पढ़कर फूंकना शुरू हो गया। ये क्या कर रहा है बेवकूफ? ट्रेन रोककर केबिन से बाहर निकलकर ड्राईवर चिल्लाया। शश्श....चुप, एकदम चुप और बाबा का मंत्र पढ़ना जारी था। तब तक बाहर भक्तजनों का रेला-सा हाथ जोड़ खड़ा हो चुका था। अंधविश्वासी कहीं के। कुछ नहीं होने वाला है। सब टिकट न लेने से बचने का ड्रामा भर है। मैं सबको कहता फिर रहा था, लेकिन कोई मेरी सुनने को तैयार ही नहीं। देखते ही देखते उस अधनंगे से मलंग बाबा को पता नहीं क्या सूझा कि सीधा छलांग मारकर पटरी पर आया और इंजन के सामने आकर खड़ा हो गया। अब देखता हूं कि कैसे तनिक सी भी हिलती है गाड़ी? है हिम्मत तो चला गाड़ी, वह जिलानी साहब को चैलेंज करता हुआ बोला। तूने बाबा का प्यार देखा है, क्रोध नहीं। गुस्से से टी.टी की तरफ देखते हुए बाबा बोला।
ईश्वर से! ईश्वर के बन्दों से टिकट मांगता है! तुझे इस सबका हिसाब देना होगा। आज ही और यहीं, इसी जगह पर। कहकर बाबा ने फिर वही राख इंजन की तरफ फूंकनी शुरू कर दी। कोई समझाओ यार इसे, बेमौत मारा जाएगा, टी.टी साहब भीड़ की तरफ मुखातिब होते हुए बोले। सब चुप, कोई टी.टी की बात पर ध्यान नहीं दे रहा था। ग्रीन सिग्नल दिखाई नहीं दे रहा क्या? जिलानी साहब ड्राईवर पर बरसे। जी! तो फिर चलाता क्यों नहीं? जी, ये बाबा...। बाबा गया तेल लेने, तू गाड़ी चला। टी.टी की भाषा भी अभद्र हो चली थी। चढ़ा दे गाड़ी, इस पर। लिख देंगे कि आत्महत्या करने चला था। आ गया अपने आप नीचे। हम क्या करें? चिंता ना कर, गवाही मैं दूंगा। चला गाड़ी। साहब, पता नहीं क्या खराबी आ गई है, स्टार्ट ही नहीं हो रहा है इंजन। तो, बन्द ही क्यों किया था? जिलानी साहब भड़कते हुए बोले। मैंने कहां बन्द किया? तो फिर क्या कोई भूत-प्रेत आकर इसे बन्द कर गया? जी, ये तो पता नहीं। कई बार कोशिश कर ली, लेकिन पता नहीं क्या बीमारी लग गई है इसे। ड्राईवर इंजन को लात मारता हुआ बोला। घूं घूं की आवाज़ सी आती है और फिर ठुस्स। अभी तक तो अच्छा-भला चलता आया है, दिल्ली से। ड्राईवर की आवाज़ में असमंजस भरा था।
पता नहीं क्या चक्कर है? उधर दूसरी तरफ भीड़ के बढ़ते हुजूम के साथ-साथ बाबा का ड्रामा भी बढ़ता ही जा रहा था। कभी इधर भभूती फूंके, कभी उधर। जब ग्रीन सिग्नल होने के बावजूद ट्रेन अपनी जगह से नहीं हिली तो स्टेशन मास्टर साहब दौड़े-दौड़े तुरंत आ पहुंचे। अरे चला ना इसे, चलाता क्यों नहीं? कब से ग्रीन सिग्नल हुआ पड़ा है, दिखाई नहीं दे रहा है क्या? अपनी तो तुझे चिंता है नहीं, मेरी भी नौकरी खतरे में डलवाएगा? पीछे शताब्दी आ रही है, निकाल इसे फटाफट। अपने बस का नहीं है, आप खुद ही कोशिश कर लो। ड्राईवर तैश में गाड़ी से उतरता हुआ बोला। आखिर, हुआ क्या है इसे? पता नहीं, अपने आप इंजन बन्द हो गया।
देख, कोई वायरिंग-शायरिंग ना हिल गई हो। स्टेशन मास्टर की आवाज़ नरम पड़ चुकी थी। सब देख लिया साहब, कहीं कोई खराबी नहीं दिख रही। ड्राईवर का वही रटा-रटाया सा जवाब। इतने में खबर पूरे सोनीपत स्टेशन पर फैल गई और बाबा की जय, बाबा की जय के नारे लगाते लोग उसी प्लैटफॉर्म पर इकट्ठा होने शुरू हो गए। हां, इस बाबा ने केबिन के अन्दर आकर कुछ फूंका और इंजन अपने आप बन्द हो गया, ड्राईवर बाबा की तरफ इशारा करता हुआ बोला। आखिर चक्कर क्या है? पता नहीं साहब। किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा है। सब इसी टी.टी. का किया धरा है। ना ये टिकट मांगता और ना ही ये लफड़ा होता, एक बोल पड़ा। तो क्या, अपनी ड्यूटी करना छोड़ दें? मैं भड़क उठा। तो अब करवा ले ना आराम से ड्यूटी। हुंह, बड़ा तरफदारी करने चला है, वह चिल्लाया।
उफ, पहले से ही ट्रेन सवा दो घंटे लेट है, ऊपर से ये ड्रामा। पता नहीं, कब चंडीगढ़ पहुंचेगी? एक सरदार जी परेशान होकर घड़ी देखते हुए बोले। कोर्ट में तारीख है आज की। नहीं पहुंचा, टाइम पर तो समझो प्लॉट गया हाथ से। वे रुआंसे होकर बोले। बड़ा पहुंचा हुआ महात्मा है, एक बोला। एक झटके में ही ट्रेन रोक दी, कमाल है। दूसरे ने हां में हां मिलाई। अरे, महात्मा नहीं अवतार कहो अवतार, किसी तीसरे की आवाज़ सुनाई दी। कोई पहुंचा हुआ फकीर मालूम होता है, एक और चहक उठा। अगर ऐसा है तो टिकट नहीं ले सकता था क्या? मैं फिर बोल पड़ा, चुप हो जा एकदम। परेशान सरदार जी मुझे गुस्से से घूरते हुए बोले। इतना ठुकेगा कि ज़िन्दगी भर याद रखेगा। एक पंगा खत्म होने को नहीं है और तू दूसरे की तैयारी किए बैठा है।
सबको अपने खिलाफ देखकर, मन मसोस कर मुझे चुप हो जाना पड़ा। जबतक टी.टी. माफी नहीं मांगेगा, तबतक ये बाबा गाड़ी नहीं चलने देगा। एक आवाज़ सुनाई दी, सही है बड़ा अड़ियल बाबा है। अपने टी.टी. साहब भी कौन-सा कम हैं? एक बार अड़ गए सो अड़ गए। मेरा इतना कहना था कि सबकी गुस्से भरी आंखे मुझे तरेरने लगी। एक काम करो, तुम ही माफी मांग लो यार स्टेशन मास्टर टी.टी. की तरफ देखते हुए बोले। मैं क्यों? मैं तो अपनी ड्यूटी कर रहा था।
अरे यार, देख तो लिया करो कम से कम कि किस से पंगा लेना है और किस से नहीं। ये क्या कि गधे-घोड़े सभी एक ही फीते से नाप दो, स्टेशन मास्टर साहब बोले। देख नहीं रहे कि सब कितने परेशान हो रहे हैं? आखिर क्या गलत किया है मैंने? जिलानी साहब तैश में बोले। अरे बाबा, कुछ गलत नहीं किया। बस खुश? टी.टी. की बात काटते हुए स्टेशन मास्टर साहब बोले। अब किसी भी तरह से चलता करो इस मुसीबत को, स्टेशन मास्टर की आवाज़ में मिमियाहट थी। कैसे? जो मर्ज़ी, जैसे मर्ज़ी करो लेकिन ये गाड़ी यहां से निकल जानी चाहिए अभी के अभी। वर्ना, समझ लो अपने साथ-साथ कईयों की नौकरी ले बैठोगे, स्टेशन मास्टर साहब गुस्से से बोले।
समझा कर यार! अगले महीने रिटायर हो रहा हूं और कोई पंगा नहीं चाहिए मुझे। इनक्वायरी बैठ गई तो समझो लटक गया मेरा फंड, मेरी पेन्शन। स्टेशन मास्टर साहब सहमे-सहमे से बोले। पता नहीं कैसे मैनैज करूंगा सब। बेटी की शादी करनी है, डेट फाईनल हो चुकी है। कार्ड तक बंट चुके हैं। अपनी अड़ी के चक्कर में मेरा जुलूस ना निकलवा देना, प्लीज़। अच्छा! आप ही बताइए, क्या करूं मैं? पांव पड़ूं क्या उसके? हां, हां ये ठीक रहेगा। कोई बोल पड़ा। मना लो यार, किसी भी तरीके से स्टेशन मास्टर बोले।
ना चाहते हुए भी जिलानी साहब को बाबा से माफी मांगनी पड़ी। अब तो मैं क्या मेरे बाप की तौबा, जो आईन्दा कभी किसी साधू या मलंग के मत्थे भी लगा। जिलानी साहब खुद से ही बातें करते हुए आगे निकल गए। मुझे किसी पागल कुत्ते ने काटा है, जो मैं नाहक पंगा मोल लेता फिरूं। उनका बड़बड़ाना जारी था। माफी मांगने से बाबा का गुस्सा शांत हो चुका था। मंत्र बुदबुदाते हुए उन्होंने अपने थैले से कुछ निकाल फिर इंजन की तरफ फूंक दिया।
हां, तो भइया ड्राईवर, अब तुम खुशी से ले जा सकते हो अपना छकड़ा, लेकिन मुझे ले जाना नहीं भूलना। हा...हा...हा मुझ समेत, सभी की हंसी छूट गई। ड्राईवर ने खटका दबाया और कमाल ये कि बिना कोई ना नुकुर किए इंजन एक ही झटके में स्टार्ट। अवाक से सबके मुंह खुले के खुले रह गए। हर कोई हक्का-बक्का। आश्चर्य भाव सभी के चेहरे पर तैर रहे थे। बाबा की जय हो, मलंग बाबा की जय हो- इन आवाज़ों से पूरा माहौल गूंज उठा। आंखे देख रही थीं, कान सुन रहे थे, लेकिन दिमाग को मानो विश्वास ही नहीं हो रहा था। और होता भी कैसे? कोई विश्वास करने लायक बात हो तब तो। लेकिन आंखों देखी को कैसे झुठला देगा राजीव? असमंजस भरी सोच में डूबा मैं चुपचाप अपनी सीट पर आ गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये सब हुआ तो कैसे हुआ।
सारे तर्क-वितर्क फेल होते नज़र आ रहे थे। ये जादू-वादू कुछ नहीं होता है। सब हाथ की सफाई, आंखों का धोखा है जैसी बचपन में सीखी बातें मुझे बेमानी-सी लगने लगी थी। कहीं हिप्नोटाईज़ ना कर दिया हो बाबा ने पूरी पब्लिक को। शायद, मैं खुद ही सवाल पूछ रहा था और खुद ही जवाब दे रहा था। शायद, कोई सुपर नैचरल पावर हो बाबा के पास। या कहीं सचमुच में कोई देवता, कोई अवतार तो नहीं है ये बाबा? इन जैसे सैंकड़ो सवाल बिना किसी वाजिब जवाब के मेरे दिमाग के भंवर में गोते लगाने लगे थे।
ये सारा चक्कर मुझे घनचक्कर किए जा रहा था। इतनी शक्ति, इतनी पावर एक आम इंसान में? हो ही नहीं सकता। क्या आज भी इतनी ताकत, इतना दम है मंत्रोचार में? कभी सोचा ना था। ऐसे किस्से तो मानो या न मानो, सरीखे टीवी-सीरियलों में ही देखे थे आज से पहले। सब फ्रॉड है, सब धोखा है। दिमाग मुझे इस सारे वाक्यों पर विश्वास करने से मना कर रहा था। लेकिन अगर सब फ्रॉड, सब धोखा है और छलावा मात्र है तो यकीनन बाबा की दाद देनी होगी कि कैसे उन्होंने सबकी आंखे फाड़ती नज़रों के सामने खुली आंखों से काजल चुरा लिया। जरूर कुछ ना कुछ चमत्कार, कुछ ना कुछ कशिश तो है ही बाबा में, मन बाबा की तारीफ करने लगा था। मैं हक्का-बक्का सा बाबा को ही टुकुर-टुकुर निहारे चला जा रहा था। उनके चेहरे पर तेजस्वी ओज सा चमकने लगा था।
उफ! मैं नादान समझ नहीं पाया उनको। अनजाने में भूल से पता नहीं कैसा-कैसा मज़ाक उड़ाता रहा। अब अपने किए पर पछतावा होने लगा था मुझे। ये ज़बान कट के क्यों ना गिर गई, उनके बारे में अपशब्द कहने से पहले? बाबा, मुझ अज्ञानी, मुझ पापी को क्षमा कर दो। मैं नास्तिक आपको पहचान नहीं पाया, कहते हुए मैंने बाबा के पांव पकड़ लिए। आंखों से कब अविरल आसुंओ की धार बह चली, पता भी न चला। मेरे चेहरे पर पश्चाताप के आंसू देख बाबा ने उठकर मुझे गले से लगा लिया। कोई बात नहीं बच्चा। बाबा की जय, बाबा की जय हो, इन आवाज़ों में मेरी आवाज़ भी शामिल हो चुकी थी। क्या सोच रहा है बच्चा?
मुझे सोच में डूबा देखकर बाबा ने पूछ लिया। जी कुछ खास नहीं, बस ऐसे ही। मैंने तो सुना था कि ये जादू-शादू कुछ नहीं होता, लेकिन वह ट्रेन...! मेरे चेहरे पर असमंजस का भाव था। सब ईश्वर की माया है बच्चा। लेकिन बाबा, ऐसा कैसे हो सकता है? मेरे चेहरे पर हैरत का भाव था। आंखो देखी पर विश्वास नहीं है, तुझे तो अब कानों सुनी पर कैसे विश्वास करेगा बच्चा? जी ये तो है, लेकिन? कुछ लेकिन, वेकिन नहीं, कहा ना! सब ईश्वर की माया है। बाबा मुझे अपनी शरण में ले लो, अपना दास बना लो कहते हुए मैंने हाथ से अपनी अंगूठी उतार बाबा के चरणों में अर्पित कर दी। हमें कुछ नहीं चाहिए बच्चा। बरसों पहले हम इन मोह माया के बन्धनों से मुक्त हो चुके हैं, आज़ाद हो चुके हैं। बाबा ये कुछ भी नहीं, बस ऐसे ही छोटी सी तुच्छ भेंट समझ कर रख लें।
मुझे तो बस आपका सानिध्य, आपका आर्शीवाद चाहिए। मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताएं? लगता है तुम नहीं मानोगे, जैसी तुम्हारी इच्छा। लेकिन इस छोटी-मोटी फुटकर सेवा से हमारा अभिप्राय पूरा नहीं होने वाला, कहते हुए उन्होंने अंगूठी उठाकर कुर्ते की जेब में रख ली। मेरे चेहरे पर प्रश्न सवार देखकर वह बोले, मैं तो मलंग आदमी हूं। अपने लिए कुछ नहीं चाहिए मुझे। दो जून खाने को मिल जाए और तन ढंकने को एक जोड़ी कपड़ा तो बहुत है मेरे लिए। फिर, मेरा अज्ञान अभी भी दूर नहीं हुआ था। एक छोटी-सी गौशाला बनवा रहा हूं, यही कोई पांच सौ गायों की। साथ में आठ-दस कमरे बनवा रहा हूं धर्मशाला के लिए, आने-जाने वालों के काम आएंगे। यही कोई दस लाख का खर्चा आएगा।
नेक कामों के लिए पैसे की तंगी तो रहती ही है हमेशा। शायद इशारा था उनकी तरफ से ये। बाबा, दान-दक्षिणा की आप चिंता न करें। जो बन पड़ेगा, जितना बन पड़ेगा जरूर मदद करूंगा। आखिर गौ माता की सेवा का सवाल जो है। हम मदद नहीं करेंगे तो कोई बाहर से तो आने से रहा, मैंने कहा। लेकिन बाबा, एक जिज्ञासा है। बोलो वत्स, बाबा ने सौम्य स्वर में पूछा। एक सवाल मेरे मन को खाए जा रहा है बार-बार। मेरा कौतुहल मुझे चैन से बैठने नहीं दे रहा है कि कैसे वह ट्रेन...मैंने बात अधूरी छोड़ दी। मेरी बात सुन बाबा हौले से मुस्काते हुए बोले, अच्छा सुन! पानीपत जाना है ना तुझे? जी! ठीक है स्टेशन आने दे, तेरी सब शंकाओं का निवारण कर दूंगा। अब खुश?
जी, मैं प्रसन्न होकर बोला। वो बेटा, मैंने तुम्हें बताया था ना गौशाला के लिए....। जी, आप बताएं कितने से आपका काम चल जाएगा? दान मांगा नहीं जाता बच्चा, जो तुम्हारी श्रद्धा हो। दो हज़ार ठीक रहेगा? मैं जेब से पर्स निकालता हुआ बोला। तुम्हारी मर्ज़ी। अपने आप देख लो, पुण्य का काम है। ठीक है बाबा, पांच हज़ार दे देता हूं, ये लीजिए। हमें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए बच्चा, सब गौ माता की सेवा के काम आएगा। बाबा पैसे जेब के हवाले करते हुए बोले। मोक्ष क्या है, नाम-दान से क्या अभिप्राय है जैसी ज्ञान-ध्यान की बातों में पता ही नहीं चला कब पानीपत आ गया। बाबा मैं चलता हूं, पानीपत आ गया। ठीक है बच्चा पहुंचो अपनी मंज़िल पर, बाबा मुझसे विदा लेते हुए बोले -अपना ध्यान रखना।
बाबा, बताओ ना कैसे रोक दिया था आपने ट्रेन को? मेरे चेहरे पर बच्चों जैसी उत्सुकता देखकर बाबा मुस्कुराए, सब ईश्वर की माया है बच्चा। ये मेरा विज़िटिंग कार्ड रख लो, दर्शन देने कभी-कभार आ जाया करना हमारे आश्रम में। ईश्वर चन्द मेरा नाम है। ध्यान रहेगा ना? जी ज़रूर, विज़िटिंग कार्ड जेब में रखते हुए मैं बोला। वैसे भी बच्चा जो कोई मुझे एक बार जान लेता है ताउम्र नहीं भूलता है, बाबा की मुस्कान गहरी हो चली थी। आपकी महिमा अपरम्पार है प्रभु। बाबा, वह...। लगता है तुम जाने बिना नहीं मानोगे। अच्छा, कान इधर लाओ। उसके बाद उन्होंने जो कुछ भी मेरे कान में कहा, वह सुनकर मैं हक्का-बक्का सा रह गया। बोलने को शब्द नहीं मिल रहे थे। कानों को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था। यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये सब कैसे हो गया।
विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई मुझे दिनदहाडे पांच हज़ार रुपए नकद और दहेज में मिली सोने की अंगूठी का फटका लगा चुका था। हुआ दरअसल क्या कि जब बाबा, इंजन में ड्राईवर के पास गया तो उसने चुपके से ड्राईवर को पांच सौ का नोट देकर कहा था कि जबतक मैं इशारा ना करूं तबतक गाड़ी रोककर रखनी है। इतनी सिम्पल सी बात, मैं बेवकूफ समझ नहीं पाया। खुद अपनी ही नज़रों से शर्मसार हो जब मैं कुछ समझने लायक हुआ तो पाया कि बाबा आस-पास कहीं न था। अब मैं कभी अपने खाली पर्स को देखता, कभी अंगूठी विहीन अपने हाथ को। सच, वह ईश्वर चन्द का बच्चा अपनी ईश्वरी माया दिखा गया था। सही कह गया था वह ठग बाबा कि उसे एक बार जान लेने वाला ताउम्र कभी भूल नहीं सकता है।

 

***राजीव तनेजा***

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छत्‍तीसगढ स्‍वाभिमान मंच को नगाडा की जगह केला

संजीव तिवारी 

छत्‍तीसगढ स्‍वाभिमान को जगाने के लिए नगाडा बजाकर लोगों को एकजुट करने या पानठेले की जुबान पर कहें तो छत्‍तीसगढ में महाराष्‍ट्र जैसी चिंगारी फैलाने का प्रयास करने वाले भूतपूर्व सांसद ताराचंद साहू नें छत्‍तीसगढ के वैशालीनगर उपचुनाव में स्‍वयं अपना नाम वापस लेकर यद्धपि बतकही की है कि वे छत्‍तीसगढिया स्‍वाभिमान जगाने के लिए ताउम्र संघर्ष करते रहेंगें, इस विधानसभा चुनाव में वे इस कार्य का जुम्‍मा पार्टी की सदस्‍या रीता देशलहरा को  सौंपा है, परन्तु उन्हें नगाडा की जगह केला चुनाव चिन्‍ह के साथ सौंप दिया है। खबर है कि इस विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के भजन सिंह निरंकारी एवं भाजपा के जागेश्‍वर साहू सहित 19 प्रत्‍यासी चुनाव मैदान में हैं। छत्‍तीसगढ की ट्विन सिटी कहे जाने वाले दुर्ग-भिलाई नगर का वैशालीनगर विधानसभा क्षेत्र पिछले चुनाव में ही अस्तित्‍व में आया था और इस विधानसभा क्षेत्र से प्रदेश की मुखर एवं प्रभावशाली नेत्री सुश्री सरोज पाण्‍डेय नें रिकार्ड मतों से जीत हासिल की थी। उनके दुर्ग संसद क्षेत्र से सांसद चुन लिए जाने एवं विधायक पद छोडने के बाद यह उप चुनाव हो रहा है।


विगत चुनाव से निवृतमान सांसद ताराचंद के स्‍वाभिमान का हौवा इस कदर परवान चढ रहा था कि सभी दल एवं बुद्धिजीवी इससे चिंतित हो गए थे। सुश्री सरोज पाण्‍डेय नें अपने चुनाव के समय इस विधान सभा क्षेत्र में छत्‍तीसगढिया मतदाताओं को लुभाने के उद्देश्‍य से छत्‍तीसगढ के पारंपरिक वस्‍त्राभूषणों के साथ बडे बडे पोस्‍टर लगवाया था। इन पोस्‍टरों को देखकर स्‍वाभाविक रूप से इसे छत्‍तीसगढ स्‍वाभिमान मंच का जवाब प्रतीत होता था। उन दिनों स्‍थानीय पान ठेलों में चर्चा जमकर थी कि ताराचंद का स्‍वाभिमान बाजी मार लेगा किन्‍तु इस विधान सभा में तदुपरांत लोकसभा में भी सरोज नें स्‍थानीय स्‍वाभिमान के राजनैतिक स्‍वप्‍न को ध्‍वस्‍त करते हुए लघु भारत कहे जाने वाले भिलाई के भारतीय स्‍वाभिमान को कायम रखा।


इस उपचुनाव में ताराचंद नें कांग्रेस और भाजपा के प्रत्‍याशियों  की घोषणा के पूर्व छत्‍तीसगढ स्‍वाभिमान की बडी बडी बातें की स्‍वयं नामांकन भी भरा किन्‍तु जब नाम वापस लेने की बारी आई तो अपना नाम वापस ले लिया। अब पान ठेले पर चर्चा यह है कि ताराचंद नें साहुओं के स्‍वाभिमान के लिए मशाल उठाया था जैसे ही इस उपचुनाव में भाजपा से जागेश्‍वर साहू के नाम की घोषणा की गई उनका स्‍वाभिमान जाग गया और वे अपना नाम वापस लेकर रीता देशलहरा को छत्‍तीसगढ स्‍वाभिमान मंच का अधिकृत प्रत्‍यासी बना दिया। चर्चा करने वाले पिचकारी से पीकें थूंकते हुए कह रहे हैं कि छत्‍तीसगढियों के स्‍वाभिमान के लिए लडने की बातें राजनैतिक पैतरेबाजी थी इसीलिए लोकसभा में जनता नें इसे नकार दिया था। अब इस लोकसभा उप चुनाव में इस मंच की रही सही ताकत भी समाप्‍त हो जाएगी। अब जनता आपसी लडाई के भयंकर परिणामों का आंकलन स्‍वयं कर रही है और भेदभाव को मिटाने के लिए कपुरी बंगला के मिश्‍चर पान का लुफ्त उठा रही है।


पहले नगाडा को स्‍वाभिमान जगाने के उद्घोष के आमुख वाद्य के प्रतीक के रूप में प्रस्‍तुत करते हुए इस मंच नें भरपूर नगाडा बजाया था। अब चूंकि चुनाव चिन्‍ह नगाडा मंच को नहीं मिल पाया इसके बदले उन्‍हें केला चुनाव चिन्‍ह मिला है तो फुसफुसाहट के साथ पहेली यह है कि अब केला को स्‍वाभिमान में किसका प्रतीक बनाया जायेगा।

संजीव तिवारी 

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मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

डंडा मेरा निराला

गिरीश पंकज 
पुलिसवाला डंडा घुमाते हुए पान ठेले की ओर ही चला आ रहा था और यह गीत भी गुनगुना रहा था-
डंडा मेरा निराला, जब भी इसे उछाला। है कोई बचने वाला?
ले ले डंडा, ले ले,ले ले डंडा ले ले...
आखिर वह ठेले तक  आ ही गया. उसे देख कर सज्जन टाईप के लोग पतली गली से खिसक लिए और दुर्जन किस्म के लोग डटे रहे. लोग कहते है कि उनसे बड़ा याराना था. जो भी हो. सज्जन भाग गए. कुछ लोगों से तो खुदा भी डरता है न . (अब खुदा किनसे डरता है, यह एक पहेली है. जो सही उत्तर देगा, उसे आकर्षक इनाम मिलेगा-''ललित डाट काम'' की ओर से...अभनपुर का शानदार पान ) तो पुलिस वाला अतिरिक्त उत्साह में नज़र आ रहा था। मैं समझ गया कि या तो उसे आज कुछ अधिक हफ्ता मिल गया होगा या फिर किसी का सिर फोड़ कर आ रहा होगा। जाने कितने मनुष्यों का रक्त पी चुके डंडे से मैंने खुद को बचाया, फिर पुलिसवाले से कहा-
''भाईजी, आप पुलिस हैं या कसाई जी?''
उसने मुझे कुछ इस अंदाज में घूरा, गोया भस्म कर देगा। कोई और होता तो शायद डर जाता, लेकिन हम ठहरे फक्कडऱाम। मर-मिटने पर आमादा। सो डरने का तो स्वाल ही नहीं था।
मैंने कहा-''घूरो मत। जो लोगों को घूरते हैं, वे एक दिन घूरे में मिल जाते हैं। पुलिस वाला नार्मल हुआ, लेकिन चेहरे पर नाराजगी साफ झलक रही थी। वह बोला-''तुमने मुझे कसाई कहा। यह तौहीन है।''
मैंने पूछा- ''किसकी तौहीन, कसाई की?''
वह बोला -''नहीं, मेरी तौहीन है। वर्दी की तौहीन है। डंडे की तौहीन है।''
मैंने कहा-''ऐसे काम ही क्यों करना, कि तौहीन हो। काम ऐसे करो कि वर्दी की शान बढ़े। तुम तो डंडे को सिरफोड़ू बता कर उसका ऐसा गुणगान कर रहे हो, जैसे डंडा न हुआ, सारे मर्ज की दवा हो गई?'' 
सिपाही हँसा- ''यह सारे मर्जों की दवा तो नहीं, लेकिन कुछ मर्जों की दवा तो जरूर है।''
मैंने पूछा-''जैसे?''
सिपाही ने कहा-''देखो, सड़कों पर जो लोग सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते हैं, उनको डंडे से हकाल कर मैं सरकार की मदद करता हूँ। यह कितनी बड़ी बात है।''
मैंने कहा - ''सेवा करते हो कि परेशान करते हो? लोकतंत्र में लोग क्या प्रदर्शन भी नहीं कर सकते?''
वह बोला -''प्रदर्शन तो कर सकते हैं, लेकिन सरकार के खिलाफ नहीं। प्रदर्शन का शौक चर्राया है तो दहेज के खिलाफ प्रदर्शन करो, टोनही प्रथा के खिलाफ करो, प्रदूषण के खिलाफ करो। खूब करो, हम भी सहयोग करेंगे, लेकिन अगर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया तो हमारा डंडा ठुकाई करने लगता है। हमको यही सिखाया गया है। आजादी के पहले हमारा डंडा यही करता था, और आज़ादी के बाद भी वही काम कर रहा है। सिपाही की साफगोई ने दिल खुश कर दिया।''
मैंने पान चबाते हुए कहा - ''तुम बहुत जल्दी तरक्की पाओगे।''
सिपाही मुझ फिर घूरने लगा। वह मेरी बातों में व्यंग्य देख रहा था, जबकि मैंने परिहास किया था। थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद सिपाही ने कहा- ''देखो, हम डंडास्वामी हैं। हम पर व्यंग्य करो,हास्य करो, कोई फर्क नहीं पड़ता। हम लोग हुकुम के गुलाम है। हम केवल डंडा चलाते हैं। जिस दल की सरकार रहती है, उसके लोगों को छोड़ कर हम सबको  अपने डंडे पर रखते हैं। क्योंकि नौकरी बचानी होती है। तुम किस दल के हो?''
मैंने कहा- ''जिस दल की सरकार है।''
सिपाही तो गदगद  हो गया। उसने सैल्यूट मारते हुए कहा-''आप तो बड़े काम के हैं सर। अगर सरकार के अंदर तक आपकी घुसपैठ हो तो एक काम बताऊं? जो चाहेंगे, सेवा कर दूँगा।मेरी ओर से एक पान हो जाये.''
मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा-अभी मेरा इतना पतन नहीं हुआ है, कि तुमसे पान खाऊँ.
सिपाही का डंडा मचलने लगा. मैंने सोच, अब गया मेरा सर, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उसने पान वाले को हमेशा की तरह आश्वासन दिया-''कल दूंगा पैसे'', फिर तोंद पर हाथ फिराते हुए आगे बढ़ गया. सिपाही गया तो कुछ लोग फिर आ कर ठेले पर डट गए. एक बोला-''मैं सिपाही और सांप दोनों से बच कर चलता हूँ.''
दूसरा बोला-'' पुलिस वाले इतने बुरे भी नहीं होते.''
पहला बोला-''इतने सज्जन भी नहीं होते''
पान वाला घबराया, बोला-भैये,  मुझे धंधा करने दो. पुलिस कि आलोचना यहाँ मत करो, वर्ना कल ठेला उठ जायेगा, प्लीज''
सब खामोश हो गए और रामप्यारी के हुस्न की  चर्चा में मशगूल हो गए.
मै सोचने लगा, ये पापी पेट भी अजीब है। जैसे ही मेरी (नकली)असलियत पता चली, सिपाही का डंडा ठंडा पड़ गया। मुझे अचानक लगा कि अब निकल लेना चाहिये क्योंकि अगर सिपाही को बाद में पता चल गया कि मैंने सत्तावाले दल का कार्यकर्ता नहीं हूँ, तो किसी न किसी धारा के तहत मुझे अंदर तो करवा ही देगा।
मैंने फौरन अपनी राह पकड़ ली.

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सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

तलाश भ्रष्ट लोगों की-गिरीश पंकज

गिरीश पंकज 
पान ठेले पर उस दिन फोकट का पान खाते हुए नेता जी का मुंह लाल नहीं, काला नज़र आ रहा था. मै समझ नहीं पाया कि ऐसा कैसे हो रहा है. फिर चिंता करने पर दिमाग का बल्ब आखिर जल ही गया  कि मालेमुफ्त उडाने वालो के होंठ से लेकर दिल तक सब काले ही काले होते है. फिर ये तो नेता है...खैर, अब मिल ही गए तो नमस्ते कर दिया. मुझे देख कर खिल गए. उनके चमचों ने कान में कुछ कहा, तो नेता जी खिसकने लगे. मैंने फ़ौरन  लपक लिया-
  ' अरे-अरे, कहाँ चल दिए. उमरे अखबार दैनिक खंडन को इन्टव्यू तो देते जाइये. क्या आपको पता है कि अपने देश में सिर्फ आठ करोड़ लोग भ्रष्ट हैं!'' नेता परसादीराम जी से मैंने पूछा
 'इस आठ करोड़ में कम से कम मैं तो बिलकुल ही शामिल नहीं हूँ.'' नेताजी फौरन मुसकराते हुए बोले, 'सचमुच, आज देश में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। मैं चाहता हूँ कि देश इससे ऊपर उठे।''
'आठ करोड़ में भी आप शामिल नहीं हैं, यह आश्चर्यजनक सत्य है।'' मैंने तनिक मुसकराते हुए कहा
 'मैं आपका इशारा समझ रहा हूँ।'' नेताजी मेरी मुसकान के गूढ़ार्थ को पढ़ गए और बोले- 'लेकिन साफ-साफ बता दूँ कि उस मामले में मेरा कोई हाथ नहीं है।''
'किस मामले की बात कर रहे हैं?'' मैं चौंक पड़ा
 'मैं फलाने कांड की बात कर रहा हूँ।'' नेताजी बोले, 'उसमें मेरा नाम जबरन उछाला गया था। मेरे भाई की दूकान में कुछ खरीदी हुई थी, इससे मुझे क्या? लेकिन नहीं, मुझको ही लपेट लिया। इसमें कुछ अफसरों का हाथ है।''
'वैसे तो आपका नाम ब्ल्यू फिल्म रैकेट को बचाने वालों में भी शामिल था?'' मैंने पूछा। मेरे इस प्रश्न पर पाँच सेकेंड तक मौन रहने के बाद परसादीराम बोले-
'अरे भाई, उस मामले में तो मुझे इसलिए कूदना पड़ा कि बेचारे सीधे-सादे लोग थे। एक कमरे में एकत्र होकर सती अनुसूया नामक फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। तुमको तो कहानी पता ही है। ये धार्मिक कार्य था। कपड़े उतारने का सीन था। किसी नास्तिक ने फोन कर दिया कि ब्ल्यू फिल्म बन रही है। बेचारे पकड़े गए, बताइए, ये क्या बात हुई ? मजबूरी में मुझे हस्तक्षेप करना पड़ा। क्या यह भ्रष्टाचार है ?''
'आपकी बात में दम है' मैंने कहा, 'आप जैसे सात्विक नेता आठ करोड़ की सूची में हो ही नहीं सकते। अब तो सीधे-सीधे वीवीआईपी भ्रष्टाचारियों की सूची बननी चाहिए। वैसे आप तो वीआईपी हैं!''
'ये क्या वकीलों टाइप फँसाने वाली भाषा बोल रहे हो?'' नेताजी हड़बड़ाए 'मैं अस्सी फीसदी ईमानदार नेता हूँ, बस। देश का नेता कैसा हो, परसादीराम जैसा हो।''
'मतलब अस्सी फीसदी पाक-साफ हैं' मैंने कहा, 'अच्छा, यही बात अपनी आत्मा पर हाथ रख कर बोलिए।''
परसादीराम जी अपना दिल टटोलने लगे। दाएं-बाएं, ऊपर-नीचे, सब जगह देखने के बाद बोले - 'पता नहीं, इस वक्त मेरी आत्मा कहाँ चली गई है। लगता है कि दंगापीडि़त इलाके में भटक रही होगी। कभी-कभी तो ससुरी राजघाट तक चली जाती है। मैं उस भटक रही आत्मा की कसम खाकर कहता हूँ कि मैं... मैं ईमानदार हूँ।''
मैंने अनेक नेताओं से मुलाकात की, बड़े-बड़े अफसरों से भी बात की। सबने कहा कि हम बेईमान नहीं हैं। मैंने व्यापारियों से चर्चा की। वे भी पाक-साफ थे।
अब सवाल यह उठता है कि आठ करोड़ भ्रष्ट लोगों की सूची में शामिल कौन है ? आखिर में थक हर कर पान ठेले के सामने आ कर खडा हो गया. यहाँ एक से एक फेंकोलाजी वाले भी आते रहते है. कोई तो मिलेगा जो बताएगा कि भ्रष्टों की सूची में अपने इलाके के नेता-अफसर शामिल है, या पडोसी राज्य के? यह सोच का ही नहीं, शोध का विषय भी है।
मैंने रोज लोगों को चूना लगाने वाले पनवाडी भाई से कहा- भाई मेरे, एक ठो पान तो खिलाना, घबराओ मत. ग्राहकी ख़राब नही  होगी. हमको देख कर दो-चार लोग आयेंगे और जान नहीं, पान ही खायेंगे.
पान वाला मनुष्य था. अगला मुस्कराने लगा.

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तलाश भ्रष्ट लोगों की- व्यंग्य

गिरीश पंकज 
पान ठेले पर उस दिन फोकट का पान खाते हुए नेता जी का मुंह लाल नहीं, काला नज़र आ रहा था. मै समझ नहीं पाया कि ऐसा कैसे हो रहा है. फिर चिंता करने पर दिमाग का बल्ब आखिर जल ही गया  कि मालेमुफ्त उडाने वालो के होंठ से लेकर दिल तक सब काले ही काले होते है. फिर ये तो नेता है...खैर, अब मिल ही गए तो नमस्ते कर दिया. मुझे देख कर खिल गए. उनके चमचों ने कान में कुछ कहा, तो नेता जी खिसकने लगे. मैंने फ़ौरन  लपक लिया-
  ' अरे-अरे, कहाँ चल दिए. उमरे अखबार दैनिक खंडन को इन्टव्यू तो देते जाइये. क्या आपको पता है कि अपने देश में सिर्फ आठ करोड़ लोग भ्रष्ट हैं!'' नेता परसादीराम जी से मैंने पूछा
 'इस आठ करोड़ में कम से कम मैं तो बिलकुल ही शामिल नहीं हूँ.'' नेताजी फौरन मुसकराते हुए बोले, 'सचमुच, आज देश में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। मैं चाहता हूँ कि देश इससे ऊपर उठे।''
'आठ करोड़ में भी आप शामिल नहीं हैं, यह आश्चर्यजनक सत्य है।'' मैंने तनिक मुसकराते हुए कहा
 'मैं आपका इशारा समझ रहा हूँ।'' नेताजी मेरी मुसकान के गूढ़ार्थ को पढ़ गए और बोले- 'लेकिन साफ-साफ बता दूँ कि उस मामले में मेरा कोई हाथ नहीं है।''
'किस मामले की बात कर रहे हैं?'' मैं चौंक पड़ा
 'मैं फलाने कांड की बात कर रहा हूँ।'' नेताजी बोले, 'उसमें मेरा नाम जबरन उछाला गया था। मेरे भाई की दूकान में कुछ खरीदी हुई थी, इससे मुझे क्या? लेकिन नहीं, मुझको ही लपेट लिया। इसमें कुछ अफसरों का हाथ है।''
'वैसे तो आपका नाम ब्ल्यू फिल्म रैकेट को बचाने वालों में भी शामिल था?'' मैंने पूछा। मेरे इस प्रश्न पर पाँच सेकेंड तक मौन रहने के बाद परसादीराम बोले-
'अरे भाई, उस मामले में तो मुझे इसलिए कूदना पड़ा कि बेचारे सीधे-सादे लोग थे। एक कमरे में एकत्र होकर सती अनुसूया नामक फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। तुमको तो कहानी पता ही है। ये धार्मिक कार्य था। कपड़े उतारने का सीन था। किसी नास्तिक ने फोन कर दिया कि ब्ल्यू फिल्म बन रही है। बेचारे पकड़े गए, बताइए, ये क्या बात हुई ? मजबूरी में मुझे हस्तक्षेप करना पड़ा। क्या यह भ्रष्टाचार है ?''
'आपकी बात में दम है' मैंने कहा, 'आप जैसे सात्विक नेता आठ करोड़ की सूची में हो ही नहीं सकते। अब तो सीधे-सीधे वीवीआईपी भ्रष्टाचारियों की सूची बननी चाहिए। वैसे आप तो वीआईपी हैं!''
'ये क्या वकीलों टाइप फँसाने वाली भाषा बोल रहे हो?'' नेताजी हड़बड़ाए 'मैं अस्सी फीसदी ईमानदार नेता हूँ, बस। देश का नेता कैसा हो, परसादीराम जैसा हो।''
'मतलब अस्सी फीसदी पाक-साफ हैं' मैंने कहा, 'अच्छा, यही बात अपनी आत्मा पर हाथ रख कर बोलिए।''
परसादीराम जी अपना दिल टटोलने लगे। दाएं-बाएं, ऊपर-नीचे, सब जगह देखने के बाद बोले - 'पता नहीं, इस वक्त मेरी आत्मा कहाँ चली गई है। लगता है कि दंगापीडि़त इलाके में भटक रही होगी। कभी-कभी तो ससुरी राजघाट तक चली जाती है। मैं उस भटक रही आत्मा की कसम खाकर कहता हूँ कि मैं... मैं ईमानदार हूँ।''
मैंने अनेक नेताओं से मुलाकात की, बड़े-बड़े अफसरों से भी बात की। सबने कहा कि हम बेईमान नहीं हैं। मैंने व्यापारियों से चर्चा की। वे भी पाक-साफ थे।
अब सवाल यह उठता है कि आठ करोड़ भ्रष्ट लोगों की सूची में शामिल कौन है ? आखिर में थक हर कर पान ठेले के सामने आ कर खडा हो गया. यहाँ एक से एक फेंकोलाजी वाले भी आते रहते है. कोई तो मिलेगा जो बताएगा कि भ्रष्टों की सूची में अपने इलाके के नेता-अफसर शामिल है, या पडोसी राज्य के? यह सोच का ही नहीं, शोध का विषय भी है।
मैंने रोज लोगों को चूना लगाने वाले पनवाडी भाई से कहा- भाई मेरे, एक ठो पान तो खिलाना, घबराओ मत. ग्राहकी ख़राब नही  होगी. हमको देख कर दो-चार लोग आयेंगे और जान नहीं, पान ही खायेंगे.
पान वाला मनुष्य था. अगला मुस्कराने लगा.

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रविवार, 25 अक्तूबर 2009

सरकार तो बेरोजगारों को ही लूट रही है

अपने राज्य छत्तीसगढ़ में सरकार इन दिनों बेरोजगारों को ही लूटने में लगी है। यह लूट कोई छोटी-मोटी नहीं बल्कि करोड़ों की लूट है। और लूट भी ऐसी है कि हर बेरोजगार को लुटने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। दरअसल मामला यह है कि प्रदेश में इन दिनों शिक्षा कर्मियों की भर्ती के लिए सभी पोस्ट आफिस में फार्म बेचे जा रहे हैं। इस फार्म की कीमत है 450 रुपए। अब तक दस लाख से ज्यादा फार्म बिक चुके हैं और इतने ही और बिकने की संभावना है। कुल मिलाकर 20 लाख से ज्यादा फार्म बिक जाएँगे और इन फार्मों ने मिलने वाली करोड़ों की राशि से ही व्यावसायिक परीक्षा मंडल का काम चलेगा। सभी बेरोजगारों को इस बात से इतराज है कि फार्म की इतनी ज्यादा कीमत रखी गई है। क्या यह सरकार बेरोजगारों की हितैशी हो सकती है, यही सवाल आज हर बेरोजगार की जुबान पर है।

कल शाम की बात है हमारे प्रेस के सामने एक चाय-पान की दुकान में कुछ बेरोजगार चर्चा करने में लगे थे कि यार जो भाजपा सरकार अपने को को बेरोजगारों की हितैषी बताती है, क्या वह सच में उनकी हितैषी है। अगर सरकार बेरोजगारों की हितैषी है तो फिर शिक्षा कर्मियों की भर्ती के जो परीक्षा फार्म बेचे जा रहे हैं उस फार्म की कीमती 450 रुपए क्यों रखी गई है? जिस राज्य में बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता महज 500 रुपए दिया जाता है, वहां बेरोजगारों से एक परीक्षा के फार्म की कीमत 450 रुपए वसूलना कहां का न्याय है।

हमें उन बेरोजगारों की बातों में बहुत दम लगा। वास्तव में यहां पर सोचने वाली बात है कि क्या इस तरह से सरकार बेरोजगारों को लूटने का काम नहीं कर रही है। अपने प्रदेश में अब तक करीब 10 लाख से ज्यादा फार्म बिक चुके हैं। फार्मों की कालाबाजारी हो रही है, वह तो अलग मुद्दा है, लेकिन जो फार्म बेचे जा रहे हैं, उन्हीं फार्मों से व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापमं) के खाते में करीब 9 करोड़ रुपए जमा होने का अनुमान है। जानकारों का कहना है कि व्यापमं परीक्षा के लिए फार्म से जो पैसा लेता है उसी से परीक्षा लेता है। ये सारी बातें ठीक हैं। लेकिन क्या परीक्षा में इतना ज्यादा खर्च होता है कि परीक्षा के फार्म के नाम पर बेरोजगारों को लूटा जा रहा है। वैसे ही अपने देश में बेरोजगार कम ठगे नहीं जाते हैं कि अब सरकार भी उनको ठगने का काम कर रही है।

यह बात सब जानते हैं कि शिक्षा कर्मी के जितने पद हैं, उससे कई गुना ज्यादा बेरोजगार परीक्षा में बैठेंगे। परीक्षा देने के बाद किस की नियुक्ति होगी, यह बात भी सब जानते हैं। यहां पर चलेगा पैसों का खेल। जिनके पास नियुक्ति के लिए पैसे देने का दम होगा नियुक्ति उनकी ही होगी। जो वास्तव में हकदार और जरूतमंद होंगे उनको नियुक्ति मिल ही नहीं पाएगी। यहां पर एक सोचने वाली बात और है कि शिक्षा कर्मियों को जो नौकरी दी जाने वाली है, वह भी स्थाई नहीं है। यह दो साल के लिए होगी इसके बाद फिर से सब बेरोजगार हो जाएंगे।

बहरहाल सरकार को इस बारे में जरूर सोचना चाहिए कि वह कम से कम बेरोजगारों के साथ इस तरह का खिलवाड़ न करे और उनको लूट से बचाने का काम करे। क्या व्यापमं को चलाना सरकार के बस में नहीं है जो वह बेरोजगारों के पैसों से उनको चलाने का काम कर रही है। किसी भी परीक्षा के फार्म के लिए थोड़ी सी राशि का लेना तो समझ में आता है, लेकिन 450 रुपए जितनी बड़ी राशि लेने का मतलब एक तरह की लूट ही है। लेकिन इसका क्या किया जाए कि अपने देश के बेरोजगार अपना घर फूंक कर भी नौकरी पाने की चाह में रहते हैं। लेकिन इसकी चाहत कभी पूरी नहीं हो पाती है, लेकिन सरकार के साथ अफसरों की तिजौरियां जरूर भर जाती हैं।

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शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

बदले-बदले मेरे सरकार...

गिरीश  पंकज 
पान ठेले पर छदामीरामजी मुझसे टकरा गए और देखते ही  बोल पड़े, 'हे-हे..अरे, आप तो आजकल दिखते ही नहीं!'' मुझे हंसी आ गई, उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे।
वे फौरन बोल पड़े, 'आपकी ये हँसी ही मेरी ताकत है। मैं इस देश की जनता का सदैव हँसता हुअ नूरानी चेहरा देखना चाहता हूँ। इस बार भी आपका वोट हमें ही मिलेगा, ऐसा भरोसा है!
''आपने हमारे लिए किया ही क्या है ?'' मैंने पूछा
 'बहुत कुछ! लेकिन मेरे काम बड़े ही सूक्ष्म थे।'' वे हँसते हुए बोले,  'मैंने जो कुछ भी किया, उसका प्रचार नहीं किया।'' लेकिन लोग तो कहते हैं कि आपने डटकर भ्रष्ट+आचार किया है। आपके कारनामों को हर कोई जानता है। आपके रिश्तेदार तो लाल हो गए हैं। पूरे इलाके में चर्चा है। चर्चा क्या, बहुत कुछ तो सामने भी नज़र आ रहा है।शर्ट पर पान के नहीं भ्रष्टाचार के दाग दिख रहे है. ''
छदामीराम ने चेहरा लटका लिया। फिर बोले, 'ये बस विपक्ष की चाल है। मैं हमेशा शिष्टाचार की राह पर चलता रहा हूँ.''
अब तो भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार हो गया है!'' मैंने कहा
छदामीराम थोड़ी देर के लिए चुप हो गए, फिर मुसकराते हुए बोले, 'राजनीति में बहुत सारे काम मन मार कर करने पड़ते हैं। भ्रष्टाचार भी इनमें से एक है . लेकिन कसम बापू की, मैं जो कुछ भी करता हूँ, देश के लिए ही करता हूँ! आप जिन्हें मेरा परिजन कह रहे हैं, उनसे मेरा कोई संबंध नहीं। वे सब देश के ही लोग है. सब अपने बलबूते आगे बढ़े हैं। अब बेचारे लोग कमाने-खाने के लिए मेरे नाम का इस्तेमाल करते रहे हों, तो मैं नहीं जानता।''
'इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ खुदा करते हैं भ्रष्टाचार और स्वीकारते नहीं।'' मैंने कहा, 'खैर, इस बार आपके खिलाफ जबर्दस्त माहौल है, नगर निकाय के चुनाव सामने है. सुना है आप फिर खड़े हो रहे है? कैसे मैनेज करेंगे?''
नेताजी पान चुचुवाते हुये हँस पड़े, 'भाई, इतने साल से चुनाव मैनेजमेंट तो सीखते रहे हैं। मार्केटिंग पर शुरू से ही पूरा ध्यान देते रहे हैं। अपने बारे में इतना प्रचार करवाते हैं कि जनता के दिलोदिमाग पर हमारा नाम एक प्रॉडक्ट की तरह दर्ज हो जाता है। जनता के दिलोदिमाग पर बस एक नाम अंकित रहेगा और वो है छदामीराम। फिर हम कपड़े बाँट रहे हैं, गद्दे वितरित कर रहे हैं। कहीं-कहीं नोट-फोट भी दे रहे हैं। इतना कुछ कर रहे हैं तो क्या हमें वोट भी नहीं मिलेगा?''
अचानक छदामीराम ने ट्रेलर दिखाना शुरू कर दिया। मेरे चरणों पर गिर कर, आवाज़ में कातरता लाकर बोले -
''आपका वोट मुझे ही मिलना चाहिए! बस।''
'ठीक है... ठीक है! देखेंगे!'' मैंने गिरे हुए नेता को ऊपर उठाते हुए सांत्वना दी।
नेताजी प्रसन्न हो गए और बोले -इनको भी मेरी ओर से एक पान खिलाओ.''
मैं देश का आम मतदाता, इसलिए मैं भी प्रसन्न हो गया कि देखो, इतना बड़ा आदमी मेरे सामने गिड़गिड़ा रह है। सोचता हूँ, कि भ्रष्टाचारी तो सब हैं। ये बेचारा कुछ कम है। और सबसे बड़ी बात, मेरे सामने गिड़गिड़ा रहा है और बाकी लोग ऐसे ही चले जाते हैं। अपने सामने कोई गिड़गिड़ाए,, और हम उसे कुछ न दें.. ये तो सरासर बेइंसाफी है। सो, दे देते हैं वोट। लेकिन मैंने कहा, वोट तो आपको ही दूंगा. चोर को दे या चंडाल को, क्या फर्क पड़ता है. फी आप चरणों पर गिर भी रहे है. गिरे लोगो को उठाना मेरा फ़र्ज़ है, लेकिन पान नहीं खाऊँगा. मै नेताओं से मुफ्त का पान नहीं खाता.पता नहीं किस तरह के पैसे का हो. सो, माफ़ करे. लेकिन वोट पक्का.
नेता जी शर्मिंदा हो गए, लेकिन  दो सेकेण्ड तक ही. फिर बोले-जैसी आपकी मर्ज़ी. फिर पान की पीक को बीच सड़क पर थूक कर आगे बढ़ गए. पान की लाल पीक देख लगा की ये जनता के अरमानो का लहू है, जो चौराहे पर बिखरा  पड़ा है.

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"चर्चा पान की दूकान पर" हमारा नया ब्लॉग

एक निवेदन भूमिका स्वरूप 

मित्रों "चर्चा पान की दूकान पर" हमारा नया ब्लॉग है. इसके नामकरण के सम्बन्ध में साथियों से बहुत चर्चाएँ हुई, कईयों ने अलग-अलग नाम सुझाये, आखिर इस नाम पर सहमती बन ही गई, क्योंकि हमारे देश में पान की दुकाने एक आम आदमी से सीधा-सीधा संपर्क, सम्बन्ध एवं सरोकार रखती है, गांव के गली कुचों से लेकर शहर के नुक्कड़ तक, बीच चौराहों से लेकर शहरों में कोने-कोने तक मिल जाती हैं.अगर हमें अनजान शहर में भी किसी का पता पूछना हो तो यहाँ पर आसानी से मिल जाता है.पान की दुकान पर खड़े-खड़े ही मित्रों में- अनजान व्यक्तियों में अनायास ही विभिन्न मुद्दों पर चर्चाएँ छिड़ जाती है.चाहे वो अंतर्राष्ट्रीय, रास्ट्रीय एवं स्थानीय हो, कभी-कभी गंभीर चर्चाओं के साथ-साथ हास्य भी यहाँ पर निकल आता है, मुद्दे भी वो होते हैं जो एक आम आदमी से सीधे-सीधे जुड़ जाते हैं, एक मित्र ने कहा कि क्या ये नाम आधी दुनिया (महिलाओं) का प्रतिनिधित्व करेगा? आज कई जगहों पर मैंने देखा है कि महिलाएं ही पान की दुकाने चलाती हैं. अब इस युग में ये बातें मायने नहीं रखती. इस ब्लॉग में हमारे लेखक साथी भी लिख सकते हैं. हम एक स्वच्छ- विवाद रहित,आम आदमी के सरोकारों से जुड़े हुए विचार इस पर रखेंगे. अभी इस ब्लॉग पर हमारे साथी लेखक अनिल पुसदकर, प्रसिद्द व्यंगकार गिरीश पंकज, साहित्यकार शरद कोकास, संजीव तिवारी, बी.एस.पावला, राजीव तनेजा राजकुमार ग्वालानी, एवं अन्य रचना कारों का गंभीर साहित्य लेखन पढने मिलेगा.ये हमारा एक सामूहिक प्रयास है, जो आपको पसंद आएगा. इसी आशा के साथ हिंदी ब्लॉग जगत को समर्पित है,"चर्चा पान की दुकान पर".

ललित शर्मा 

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