और भईया "दखल" भी चल पड़े "भुतहा-तालाब"
ललित शर्मा
हम घर से निकले सुबह-सुबह तो रस्ते में एक साहित्यकार भगवान भरोसा " दखल" मिल गए. वो अपनी सदाबहार पोशाक में थे अगतिशील कुरता (अगतिशील इसलिए कि ये हमेशा उनके टखनों तक आकर उनकी चलने की गति को कम देता है) गाँधी छाप झोला और पुरानी सायकिल-जिसे वो चलते ही नही सिर्फ लिए लिए पैदल ही घूमते हैं शायद ही किसी खुश नसीब ने उन्हें सायकिल चलते देखा हो. नाम राम भरोसा "दखल " इसलिए कि वे हर जगह अपना दखल रखते हैं. एक को छोड़ कर(घर गृहस्थी) सभी सांसारिक विद्याओं में प्रवीण हैं. वरिष्ट साहित्यकार हैं इसलिए पहले अभिवादन करने का फ़र्ज़ हमारा बनता है. इसलिए हमने कहा -- "भैया राम-राम",
"सुबह सुबह कहाँ चल दिये झोला धर के?
"राम-राम महाराज, कहीं नहीं? बस थोडा अपने खेतों वाले तालाब तरफ जा रह था."
"कहाँ भुतहा तालाब में"
"हाँ भाई"
"कैसे-अचानक भूत से मिलने का इच्छा हो गई"
"क्या बताऊ भाई ! ये घर के भूतों से तो ये ही भूत अच्छे हैं-कुछ कहते भी नहीं और दीखते भी नही"
"अरे!ऐसा क्या हो गया, नाराज होकर जा रहे हो, क्या? वहां पर कोप भवन बना लिए हो"
"नही ऐसा नहीं है, क्या है -एक ३६ गढ़ी फिल्म का संवाद लिखने का काम मिला है. ले दे के. जब लिखना चालू करता हूँ तो ताड़का संवाद चालू हो जाता है. फिर कुछ करते ही नही बनता"
"तो क्या भौजी परेशान कर रही है?"
"बात परेशानी वाली ही है, आदमी को वही काम बताओ जो वो कर सके, अब मेरे पीछे पड़ी है कि बरसात आ रही है, छत का कवेलू ठीक करो. बड़ा साहित्यकार बन रहे हो, कुछ घर का भी काम करो, जिससे मैं बता सकूँ कि ये काम इन्होने किया है"
"तो क्या समस्या है?'
"समस्या बहुत भारी है, पिछले साल की बात है. मेरे को बोली सीता फल तोड़ दे, अब मैं आज्ञा मानकर तोड़ने लगा तो उसकी डाली ही टूट गई और मेरी टांग टूट गई, उसके साथ किस्मत भी फुट गई"
"अच्छा ये तो अनर्थ हो गया-ये टांग उसी समय टूटी होगी जब आपके साहित्यकार मित्र सरकारी खर्चे में हिन्दी दिवस मनाने बिदेश यात्रा में गए थे, जैसे मैंने दुखती रग पर ही हाथ धर दिया.
उन्होंने गहरी साँस लेते हुए कहा-"बिलकुल सही समझे महाराज, उसी समय की ही बात है. बताओ ना कैसे-कैसे लोग साहित्यकार बनकर गए थे. हमारी टांग टूट गई थी इस लिए हम कुछ नही कह सके और जितने चापलूस थे, जिनके पास चाटुकारी करने का कई वर्षों का अनुभव है,उनके भाग खुल गये."
"सही कह रहे हो भाई- लेकिन ये सुबह -सुबह भौजी को ताड़का .........मेरी समझ में नही आया."
" का बताऊँ महाराज - जैसे ही मैं नहा धोकर लिखने बैठा तो बोली पहले छानी ठीक करो तब ये लिखी पढाई करना नहीं तो मैं सब कापी पुस्तक चूल्हे में डाल दूंगी"
"तब क्या हुआ?"
"तब भईया मैं सायकिल उठाई और चल पड़ा भुतहा तालाब के पास वहां कोई आता भी नहीं है और एकांत में बैठ कर विचार भी आते हैं. इसलिए मैंने वो ही स्थान उपयुक्त समझा है.
" भईया लोग समझते हैं कि ये साहित्यकार लोग ऐसे ही कागज काले करते हैं, कुछ भी लिखते फिरते हैं. उनको नही मालूम कितनी कुर्बानी देनी पडती है, तब कही जाकर एक विचार आता है" बहुत बढ़िया काम कर रहे हो भैया आपको सलाम है-आप जैसे जीवट लोगों के करना तो साहित्य रचना हो रही है. नहीं तो क्या होता भगवान जाने"
इतना कह कर मैं अपने काम से चल पड़ा और भईया "दखल" भी चल पड़े "भुतहा-तालाब" की ओर...........
1 टिप्पणियाँ:
ये भुतहा वाली भी खूब लगी ललित जी ....अक्सर पान की दुकानों पर ऐसी ही चर्चा होती है ... फुरसतिया टाइप की ....हा हा .
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