शनिवार, 14 नवंबर 2009

पान की दूकान में छत्तीसगढ़ ज्ञान

जी.के.अवधिया

आप भी सोच रहे होंगे कि क्या पान दुकान में ज्ञान-ध्यान की बातें भी मिल सकती हैं? पान की दूकान में तो ज्यादातर मटरगश्ती करने वाले ही आते हैं। मटरगश्ती से भी ज्यादा गोरी के दर्शन के लिये लोग आते हैं इसीलिये तो कहा गया है "नीचे पान की दूकान, ऊपर गोरी का मकान ..."

पर थोड़ा बहुत ज्ञान रखने वाले भी पान खाने का शौक रखते हैं और इसके लिये पान दूकान तक जाते हैं। जब वे जाते हैं तो चर्चा भी हो जाती है ज्ञान-ध्यान की। तो आज चर्चा है छत्तीसगढ़ के प्राचीनता की।

जिस प्रकार से प्राचीन काल का 'मगध' बौद्ध विहारों की अधिकता के कारण "बिहार" बन गया उसी प्रकार से 'दक्षिण कौशल' में छत्तीस गढ़ों के समाहित होने के कारण से "छत्तीसगढ़" बन गया। छत्तीसगढ़ अर्थात् दक्षिण कोशल अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत को गौरवान्वित करते रहा है। यह क्षेत्र रामायण एवं पौराणिक काल से ही विभिन्न संस्कृतियों के विकास का केन्द्र रहा है। यहाँ के प्राचीन मन्दिर तथा उनके भग्वावशेष इंगित करते हैं कि यहाँ पर वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध के साथ ही अनेकों आर्य तथा अनार्य संस्कृतियों का विभिन्न कालों में प्रभाव रहा है।

छत्तीसगढ़ का पौराणिक महत्व

आज का छत्तीसगढ़ प्राचीनकाल के दक्षिण कोशल, जिसका विस्तार पश्चिम में त्रिपुरी से ले कर पूर्व में उड़ीसा के सम्बलपुर और कालाहण्डी तक था, का एक हिस्सा है और इसका इतिहास पौराणिक काल तक पीछे की ओर चला जाता है। पौराणिक काल का 'कोशल' प्रदेश कालान्तर में 'उत्तर कोशल' और 'दक्षिण कोशल' नाम से दो भागों में विभक्त हो गया। वह 'दक्षिण कोशल' ही वर्तमान छत्तीसगढ़ कहलाता है। महानदी, जो कि छत्तीसगढ़ की मुख्य नदी है, का नाम वैदिक तथा पौराणिक काल में 'चित्रोत्पला' था। पुण्यसलिला महानदी का उल्लेख मत्स्यपुराण, ब्रह्मपुराण तथा महाभारत के भीष्म पर्व में भी आता है -

"मन्दाकिनीदशार्णा चित्रकूटा तथैव च।
तमसा पिप्पलीश्येनी तथा चित्रोत्पलापि च॥"
(मत्स्यपुराण - भारतवर्ष वर्णन प्रकरण - 50/25)

"चित्रोत्पला वेत्रवपी करमोदा पिशाचिका।
तथान्यातिलघुश्रोणी विपाया शेवला नदी॥" (ब्रह्मपुराण - भारतवर्ष वर्णन प्रकरण - 19/31)

"चित्रोत्पला" चित्ररथां मंजुलां वाहिनी तथा।
मन्दाकिनीं वैतरणीं कोषां चापि महानदीम्॥"
- महाभारत - भीष्मपर्व - 9/34

वाल्मीकि रामायण में भी छत्तीसगढ़ के बीहड़ वनों तथा महानदी का स्पष्ट उल्लेख है। यहाँ स्थित सिहावा पर्वत के आश्रम में निवास करने वाले श्रृंगी ऋषि ने ही अयोध्या में राजा दशरथ के यहाँ पुत्र्येष्टि यज्ञ करवाया था जिससे कि तीनों भाइयों सहित भगवान श्री राम का पृथ्वी पर अवतार हुआ। इस दृष्टि से राम को धरती पर लाने का प्रमुख श्रेय छत्तीसगढ़ को ही प्राप्त है। राम के काल में यहाँ के वनों में ऋषि-मुनि-तपस्वी आश्रम बना कर निवास करते थे और अपने वनवास की अवधि में राम यहाँ आये थे।

प्रतीत होता है कि राम के काल में भी कोशल राज्य उत्तर कोशल और दक्षिण कोशल में विभाजित था। कालिदास के रघुवंश काव्य में उल्लेख है कि राम ने अपने पुत्र लव को शरावती का और कुश को कुशावती का राज्य दिया था। यदि शरावती और श्रावस्ती को एक मान लिया जाये तो निश्चय ही लव का राज्य उत्तर भारत में था और कुश दक्षिण कोशल के शासक बने। सम्भवतः उनकी राजधानी कुशावती आज के बिलासपुर जिले में थी, शायद कोसला ग्राम ही उस काल की कुशावती थी। यदि कोसला को राम की माता कौशल्या की जन्मभूमि मान लिया जावे तो भी किसी प्रकार की विसंगति प्रतीत नहीं होती। रघुवंश के अनुसार कुश को अयोध्या जाने के लिये विन्ध्याचल को पार करना पड़ता था इससे भी सिद्ध होता है कि उनका राज्य दक्षिण कोशल में ही था।

उपरोक्त सभी उद्धरणों से स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ आदिकाल से ही ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों का पावन तपोस्थल रहा है।

रामायण कालीन छत्तीसगढ़

ऐसे अनेकों तथ्य हैं जो इंगित करते हैं कि ऐतिहासिक दृष्टि से छत्तीसगढ़ प्रदेश की प्राचीनता रामायण युग को स्पर्श करती है। उस काल में दण्डकारण्य नाम से प्रसिद्ध यह वनाच्छादित प्रान्त आर्य-संस्कृति का प्रचार केन्द्र था। यहाँ के एकान्त वनों में ऋषि-मुनि आश्रम बना कर रहते और तपस्या करते थे। इनमें वाल्मीकि, अत्रि, अगस्त्य, सुतीक्ष प्रमुख थे इसीलिये दण्डकारण्य में प्रवेश करते ही राम इन सबके आश्रमों में गये।

ऐसा प्रतीत होता है कि छोटा नागपुर से लेकर बस्तर तथा कटक से ले कर सतारा तक के बिखरे हुये राजवंशों को संगठित कर के ही राम ने वानर सेना बनाई हो। आर.पी. व्हान्स एग्न्यू लिखते हैं, "सामान्य रूप से इस विश्वास की परम्परा चली रही है कि रतनपुर के राजा इतने प्राचीनतम काल से शासन करते चले रहे हैं कि उनका सम्बन्ध हिन्दू 'माइथॉलाजी' (पौराणिक कथाओं) में वर्णित पशु कथाओं (fables) से है। (चारों महान राजवंश) सतारा के नरपति, कटक के गजपति, बस्तर के रथपति और रतनपुर के अश्वपति हैं" (A Reeport on the Suba or Province of Chhattisgarh - written in 1820)

अश्व और हैहय पर्यायवाची हैं। श्री एग्न्यू का मत है कि कालान्तर में 'अश्वपति' ही हैहय वंशी हो गये। इससे स्पष्ट है कि इन चारों राजवंशो का सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन है तथा उनके वंशों का नामकरण चतुरंगिनी सेना के अंगों के आधार पर किया गया है।

बस्तर के शासकों का 'रथपति' होने के प्रमाण स्वरूप आज भी दशहरे में रथ निकाला जाता है तथा दन्तेश्वरी माता की पूजा की जाती है। यह राम की उस परम्परा का संरक्षण है जब कि दशहरा के दिन राम ने शक्ति की पूजा कर लंका की ओर प्रस्थान किया था। यद्यपि लोग दशहरा को रावण-वध की स्मृति के रूप में मनाते हैं किन्तु उस दिन रावण का वध नहीं हुआ था वरन उस दिन राम ने लंका के लिये प्रस्थान किया था। (दशहरा को रावण-वध का दिन कहना ठीक वैसा ही है जैसे कि संत तुलसीदास के 'रामचरितमानस' को 'रामायण' कहना।)

राजाओं की उपाधियों से यह स्पष्ट होता है राम ने छत्तीसगढ़ प्रदेश के तत्कालीन वन्य राजाओं को संगठित किया और चतुरंगिनी सेना का निर्माण कर उन्हें नरपति, गजपति, रथपति और अश्वपति उपाधियाँ प्रदान की। इस प्रकार रामायण काल से ही छत्तीसगढ़ प्रदेश राम का लीला स्थल तथा दक्षिण भारत में आर्य संस्कृति का केन्द्र बना।

विचारणीय बात यह है कि उत्तर भारत में लगभग 1200 मील लंबी हिमालय के पर्वत श्रृंखलाओं में वनों की कमी नहीं थी और अयोध्या भी उत्तर भारत में ही स्थित है तो फिर उत्तर भारत को छोड़ कर राम आखिर अपने वनवास काल में दक्षिण भारत की ओर क्यों आये। शायद इसके निम्न कारण रहे होंगे -
  • दक्षिण भारत के मैदानी वनों के तुलना में उत्तर भारत के पर्वतीय वनों की यात्रा अधिक दुरूह थी और राम दुरूह यात्रा नहीं करना चाहते थे क्योंकि उनके साथ उनकी पत्नी सीता भी थीं।
  • पत्नी के साथ होने के कारण कभी भी किसी विपत्ति के समय राम को सहायता की आवश्यकता पड़ सकती थी और वह सहायता दक्षिण कोशल में उन्हें सरलता के साथ मिल सकती थी क्योंकि यह क्षेत्र उनका ननिहाल अर्थात् उनकी माता कौशल्या का जन्म स्थान था। कौशल्या नाम भी कोशल को ही इंगित करता है।
  • राम ने पहले से ही ऋषि-मुनियों को राक्षसों के त्रास से बचाने का तथा राक्षसों के विनाश का अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया था और उन्हें पता था कि ऋषि-मुनियों के अधिकतर आश्रम दक्षिण कोशल के दण्डकारण्य क्षेत्र में ही थे।
सारी बातें यही संकेत करती हैं कि राम के वनवास काल का अधिकतम समय छत्तीसगढ़ अर्थात् दक्षिण कोशल में ही बीता था। ऐसा प्रतीत होता है कि चित्रकूट पर्वत, जहाँ पर भरत मिलाप हुआ था, बस्तर का चित्रकूट प्रपात वाला पर्वत था। आज भी बस्तर में बीहड़ वन हैं तो उस काल में तो वे वन और भी भयानक रहे होंगे इसीलिये चित्रकूट पर्वत के विषय में गिने-चुने लोगों को ही जानकारी थी जिनमें से भारद्वाज मुनि भी एक थे। भारद्वाज जी ने ही राम को चित्रकूट के बारे में बताया था।

छत्तीसगढ़ वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम भारद्वाज के आश्रम से सीधे प्रयाग पहुँचे थे तथा वहाँ से स्व-निर्मित बेड़े से यमुना नदी को पार करके चित्रकूट के लिये प्रस्थान था। अब यदि प्रयाग से लेकर बस्तर क्षेत्र के मानचित्र को देखें तो राम को महानदी भी अवश्य ही आना पड़ा रहा होगा। किंवदन्ती है कि राजिम के कुलेश्वर में ही सीता जी ने अपने कुल-देवता भगवान शंकर की पूजा की थी। छत्तीसगढ़ में स्थित सीतामढ़ी, सीताकुण्ड, सीताबेंगरा, सीतापुर आदि नाम भी सीता और राम के यात्रा पथ की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिये ही बनाये गये होंगे। यहाँ तक कि एक नदी का नाम सीतानदी भी रख दिया गया। राम को जूठे बेर खिलाने वाली शबरी का भी आश्रम अवश्य ही शिवरीनारायण में ही रहा होगा। बस्तर की सीमा से लगे भद्राचलम को पंचवटी मानने में किसी भी प्रकार की विसंगति प्रतीत नहीं होती।

आज भी छत्तीसगढ़ की लड़कियाँ खेल खेल में गाती हैं -

अटकन बटकन दही चटाका, लउहा लाटा, बन में कांटा। सावन में करेला फूले, चल चल बेटी गंगा जाबो, गंगा ले गोदावरी, पाका पाका बेल खाबो। बेल के डारा टूट गे, भरे कटोरा फूट गे, अऊ ब्याहता छूट गे। इस लोकगीत में ब्याहता का छूटना सीता जी की ही व्यथा-कथा है।

उपरोक्त समस्त बातें यही संकेत करती हैं कि छत्तीसगढ़ एक अत्यन्त प्राचीन क्षेत्र रहा है।

6 टिप्पणियाँ:

Dr. Shreesh K. Pathak 14 नवंबर 2009 को 8:23 am बजे  

बेहतरीन शोध..

Khushdeep Sehgal 14 नवंबर 2009 को 8:40 am बजे  

जय छत्तीसगढ़, जय भारत

जय हिंद...

गिरिजेश राव, Girijesh Rao 14 नवंबर 2009 को 9:35 am बजे  

मस्त हो गए महराज !
छत्तीसगढ़ के ब्लॉगरों के दर्शन से भी तृप्त भए।
मेरा प्रणाम सब तक पहुँचा दीजिएगा।
वैसे शरद भैया से तो बात होती रहती है।

निर्मला कपिला 14 नवंबर 2009 को 9:51 am बजे  

बहुत अच्छा आलेख बधाई

पी.सी.गोदियाल "परचेत" 14 नवंबर 2009 को 10:18 am बजे  

बेहतरीन अवधिया साहब , पान पर ही इतना शोध कर दिया आपने, जानकारी पूर लेख लिख दिया , बहुत खूब !

Deepak Tiruwa 14 नवंबर 2009 को 11:45 am बजे  

Post achchhi lagi ...phir aana hoga...jate-jaate a link फेमिनिस्ट