सोमवार, 8 नवंबर 2010

बढ़ते सड़क हादसे :एक गंभीर राष्ट्रीय समस्या

                                                                                                         स्वराज्य करुण
    विज्ञान और टेक्नालॉजी जहाँ हमारे जीवन को सहज-सरल और सुविधाजनक बनाने के सबसे बड़े औजार हैं , वहीं उनके अनेक आविष्कारों ने आधुनिक समाज के सामने कई गंभीर चुनौतियां भी पैदा कर दी हैं . बहुत पहले वाष्प और बाद में डीजल और पेट्रोल से चलने और दौड़ने वाली गाड़ियों का आविष्कार इसलिए नहीं हुआ कि लोग उनसे कुचल कर या टकरा कर अपना  बेशकीमती जीवन गँवा दें , लेकिन अगर हम अपने ही देश में देखें तो अखबारों में हर दिन सड़क हादसों की दिल दहला देने वाली ख़बरें कहीं सिंगल ,या कहीं डबल कॉलम में  या फिर हादसे की विकरालता के अनुसार उससे भी ज्यादा आकार में छपती रहती हैं .कितने ही घरों के चिराग बुझ जाते हैं , सुहाग उजड़ जाते हैं और कितने ही लोग घायल होकर हमेशा के लिए विकलांग हो जाते है .सड़क हादसों की दिनों-दिन बढ़ती संख्या अब एक गंभीर राष्ट्रीय समस्या बनती जा रही है.आंकड़ों पर न जाकर अपने आस-पास नज़र डालें , तो भी हमें स्थिति की गंभीरता का आसानी से अंदाजा हो जाएगा .
      तीव्र औद्योगिक-विकास , तेजी से बढ़ती जनसंख्या, तूफानी रफ्तार से हो रहे शहरीकरण  और आधुनिक उपभोक्तावादी जीवन शैली की सुविधाभोगी मानसिकता से  समाज में मोटर-चालित गाड़ियों की संख्या भी बेतहाशा बढ़ रही है . औद्योगिक-प्रगति से जैसे -जैसे व्यापार-व्यवसाय बढ़ रहा है , माल-परिवहन के लिए विशालकाय भारी वाहन भी सड़कों पर बढते जा रहे हैं. ट्रकें सोलह चक्कों से बढ़कर सौ-सौ चक्कों की आने लगी हैं. दो-पहिया ,चार-पहिया वाहनों के साथ-साथ यात्री-बसों और माल-वाहक ट्रकों की बेतहाशा दौड़  रोज सड़कों पर नज़र आती है. सड़कें भी इन गाड़ियों का वजन सम्हाल नहीं पाने के कारण आकस्मिक रूप से  दम तोड़ने लगती हैं . त्योहारों , मेले-ठेलों , और जुलूस-जलसों के दौरान भी बेतरतीब यातायात के कारण हादसे हो जाते हैं .
   शहरों में ट्राफिक-जाम और वाहनों की बेतरतीब हल-चल देख कर मुझे तो कभी-कभी यह भ्रम हो जाता है कि इंसानी आबादी से कहीं ज्यादा मोटर-वाहनों की जन-संख्या तो नहीं बढ़ रही है ? सरकारें जनता की सुविधा के लिए सड़कों की चौड़ाई बढ़ाने का कितना भी प्रयास क्यों न करे , लेकिन गाड़ियों की भीड़ या वाहनों की  बेहिसाब रेलम-पेल से सरकारों की तमाम कोशिशें बेअसर साबित होने लगती हैं . वाहनों के बढ़ते दबाव की वजह से सरकार सिंगल-लेन की डामर की सड़कें डबल लेन ,में और डबल-लेन की सड़कों को फोर-लेन में बदलती हैं . फोर-लेन की सड़कें सिक्स -लेन में तब्दील की जाती हैं . इस प्रक्रिया में सड़कों के किनारे की कई बस्तियों को हटना या फिर हटाना पड़ता है . उन्हें मुआवजा भी दिया जाता है .सड़क-चौड़ीकरण और मुआवजा बांटने में ही सरकारों के अरबों -खरबों रूपए खर्च हो जाते हैं . यह जनता का ही धन है. लेकिन सरकारें भी आखिर करें भी तो क्या ? जिस रफ्तार से सड़कों पर वाहनों की आबादी बढ़ रही है , आने वाले वर्षों में अगर हमें सिक्स-लेन और आठ-लेन की सड़कों को बारह-लेन , बीस-लेन और पच्चीस -पच्चास लेन की सड़कों में बदलने के लिए मजबूर होना पड़ जाए , तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. लेकिन क्या सड़क-दुर्घटनाओं का इकलौता कारण वाहनों की बढ़ती जन-संख्या है ? मेरे विचार से यह समस्या का सिर्फ एक पहलू है. इसके दूसरे पहलू के साथ और भी कई कारण हैं ,जिन पर संजीदगी से विचार करने की ज़रूरत है. आर्थिक-उदारीकरण के माहौल ने  देश में धनवानों के एक नए आर्थिक समूह को भी जन्म दिया है. कारपोरेट-सेक्टर के अधिकारियों सहित सरकारी -कर्मचारियों और अधिकारियों की तनख्वाहें पिछले दस-पन्द्रह साल में कई गुना ज्यादा हो गई हैं. बड़ी-बड़ी निजी कंपनियों में इंजीनियर और अन्य तकनीकी स्टाफ अब मासिक वेतन पर नहीं , लाखों रूपयों के सालाना 'पैकेज' पर रखे जाते हैं .इससे समाज में उपभोक्तावादी मानसिकता लेकर एक  नए किस्म का मध्य-वर्ग तैयार हो रहा है . जिसके बच्चे भी अब दो-पहिया वाहन नहीं , बल्कि चार-चक्के वाली कार को अपना 'स्टेटस' मानने लगे हैं . सरकारी -बैंकों के साथ अब निजी बैंक भी अपने ग्राहकों को वाहन खरीदने के लिए   उदार-नियमों और आसान-किश्तों पर क़र्ज़ लेने की सुविधा दे रहे है . कई बैंक तो गली-मुहल्लों में लोन-मेले आयोजित करने लगे हैं .इन सबका एक नतीजा यह आया है कि जिसके घर में चार-चक्के वाली गाड़ी रखने की जगह नहीं है , वह भी  उसे खरीद कर अपने घर के सामने वाली सार्वजनिक-सड़क .या फिर मोहल्ले की गली में खड़ी कर रहा है और सार्वजनिक रास्तों को सरे-आम बाधित कर रहा है . उधर आधुनिक-तकनीक से बनी गाड़ियों में 'पिक-अप ' और  रात में आँखों को चौंधियाने वाली हेड-लाईट की एक अलग महिमा है .ट्राफिक-नियमों का ज्ञान नहीं होना , हेलमेट नहीं पहनना , नाबालिगों के हाथों में मोटर-बाईक के हैंडल और गाड़ियों की स्टेयरिंग थमा देना , शराब पीकर गाड़ी चलाना जैसे कई कारण भी इन हादसों के लिए जिम्मेदार होते होते हैं .अब तो गाँवों की गलियों में भी मोटर सायकलों का फर्राटे से  दौड़ना कोई नयी बात नहीं है.
   उत्तरप्रदेश के एक अखबार में वाराणसी से छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हर साल जितनी मौतें आपराधिक घटनाओं में होती हैं , उनसे औसतन पांच गुना ज्यादा जानें सड़क हादसों में चली जाती हैं . रिपोर्ट में इसके जिलेवार आंकड़े भी दिए गए है और कहा गया है कि कहीं बदहाल सड़कों के कारण तो कहीं काफी अच्छी चिकनी सड़कों के कारण भी हादसे हो रहे हैं . इसमें यह भी कहा गया है कि अधिकतर हादसे ऐसी सड़कों पर हो रहे हैं , जिनकी हालत काफी अच्छी हैं .ऐसी सड़कों पर वाहन फर्राटे भरते निकलते हैं . फिर इन सड़कों पर यातायात संकेतक भी पर्याप्त संख्या में नहीं हैं . इससे वाहन चलाने वालों को खास तौर पर रात में अंधा-मोड़ या क्रासिंग का अंदाज नहीं हो पाता और हादसे हो जाते हैं . बहरहाल पूरे भारत में देखें तो सड़क -हादसों के प्रति-दिन के और सालाना आंकड़े निश्चित रूप से बहुत डराने वाले और चौंकाने वाले हो सकते हैं .इन दुर्घटनाओं को रोकने और सड़क-यातायात को सुगम और सुरक्षित बनाने के लिए मेरे विचार से तीन  उपाय हो सकते हैं . इनमे से मेरा पहला सुझाव है कि देश में कम से कम पांच साल के लिए हल्के मोटर वाहनों का निर्माण बंद कर दिया जाए.यह सुझाव आज के माहौल के हिसाब से लोगों को हास्यास्पद लग सकता है ,लेकिन मुझे लगता है कि इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है ,क्योकि अब हमारे  देश की सड़कों पर ऐसे वाहनों की भीड़ इतनी ज्यादा हो गयी है कि नए वाहनों के लिए जगह नहीं है .मेरा दूसरा सुझाव है कि मोटर-चालित वाहन खास तौर पर चौपाये वाहन खरीदने की अनुमति सिर्फ उन्हें दी जाए ,जो अदालत में यह शपथ-पत्र दें कि उनके घर में वाहन रखने के लिए गैरेज की सुविधा है और वे अपनी गाड़ी घर के सामने की सार्वजनिक गली अथवा सड़क पर खड़ी नहीं करेंगे . तीसरा सुझाव यह है कि  बड़े लोग भी आम-जनता की तरह  यातायात के सार्वजनिक साधनों का इस्तेमाल करने की आदत बनाएँ ,या फिर सायकलों का इस्तेमाल करें .सायकल एक पर्यावरण हितैषी वाहन है. इसके इस्तेमाल से हम धुंआ प्रदूषण को भी काफी हद तक कम कर सकते हैं . हर इंसान की जिंदगी अनमोल है .सड़क-हादसों से उसे बचाना भी इंसान होने के नाते हम सबका कर्तव्य है. अपने इस कर्तव्य को हम कैसे निभाएं ,इस पर गंभीरता  से विचार करने की ज़रूरत है . 
                                                                                                      स्वराज्य करुण

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रविवार, 7 नवंबर 2010

दबंगों से भयभीत मानवता !

अमेरिकी राष्ट्रपति  बराक हुसैन ओबामा की तीन दिवसीय  भारत यात्रा के दूसरे दिन की सुबह एक  निजी  हिन्दी टेलीविजन समाचार चैनल ने अपने खास और लाइव कार्यक्रम में कुछ ऐसे शीर्षक भी दिए जो हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान को आहत कर गए .मुझसे रहा नहीं गया और  कुछ मिनटों तक देखने के बाद मैंने टेलीवजन ऑफ कर दिया ,लेकिन यह तय है कि  चैनल का  कार्यक्रम तो ऐसे शीर्षकों के साथ आगे कई घंटों तक चलता और बजता रहा होगा और देश के मान-सम्मान को बार-बार चोट पहुंचाता रहा होगा . ओबामा की भारत यात्रा के महिमा -मंडन के लिए इस चैनल के द्वारा प्रसारित विशेष कार्यक्रम की कुछ सुर्खियाँ ,जो शायद किसी भी देशभक्त भारतीय को विचलित कर सकती हैं , इस प्रकार थीं --
         भारत में दुनिया का दबंग
         दबंग की दीवाली  
 ओबामा के साथ राजस्थान के अजमेर जिले की ग्राम पंचायत कानपुरा के लोगों की वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग पर इस टेलीविजन चैनल की एक हेड-लाईन थी--'दबंग देखेगा गाँव'. महसूस करें तो वास्तव में 'दबंग' एक भय पैदा करने वाला शब्द है . .मानवता इस शब्द से भयभीत हो जाती है . वह दब कर रहती है , जिसे 'दलित' कहा जाता है . क्या अमेरिकी राष्ट्रपति को 'दबंग ' संज्ञा दे कर इस चैनल ने भारत को और हम भारतीयों को अप्रत्यक्ष रूप से 'दलित' साबित करने का प्रयास नहीं किया ?  हिन्दी अखबारों में कई बार देश के कुछ राज्यों से ख़बरें छपती हैं- दबंगों ने दलितों को ज़िंदा जलाया . दबंगों ने दलितों को सरे-आम प्रताडित किया .ऐसे में क्या  'दबंग' शब्द   का अर्थ किसी को अपने बाहुबल , धन-बल और आज के जमाने में शस्त्र -बल से दबाकर रखने वाले गुंडे-मवाली किस्म के लोगों से नहीं जुडता ? अमेरिकी राष्ट्रपति को 'दबंग' की संज्ञा देकर इस चैनल ने हमारे खास विदेशी मेहमान को जाने-अनजाने आखिर किस उपाधि से नवाजा है ,यह बताने की ज़रूरत नहीं है ,वहीं 'दबंग' के  विपरीत शब्द 'दलित'को उसने अघोषित रूप से भारत की आम जनता पर थोप दिया है . इसमें दो राय नहीं कि लोकतंत्र के इस युग में , आज की आधुनिक दुनिया में  अपने कई तरह के कारनामों के कारण  अमेरिका की छवि 'दबंग ' जैसी ही बन गयी है , लेकिन चैनल की सुर्ख़ियों ने इस बदनाम शब्द को वहाँ के राष्ट्रपति के नाम से जोड़ कर जनता को क्या संदेश दिया , यह तो चैनल के कर्ता-धर्ता ही बता पाएंगे ,पर इतनी फुरसत किसे है कि जाकर उनसे यह पूछे .दबंग भले ही मुट्ठी भर होते हैं , लेकिन अपने साम-दाम ,दंड-भेद की नीतियों से  समूची इंसानी आबादी  को दबा कर रखते हैं. इंसानियत दबंगों की गुलाम बन जाती है .
      इन दिनों एक फ़िल्मी कलाकार के 'दबंग ' शीर्षक हिन्दी फिल्म के किसी अपराधी चरित्र को  प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में इसी शीर्षक से काफी महिमा -मंडित किया जा रहा है . मानो ,यह किसी  महान प्रेरणा दायक चरित्र का नाम हो . ध्यान देने लायक बात यह भी है कि 'दबंग' फिल्म में 'दबंग ' का किरदार निभाने वाले  पर अपने वास्तविक जीवन में काले हिरणों के शिकार और फुटपाथ पर सोए गरीबों को मदहोशी में  अपनी कार से कुचल कर मार डालने का संगीन आरोप लगा हुआ है .इन्ही आरोपों में वह जेल भी जा चुका है .यह आज के जमाने के  विज्ञापन आधारित  प्रचार-तंत्र का ही करिश्मा है कि इसके बावजूद लोग . खास तौर पर चालू-छाप मनोरंजन के दीवाने  निठल्ले  युवाओं को इस 'दबंग' पर फ़िदा होते देखा जा सकता है ,भले ही उन्हें इसके लिए उसके  निजी सुरक्षा-गार्डों के हाथों मार खानी  पड़े ,या फिर पुलिस की भी लाठियां खानी पड़ जाए. मानो 'दबंग' नामक इस फ़िल्मी किरदार ने देश के लिए कोई बहुत बड़ा काम किया हो, जिससे लाखों-करोड़ों लोगों का भला हुआ हो . ऐसा कुछ भी नहीं है .फिर भी उसके लाखों निठल्ले किस्म के दीवाने हैं .प्रचार-तन्त्र और उसके निजी विज्ञापन-तंत्र ने उसे हमारे  समाज के एक 'रोल-मॉडल ' के रूप में स्थापित करने में  कोई कसर नहीं छोड़ी है.
   क्या यह आज की पढ़ी-लिखी ,साक्षर और शिक्षित कहलाने वाली आधुनिक दुनिया में नैतिक-मूल्यों के पतन और नैतिकता के प्रतिमानों में तेजी से आ रहे बदलाव का संकेत नहीं है ?आज़ादी के छह दशक बाद भी हम अपने लिए और अपनी नयी पीढ़ी के लिए महात्मा गांधी , स्वामी विवेकानंद और शहीद भगत सिंह जैसी महान विभूतियों को 'रोल मॉडल' नहीं बना पाए . न सिर्फ दबंग किस्म के लोग, बल्कि  अघोषित चोरी ,अघोषित डकैती और अघोषित बेईमानी के धन से पूरी दबंगता के साथ अपना आर्थिक साम्राज्य फैला रहे लोग भी  समाज का 'रोल-मॉडल ' बन रहे हैं .  क्या यह हमारे दिल के किसी कोने में 'दबंगों' के भय से कांपती चुपचाप दुबक कर बैठी मानवता के अस्तित्व के लिए खतरे का संकेत नहीं है ?
                                                                                                             स्वराज्य करुण

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गुरुवार, 23 सितंबर 2010

मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-५ (व्यंग्य)

 अरविन्द झा का व्यंग्य...........भाग १..........भाग२.............भाग ३..........भाग ४

" दामादजी बिल्कुल सही कह रहे हैं "----- तब तक ससुरजी शोपिंग कर लौट आये थे------" आज मैंने महात्मा गांधी की तस्वीर खोजी.....नहीं मिली फ़िर चिर-यौवना मल्लिका शेरावतजी की तस्वीर ले आया. यह सोचकर कि किन हालातों में इस लङकी ने अपने वस्त्र का त्याग किया होगा ?"
मैंने समानपूर्वक उन्हें समझाया---" पिताजी ये फ़िल्म की हिरोईन है. अपने शरीर को दिखाकर ये करोङो रुपये कमाती है". वह चौंक गये------" शरीर को दिखाकर करोङो रुपये ..? कैसे..?" "लोग इनके शरीर को देखना चाहते हैं इसलिये.."
" वाह जन-इच्छा का कितना सम्मान करती है यह अबला "
" पापाजी आप गलत समझ रहे हैं. इन हिरोइन को तो एक्टिंग करना चाहिये न ? "
" ये अच्छा एक्टिंग नहीं करती क्या..?"
" अच्छा एक्टिंग करती है लेकिन आज-कल के लोग सिर्फ़ आंग-प्रदर्शन देखना चाहते हैं. "
" फ़िर.......मैं तो इसी हालात की बात कर रहा था. हालात ही ऐसे हो गये हैं जिससे इस बेचारी मल्लिका शेरावत को स्वयं अपना चीर-हरण करना पङा. कौरव- पांडव सभी एक जैसे हो गये. द्रौपदी करे भी तो क्या. महाभारत की पांचाली...आधुनिक भारत की सहस्त्रचाली बन गयी. धृतराष्ट्र तब भी अंधा था और आज भी अंधा है."---ससुरजी कुछ देर तक शांत रहे फ़िर अपनी बेटी से कहने लगे-----" अब तो बाजार भी बहुत बदल गया है. पहले सत्तु खोजा जब नहीं मिला तो कोल्ड-ड्रींक पी आया. लिट्टी-चोखा भी बाजार से गायब हो गया है .इसलिये मैंने फ़ास्ट फ़ूड पैक करवा लिया ." हमलोगों ने काफ़ी फ़ास्टली फ़ास्ट-फ़ूड खाया और अपने कामों मे लग गये. मक्के की रोटी---सरसो का साग और आलू चोखा---सत्तु लिट्टी जैसे विशुद्ध भारतीय खानों पर आजकल फ़ास्ट-फ़ूड और कोल्ड ड्रींक हावी है. यदि इस समय आप लंच या डीनर न कर रहे हों तो मैं उस फ़ास्ट फ़ूड का एफ़ेक्ट बताना चाहुंगा. कुछ देर में खतरनाक रुप से घर में प्रदुषण भी फ़ैला और ग्लोबल वार्मिंग भी बढता चला गया. ससुर दामाद का हमारा संबंध ही इतना मधुर रहा है कि हम दोनों में से किसी ने एक दूसरे पर उंगलिया नहीं उठायी. जबकि घर में फ़ैल रहे प्रदुषण में हम दोनों के योगदान के बारे में हम कन्फ़र्म थे. विडंबना देखिये कि हमारी उंगलियां वायु ग्रहण और त्याग स्थलों के इर्द-गिर्द मंडराता रही. प्रकृर्ति के नियम के मुताबिक इन छिद्रों को बंद भी नहीं किया जा सकता. हमारा पेट तो गैस का सिलिंडर बन ही चुका था. वो तो अच्छा था कि किसी ने माचिस की तिल्ली नहीं जलायी. हम दोनों ससुर दामाद एक दूसरे की समस्या को जान रहे थे लेकिन एक दूसरे से कहते भी तो क्या.

अगले भाग में फ़ास्ट-फ़ूड का एफ़ेक्ट जारी रहेगा... क्रमश:

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रविवार, 15 अगस्त 2010

स्वतंत्रता के छह दशक-क्या खोया क्या पाया -राजीव तनेजा

***राजीव तनेजा***


कहने को तो आज साठ साल से  ज़्यादा हो चुके हैँ हमें पराधीनता की बेड़ियाँ तोड़ आज़ाद हुए लेकिन क्या आज भी हम सही मायने में आज़ाद हैँ? मेरे ख्याल से नहीं।
बेशक!...हमने छोटे से लेकर बड़े तक...हर क्षेत्र में खूब तरक्की की है लेकिन क्यों आज भी हम इटैलियन पिज़्ज़ा खाने को तथा सिंगापुर,मलेशिया,बैंकाक तथा दुबई और मॉरिशस में छुट्टियाँ मनाने को उतावले रहते हैँ?
  • संचार क्रांति की बदौलत हमारे देश में मोबाईल धारकों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढती जा रही है लेकिन मोबाईल सैट अभी भी क्यों बाहरले देशों से ही बन कर आते हैँ?
  • आज सैंकड़ों देसी चैनल हमारे मनोरंजन के लिए उपलब्ध हैँ लेकिन उनकी ब्राडकास्टिंग दूसरे देशों द्वारा उपलब्ध कराए गए उपग्रहों द्वारा ही क्यों होती है?
  • ये सच है कि हमारे कल-कारखानों में एक से एक ...उम्दा से उम्दा आईटम तैयार होती है लेकिन फिर भी हम खिलौनों से लेकर कपड़े तक और प्लाईबोर्ड से लेकर रैडीमेड दरवाज़ों तक हर सामान को चीन से आयात कर गर्व तथा खुशी क्यों महसूस करते हैँ?
  • क्यों आज हम में से बहुत से लोग हिन्दी जानने के बावजूद अँग्रेज़ी में बात करना पसन्द करते हैँ?....
  • हिन्दी के राष्ट्रीय भाषा होने के बावजूद क्यों हम अँग्रेज़ी के गुलाम बने बैठे हैँ?
  • आज हमारे देश का आम आदमी अपने देश के लिए काम करने के बजाय क्यों बाहरले देशों में बस अपना भविष्य उज्जवल करना चाहता है?
  • आज दुनिया भर के होनहार लोगों के होते हुए भी हमें आधुनिक तकनीक के लिए बाहरले देशों का मुँह ताकना पड़ता है तो क्यों?
  • आज हमसे...हमारी ही संसद में सवाल पूछने के नाम पे पैसा मांगा जाता है तो क्यों?
  • क्यों खनिज पदार्थों के अंबार पे बैठे होने के बावजूद हमें बिजली उत्पादन के लिए यूरेनियम से लेकर तकनीक तक के लिए अमेरिका सहित तमाम देशों का पिच्छलग्गू बनना पड़ता है?
  • आज अपनी मर्ज़ी से हम अपना नेता...अपनी सरकार चुन सकते हैँ लेकिन फिर भी किसी वोटर को चन्द रुपयों और दारू के बदले बिकते देखना पड़ता है तो क्यों?

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शनिवार, 24 जुलाई 2010

नक्सल हिंसा,लोकतंत्र एवं मीडिया पर राष्ट्रीय परिचर्चा कल रायपुर में

साधना न्युज चैनल की स्थापना के दो वर्ष पूर्ण होने पर नक्सल हिंसा, लोकतंत्र एवं मीडिया विषय पर एक राष्ट्रीय परिचर्चा का आयोजन कल 25/07/2010 को न्यु सर्किट हाऊस के सभागार रायपुर में किया जा रहा है। इस आयोजन में प्रशासनिक बौद्धिक एवं मीडिया जगत की मुर्धन्य हस्तियां रायपुर पधार रही हैं। जिनमें नक्सली हिंसा पर गंभीर चर्चा होगी। इस अवसर पर प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया के लोग भी उपस्थित रहेगें।

इस राष्ट्रीय परिचर्चा के मुख्य वक्ता प्रथम महिला भारतीय पुलिस सेवा अधिकारी किरण बेदी, प्रख्यात समाजसेवी स्वामी अग्निवेश, प्रभात खबर के सम्पादक श्री हरिवंश, वरिष्ठ सम्पादक अरविंद मोहन, आई आई एम सी के प्राध्यापक आनंद प्रधान ,इंडिया टुडे के रिपोर्टर रहे वरिष्ठ सम्पादक एन के सिंग, वरिष्ठ सम्पादक आशुतोष, नक्सल मामलों के विशेषज्ञ प्रकाश सिंह, वरिष्ठ सम्पादक रमेश नैयर, 36 गढविधान सभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक, नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे, प्रदेश के गृह मंत्री ननकी राम कंवर, लोकनिर्माण मंत्री बृजमोहन अग्रवाल, पूर्व नेता प्रतिपक्ष महेन्द्र कर्मा हैं।

ज्ञात हो विगत दशकों से 36 गढ नक्सली हिंसा से जूझ रहा है। शायद ही किसी दिन वारदात की खबर न आए। इस हिंसा में आम नागरिक एवं सुरक्षा बलों के लोग मारे जा रहे हैं। वातावरण में बारुद की गंध एवं आम नागरिक के दिलों में दहशत का आलम है इन परिस्थितियों में यह राष्ट्रीय परिचर्चा महत्वपूर्ण हो जाती है। इसे कल साधना चैनल पर लाईव प्रसारित किया जाएगा। परिचर्चा तीन सत्रों में होगी, इसका संचालन बिगुल ब्लाग के माडरेटर राजकुमार सोनी करेंगे। इस अवसर पर  ललित शर्मा भी उपस्थित रहेंगे।

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शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

पंकज मिश्रा बाप बने !!!!!!!!!!

पंकज मिश्रा (चर्चा हिन्दी चिट्ठों की) के कंधों पर अब एक नई जिम्मेदारी आ गयी है। जब जिम्मेदारी आ ही गयी है तो निर्वहन भी करना ही है। यह जिम्मेदारी कुछ ऐसी है जिसे हंसते-हंसते उठाना पड़ता है। जिसे हंसते-हंसते उठाना पड़ता है। बस इसी चक्र में यह दुनिया भी चल रही है। कल उन्होने हमें एक खुशखबरी बताई, जिससे हम बहुत प्रसन्न हुए और सोचा की इस खुशी में आप सबको भी शामिल करलें। 

उनके घर से टेलीग्राम आया है कि वे 18 जून को पिता बन गए, उन्हे अश्विनी नामक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। इन्होने हमे बिना मिठाई  खिलाए नामकरण भी कर लि्या। हमने सोचा चलिए कोई बात नहीं मिठाई तो आती ही होगी। पहले यह खबर ब्लाग जगत के मित्रों तक पहुंचा ही दें। आइए इस खुशी के मौके पर सब शरीक होते हैं।

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बुधवार, 2 जून 2010

मिलिए संस्कृत बोलने वाले चिट्ठाकार परिवार से----चिट्ठाकार चर्चा----ललित शर्मा

मिलिए संस्कृत बोलने वाले चिट्ठाकार परिवार से----चिट्ठाकार चर्चा----ललित शर्मा

 

दिल्ली यात्रा-5...कारवां चल पड़ा है मंजिल की ओर...........!

 

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बुधवार, 26 मई 2010

असली ज़लज़ला कौन?

 

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शनिवार, 15 मई 2010

गिरी्श दादा जहां कहीं भी हो चले आओ-(गुमशुदा की तलाश)---------ललित शर्मा

पान की दुकान पर निरंतर चर्चा चल रही है कि आप कहां चले गये, लोग कयास लगा रहे हैं। हमारा निवेदन है कि आप जहां कहीं भी हो लौट आओ, आपके जाने से हमें बहुत ही झटका लगा है। आपने ब्लाग जगत को पॉडकास्टर बन कर अपनी अनमोल सेवाएं दी हैं, जिसके लिए हम आभारी हैं। ऐसी कौन सी बात थी? जिससे आप आहत होकर ब्लागिंग छोड़ चले, हमारी तो समझ में ही नहीं आया। सब कुछ ठीक चल रहा था फ़िर आपने अचानक ऐसा निर्णय क्यों लिया? जब से आप गए हैं तब से हमारा भी मन नही  लग रहा है और आपने जिससे पॉडकास्ट इंटरव्यु का वादा किया था उसके फ़ोन हमारे पास आ रहे हैं कि दादा ने हमारा पॉडकास्ट इंटरव्यु लेने का वादा किया था, लेकिन अब बताइए कैसे होगा इंटरव्यु? वो बहुत गमगीन है। 

आप वीर पुरुष हैं छोटी मोटी बाधाओं से घबराकर जाना ठीक नहीं है, ब्लागिंग का मूलमंत्र "सुरेश चिपलुनकर भाई से साभार" हम मिसफ़िट पर छोड़ आए हैं, समय मिले तो पढ लेना, नई तुफ़ानी उर्जा देगा, शरीर में जोश भर देगा, नई ताजगी के साथ, अनुभूत नुख्शा है, हम उसका सेवन कर रहे हैं, आप भी करके देखिए, लाभ होने का शर्तिया दावा है, न होने पर पैसे वापस, वैसे भी कल अक्षय तृ्तीया है भगवान परशुराम जयंती मनाई जा रही है, जुलुस निकाला जा रहा है सर्व ब्राह्मण समाज के द्वारा, मेरे पास मैसेज और निमंत्रण दोनो आया है। उसमें आपको शामिल होना जरुरी है।

मिसिर जी भी हलकान हैं, इधर वे घर के काम में व्यस्त है और आपने मौके का फ़ायदा उठाकर राम राम कह दि्या और तो और सारे सम्पर्क सुत्र भी तोड़ लिए, आपके वो मोबाईल फ़ोन की घंटी जो सुर में बजती थी अब नहीं बज रही है। उसपर भी ताला लग गया है। राज भाटिया दादाजी कह रहे थे कि बहु्त गर्मी है और बैशाख का महीना है नौतपे लगने वाले हैं, इस समय टंकी पर चढना ठीक नहीं है लू भी लग सकती है जिससे स्वास्थ्य को नुकसान हो सकता है, वैसे टंकी पर गर्मी भी बहुत है। निर्माता ने वहां एसी कूलर की व्यवस्था नहीं की है क्योंकि टंकी पर सर्वहारा वर्ग ही चढता है, सामंतो को कहां फ़ुरसत है टंकी पर चढने की, वे तो नीचे एसी कमरे में बैठ कर टंकी को दूरबीन से निहारते रहते हैं कि कौन मरदूद चढा है।

दादा जी हम समझ सकते हैं आपका दर्द क्योंकि ये तकलीफ़ हमने भी झेली है। इससे पहले कि आपको कोई डॉक्टर पागल या ब्लागोमेनिया का मरीज करार कर दे, जहां भी हो जैसे भी चले आओ। अम्मा बहुत परेशान हैं उनकी तबियत भी खराब हो सकती है, आपके बिना भैंस ने दूध देना बंद कर दिया है, कहती है कि पहले गिरीश दादा जी को लेकर आईए, इसलिए अम्मा को भी दूध नही मिल रहा है, बहुत कमजोर हो गयी हैं। आपका वह चपरासी भी मिला था जिससे आपने सहृदयता दिखाते हुए माफ़ी मांगी थी, कह रहा था कि साहब जब से बिना बताए गए हैं तब से हम भी आफ़िस नहीं जा रहे हैं। सारा काम ठप्प हो गया है।

इसलिए मेरा आग्रह है कि इस वक्त जहां भी हो जैसे भी हो उसी हालत में चले आओ कोई कु्छ नहीं कहेगा और इस आशय का इस्तेहार कल के अखबार की "गुमशुदा की तलाश" कालम में देने का विचार कुछ आपके चाहने वाले कर रहे थे, जहां भी हो चले आओ..................

आपका
अनुज

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मंगलवार, 30 मार्च 2010

अरे बड़े मियां, बचा लिया नहीं तो आज तो इज्जत का फलूदा बन जाता

जौंक कहते हैं न
"क्या-क्या मजा ने तेरे सितम का उठा लिया  हमने भी लुफ्ते-ज़िन्दगी अच्छा उठा लिया"  
तो जनाब हमने भी बोर्ड परीक्षा के सितम उठाये, दिन रात कमरे में बंद रहे , फ़ोन और गेम्स उठवाकर दूसरे कमरे में रखवा दिए. हमारे वालिद साहब हमसे बड़े खुश नजर आते थे उन दिनों, आखिर निठल्ले ने पढना जो शुरू कर दिया था. वैसे हमारे अन्दर लाख बुराइयाँ वो निकालते हो पर एक अच्छी बात जिसकी वो हमेशा तारीफ करते हैं. जनाब हमें टीवी देखना पसंद नहीं. फिल्मो का शौक तो भारत की हवा में साँस लेते ही समां गया था पर टीवी से हमेशा बचके रहे हम. इसके पीछे भी एक  कहानी हैं जिसे हम चाहे तो दो पंक्तियों में सुना दे या उपन्यास में बदल डाले.

दिसंबर से मार्च तक तो बोर्ड परीक्षा में डूबे रहे फिर अप्रैल, मई परिणाम का इंतजार किया. इस बार तो अँधेरे में तीर मार ही दिया. सुबह सुबह साइकिल पर चढ़कर साइबर कैफे में परिणाम देखने गया. दिमाग अपनी चालें चल रहा था और दिल अपना ढोलक बजा रहा था. खैर टकलू राम को रोल नंबर वाला परचा दिया और उसने बोर्ड की वेबसाईट पर उसे डाला. अब आप दिल्ली की सडको से गुजरे और आपको जाम न मिले तो समझना किसी पुण्यात्मा के दर्शन करे हैं अपने. वही हाल यहाँ था. दूसरे computers पर वेबसाइट खुल नहीं रही थी, अपने मामले में तो दो सेकंड में परिणाम निकल दिया. ऑंखें मल ली, ३-४ थप्पड़ भी जमा लिए, कहीं जन्नत में तो नहीं पहुच गए. पहली दफा ज़िन्दगी में इतने नंबर आये थे. 
 
इतना खुश हो गया कि साइकिल उठा कर न जाने किस  तरफ भागा और १०-१२ किलोमीटर चलाने के बाद ही रुका. फिर होश आया तो घर आया. अब्बूजान को खबर दी. कहा--अब आप वादा पूरा करिए. हाँ ठीक हैं कर देंगे पहले यह लो. 
पांच सौ के चार हरे पत्ते. अब तो बस पूछिए मत. हम तो बस यही बोले उस वक़्त 
"यह न थी हमारी किस्मत कि विसाले-यार होता, अगर और जीते रहते, यही इंतजार होता"  


बस जल्दी से नहाया, दोस्तों को फ़ोन लगाया और चल दिए नशे में हम. जो मन में आया खाया, जहाँ मन में आया घुमे. फिर एक मियां ने फ़रमाया ---- क्यूँ न जबरदस्त पार्टी हो जाये???. आज सब अमीर थे, दिल से भी और जेब से भी. 
मुफलिसी के दिन गए यारों और हम पहुचे दिल्ली के एक मशहूर और महंगे रेस्तरां में. आज तक कभी नहीं आये थे सो महाराज इस दुनिया की तहजीब और अदा से बेखबर हम सबने चिकन की टाँगे तोड़ी. आसपास के लोग हमारी तरफ यूँ घूर के देख रहे थे जैसे हम चाँद से उतर कर जमीं पर आयें हो. हम भी तो हैवानो की तरह चिकन लोलीपोप और चिकन सलामी ठूंस रहे थे. 

बगल की टेबल पर बैठे एक मियां बड़े गौर से हमें देख रहे थे. उम्र और तजुर्बे दोनों में बड़े जानकर मालूम होते थे.  ऊपर से एक ग़ज़ल भी चल रही थी......

सरकती जायें हैं रुख से नकाब --- अहिस्ता अहिस्ता 
निकलता आ रहा हैं आफताब ---- अहिस्ता अहिस्ता 


अहिस्ता अहिस्ता हम चिकन को सलाम कर रहे थे, हमारी तहजीब का आफताब पूरे रेस्तरां को चमका रहा था.बड़ी मशहूर ग़ज़ल हैं और मुझे बहुत अच्छी भी लगती हैं सो मैं भी लता जी और किशोर कुमार का साथ देने लगा. बड़े मियां को बहुत अच्छा लगा. उन्होंने एक प्यारी सी मुस्कान हमारी तरफ फेंकी. इतने में वेटर महाराज एक थाली लेकर आये जिसमे कुछ कटोरियाँ थी. टेबल पर कटोरियाँ रखीं गयी. दोस्त बोले यार --- यह डीश तो हमने मंगवाई ही नहीं.  कटोरियों में गरमपानी और कटा हुआ निम्बू डाला हुआ था.   हमने निम्बू को पानी में निचोड़ दिया और बस लबों से लगाने ही वाले थे कि बड़े मियां कुछ बोलते हुए हमारी तरफ आये. वो हमारे पास आये और कान में बोले ---- यह पीने के लिए नहीं, हाथ धोने के लियें हैं. 

अरे बड़े मियां, बचा लिया नहीं तो आज तो इज्जत का फलूदा बन जाता हलाकि रबड़ी तो हम बना ही चुके थे. नहीं तो ग़ालिब का यह शेर बिलकुल सही फिट हो जाता 
निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन बहुत बे-आबरू हो कर तेरे कुचे से हम निकले  



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शनिवार, 27 मार्च 2010

ए गनपत जरा इंटरनेट तो खोल ए गनपत जरा ब्लाग तो खोल...

ए गनपत जरा इंटरनेट तो खोल ए गनपत जरा ब्लाग तो खोल
ए गनपत जरा जोरदार पोस्ट तो लिख रे
ए गनपत के रे फिर से देख इस पोस्ट पर कितनी पोस्ट आई रे
ए गनपत नहीं आती हैं तो तू भी टिप्पणी धकेल रे तब तो बाबा लोग आयेगा रे
ए गनपत टिप्पणी नहीं आती है तो किसी खासे से पंगा ले न रे तेरी पूछ बढ़ जायेगी रे
ए गनपत जरा धर्म पर पोस्ट लिख दूसरो की भी धो और अपनी भी धुलवा रे
ए गनपत ज्ञानी है तो अपना ज्ञान और कहीं रे बघार इतनी बड़ी दुनिया पड़ी है रे
ए गनपत लोग लुगाई के झगड़े में न पड़ना रे नहीं तो खाट भी न रहेगी रे
ए गनपत तू तो बड़ा टॉप क्लास ब्लॉगर है रे तू तो टिप्पणी देना पसंद नहीं करता है रे
ए गनपत ब्लॉग पे तू अपनी ढपली अपना राग अलाप रे फटेला नहीं का समझे रे
ए गनपत चम्मचो के मकड़जाल में न पड़ना रे
ए गनपत जरा चैटिंग कर लिया कर रे
ए गनपत दूसरो की वैसाखियों पर न चल रे बाबा
ए गनपत तू तो एग्रीकेटर बन गयेला रे अब तो तेरी मर्जी चलती है रे .
ए गनपत अखबारों की पोस्ट ब्लॉग में छाप रे और पसंदगी पे चटका लगवा और आगे बढ़ रे रेटिंग के शिखर में .
ए गनपत तेरे को टॉप २० में नहीं रहना है क्या रे .

....

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गुरुवार, 25 मार्च 2010

मैं तो "सोडा" मिला कर पीता था यह मुझे "नीट" ही पिलाती हैं........महफ़िल सजा दी हैं आओ दीवानों

सर्द काली रातों में
जाने किस कोने से निकल कर आती हैं
फिर "साली" मेरे दिल में घुस जाती हैं
दर्द के साथ "सालसा" करके दिल को बड़ा रुलाती हैं
गम को दिल से निचोड़ कर
मन की आग पर शराब पकाती हैं
"कम्बक्त" खुद भी "पेग" लेती हैं
मेरे को भी पिलाती हैं
अब तो समझ जा "नवाबो के शहर की मल्लिका"
"दिल्ली के सुल्तान" को तेरी याद हर रोज सताती हैं
मैं तो "सोडा" मिला कर पीता था
यह मुझे "नीट" ही पिलाती हैं

पंकज उदास जी की आवाज  में .......


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मंगलवार, 23 मार्च 2010

तमीज से बात कर बे.....कस्टमर से ऐसे बात करते

टयूसन वाले सर बोले ----- अबे गधे होम वर्क क्यों नहीं करता तू?????
तो बच्चा बोला ------ तमीज से बात कर बे.....कस्टमर से ऐसे बात करते हैं 
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टीचर ने पुछा ---- बताओ जो लोग गंदे काम करते हैं वो कहाँ जातें हैं???
छात्र --- जी बुद्धा गार्डेन, लोधी गार्डेन, पुराना किला, जापानी पार्क.........
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मुर्गा बोला --- आइ लव यू मेरी जान......तेरे लिए कुछ भी करूँगा.....
मुर्गी बोली ---- हाय मैं मर जावा.....सच क्या ???
मुर्गा बोला --- हाँ मेरी जान 
मुर्गी बोली --- तो चल फिर अंडा दे आज से..............
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मैडम ने बोला ---- टुन्नू दस तक गिनो तो एक पप्पी दूंगी.....
टुन्नू ------ अगर १०० तक गिनू तो क्या मिलेगा???????
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संता अंडरवेअर लेने दुकान पर जाता हैं और एक अंडरवेअर चुन लेता हैं 
दुकानदार --- यह पांच सौ का हैं 
संता --- अबे  डेलीवेअर चाहिए पार्टी वेअर नहीं...........
                 ___________________________________________________________
संता नहा रहा था!!!!!!!!!!
बंता ने आवाज लगाई..........संता ऐसे ही बाहर आ गया 
बंता बोला --- कुछ तो पहन लेता यार!!!!
संता अन्दर गया और हवाई चप्पल पहन कर आ गया

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शनिवार, 20 मार्च 2010

बनारसी पान के किस्से फ़कीरा सुनाते पान की दुकान पर



भैया बनारसी पान तो वर्ल्ड फेमस हैं और उससे भी ज्यादा फेमस हैं बनारसी पान से जुड़े हुए किस्से और लतीफे। न जाने कितने ही संगीतज्ञों , लेखको, शायरों और राजनीतिज्ञों की कमजोरी रहा हैं यह बनारसी पान। तो जनाब बंदा हाज़िर हैं बनरसी पान की पीक से जुड़े दो किस्सों के साथ। एक तो महाराज देखा हैं दूसरा सुना हैं। जो देखा हैं उसको तो बाद दिखाया जायेगा पहले शो में सुना हुआ किस्सा सुनाया जाएगा।
तो महाराज सब जानते हैं कि विदेशो में शास्त्रीय संगीत की कितनी धूम हैं। विदेशी लोग बहुत पसंद करते हैं और हिन्दुस्तानी उनकी इस अदा को बहुत पसंद करते हैं। सितार तो सबने ही सुना होगा। हुआ यूं कि एक नामी सितार वादक फ्रांस गए। उस्ताद जी बनारसी पान का बहुत शौक था। जहाँ जाते थे पान भी उनके साथ जाता था। अब जहाँ शो हुआ वहीँ पर लोकल अख़बार के एक पत्रकार महोदय उपस्थित थे। उन्होंने क्या देखा कि उस्ताद जी सितार पर सुर लगाते और जब राग पूरे शबाब पर होता, तो मुहं से जबरदस्त "खून" की उलटी कर देते। पत्रकार ने "तानसेन" वाला किस्सा सुन रखा था। ब्रेअकिंग न्यूज़ कैसे मिस करता वो। अगले दिन अख़बार में अख़बार में चाप दिया।
"फलाने ढिमाके सितार वादक ने संगीत में प्राप्त करी महानता, राग "खुनी" का रोमांचक प्रदर्शन"। जब उस्ताद जी तक यह बात पहुची तो उन्होंने माथा पीट लिया।

अब आपको अगला एपिसोड दिखाते हैं। हमारे चाचा की शादी थी। बारात बस में जा रही थी। एक ढाबे पर रुकना हुआ। फिर खाना पीना और उसके बाद बनारसी पान। तो भइये , खा पी कर सब बस में सवार हो गए। यहाँ पर भी एक उस्ताद जी थे। अजी बस के ड्राईवर। प्यार से लोग बस ड्राईवर को भी बोलते हैं....."उस्ताद जी, जरा ब्रेक लगा देना"। अब इन उस्ताद जी ने मुहं में दो बनारसी पान डाल लिए और बस को फुल स्पीड में चलने लगे। पीक को सड़क पर, कोने में फेकने की "महान हिन्दुस्तानी आदत" का पालन करते हुए उस्ताद जी ने खिड़की से मुहं बाहर निकल कर १८० डिग्री का कोण बनाते हुए, पीक निवारण कर दिया। एक बाराती महाशय, भोजन के उपरांत रास्ते की ठंडी हवा का आनंद लेते हुए, खिड़की से मुहं बाहर निकल कर शयन कर रहे थे। उनका खुला मूह देख कर "पीक" को लगा निमत्रण हैं, सो पहुच गयी सीधे उनके मुख के अन्दर। हर तरफ से लाल वो महाशय तभी जाग गए और "श्लोक उच्चारण" शुरू कर दिया। बात "लत्तम-जुत्तम" तक पहुच गयीं। शादी का अवसर था, इसलिए वो "एक बोतल" में मान गए।

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शुक्रवार, 19 मार्च 2010

सॉरी नो "मोर" ब्लोगिंग -------->>> यशवंत मेहता "फ़कीरा"


  यह मोर ब्लॉग लिखता हैं

यह मोर भी ब्लॉग लिखता हैं


 अरे यह क्या लड़ पड़े??????

                                                          

                                                      सॉरी नो "मोर" ब्लोगिंग    

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गुरुवार, 11 मार्च 2010

सुनो सुनो सुनो....अब पढ़िए ब्लॉग वार्ता

लेकर आये आपके लिए ब्लॉग 4 वार्ता, चिट्ठों की कहानी ...... हमारी जुबानी........ टीम में शामिल हैं......राजीव तनेजा जी ...... यशवंत फकीरा जी ........संगीता पूरी जी --- अब होगी रोज वार्ता.............. चर्चा तो बहुत हो ली. यह ब्लॉग अभी ब्लॉग वाणी पर नहीं है......... इसलिए पाठकों की सुविधा के लिए..........पान की दुकान से लिंक जारी हो रहा है....... इस पर यहाँ से  और यहाँ से जा सकते हैं..... ब्लाग 4 वार्ता में आपका स्वागत है............

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सोमवार, 8 मार्च 2010

ऐसे वायरसों से डरते रहे तो बस समझो काम डल गया ...

बैठे ठाले मेरे दिल में ख्याल आया की आज होली के बाद पान की दूकान पर चलकर तबियत हरी भरी की जाए जिससे लबो पर मुस्कान आ जाए और लापता भाई लोगो की खोजखबर कर ली जाए ... टहलते टहलते जा पहुंचा पान की दूकान पर .

पान वाला बोला - महाराज कहाँ रहे ईद के चाँद हो गए भैय्या और सुनाओ ?

मैंने कहा पहले तुम जा बताओ कै तुम्हारी दूकान तो गणतंत्र दिवस से बंद है वो तो आज खुली दिखाई दे रही है . अरे हमारे ललित भैय्या कहाँ है कछु उनका पता ही नहीं चलता ?

पान वाला बोला - भैया का बताये उनके कंप्यूटर पर दुश्मन कीट का हमला हो गया था और महाराज के मित्र कीट दुश्मन कीट से सारी रात युद्ध करते रहे और महाभारत और पानीपत की तरह घनघोर लड़ाई चली और हमरे ललित महाराज के कंप्यूटर की हार्ड डिस्क शहीद हो गई .

सुनकर मेरी आँखों में आंसू आ गए मैंने मन ही मन में ललित जी की हार्ड डिस्क को शत शत नमन और प्रणाम किया फिर मैंने पान वाले से कहा - देखो वायरस ऐसे नहीं आते है दुश्मनों के द्वारा छोड़े जाते है . वायरस भी तरह तरह के होते हैं जैसे शब्द भेदी वायरस जो आदमियो के द्वारा आदमियो के ऊपर छोड़े जाते हैं जिससे अगला वायरसग्रस्त हो जाता है और सामने वाले आदमी का दिमाग गोल हो जाता है इस तरह के वायरस ब्लागिंग में भी पाए जाते हैं . दूसरा मेल वायरस जो मेल के द्वारा भेजे जाते है आपने जैसे ही किल्क किया और आपके ऊपर इनका हमला शुरू हो जाता है . तीसरे वे वायरस होते हैं जो हम खुद बुलाते हैं . खूब फक फिल्म और पोर्न देखो और वीडियो देखो तो वायरस आयेंगे ही .

पान वाला बीच में टोककर बीच में बोला - कहीं आपका आशय यह तो नहिहाई कै अपने ललित भइय्या जे सब खूब देखत हो तो वायरस आहे है हिन् . पानवाले के दिमाग की सोच को देखकर मुझे पहले तो खूब हंसी आयी दी मैंने पानवाले को खूब जोर से डपटकर कर कहा - चुप बे तै अपना पान लगा जे में सार है ये सब सोचने की बाते तो हम ब्लागर भाइयो की हैं और फिर पान बहार के साथ एक पान दबाया और अपनी राह पकड़ी .

चर्चा पान की दुकान पर - महेंद्र मिश्र

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मंगलवार, 26 जनवरी 2010

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

 गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं


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सोमवार, 25 जनवरी 2010

खेल खिलाड़ी का

***राजीव तनेजा*** 



ज्योतिषी बनने के चक्कर में जेल की हवा खाने पडी…कोई खास नहीं…बस यही कोई तीन महीने की हुई…बोरियत का तो सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि अपने सभी यार-दोस्त तो वहाँ पहले से ही मौजूद थे| कोई दो साल के लिए अन्दर था तो कोई पाँच साल की चक्की अपने नाम लिखवा के आया था| ये तो मैँ ही था जो अपने ज़मीर के चलते कुछ ले-दे के सस्ते में छूट गया था वरना  बाकि सब के सब स्साले!...कंगाल....सोचते थे कि बाहर निकल के तो फिर कोई ना कोई काम-धन्धा करना पड़ेगा .. सो!...यही ठीक है...अपना..दो वक्त की आराम से मिल जाती है..और क्या चाहिए किसी बदनसीब बंदे को? सही कहा है किसी भले-मानस ने कि... "जब मुफ्त में मिले खाने को तो कद्दू जाए कमाने को" 
                                  सब के सब स्साले!...निठल्ले....कामचोर की औलाद...मुफ्त में जेल की रोटियाँ तोडे जा रहे थे दबादब। बाकि सब तो खैर ठीक ही था लेकिन एक ख्याल दिल में उमड़ रहा था बार-बार कि..."आखिर!...जेल से छूटने के बाद मैं करूँगा क्या?" अब कोई छोटा-मोटा काम-धंधा करना तो अपने बस का था ही नहीं शुरू से। इसलिए अपुन का इरादा तो फुल्ल बटा फुल्ल लम्बा हाथ मारने का था लेकिन कोई भी आईडिया स्साला!..इस भेजे में घुसने को राज़ी ही नहीं था और घुसता भी कैसे? आदत तो अपुन को थी हमेशा तर माल पाडने की और यहाँ...ये स्साला!...जेल का खाना...माशा-अल्लाह। अब क्या बताऊँ?...ये अफसर लोग ही सब का सब हडप जाते हैँ खुद ही और डकार तक नहीं लेते...छोड़ देते हैं हम जैसों के लिए मूंग धुली का बचा-खुचा पानी और कुछ अधजली...कच्ची-पक्की रोटियाँ।
                                  बाहर किसी कुत्ते को भी डालो तो वो भी कूँ ...कूँ कर किंकियाता हुआ काटने को दौड़ेगा और अपनी हालत तो ऐसी थी कि काटना तो दूर...सही ढंग से भौंक भी नहीं सकते थे। भौंकना और काटना सब अफसर लोगों के जिम्मे जो था।लेकिन एक दिन अचानक सब काया-पलट होते नज़र आया...चकाचक सफेदियाँ कर पूरी बैरक को चमकाया जा रहा था...'फ्रिज'.....'सोफा'...'प्लाज़मा टीवी'....'गद्देदार पलंग' और ना जाने क्या-क्या?... मैने मन ही मन सोचा कि "ये सब स्साले...इतना सुधर कैसे गये? किसी से पता किया तो जवाब मिला....
"इतना परेशान ना हो....एक 'वी.आई.पी' आ रहा है कुछ हफ्तों के लिये। उसी की खातिरदारी के लिए ये सब इंतज़ाम हो रहा है...तेरे बाजू वाली बैरक में ठहरने का इंतज़ाम किया गया है उसका" 
                                   इन दिनों एक ठुल्ले से अपुन ने अच्छे ताल्लुकात बना लिए थे। बस!...कुछ खास नही...वही पुराने ज्योतिष के हथकण्डे अपनाते हुए आठ-दस उल्टे-सीधे डायलाग मारे...तीन-चार का तुक्का फिट बैठा और हो गया एक नया चेला तैयार। बस!...फिर क्या था?...उसी को मस्का लगाया कि... "एक बार...बस!...एक बार...किसी भी तरह से इंट्रोडक्शन भर करवा दो...बाकि सब मैँ अपने आप सलट लूँगा"  कुछ खास मुश्किल नहीं था ये सब उसके लिए। उसी की ड्यूटी जो लगी थी उस 'वी.आई.पी' के साथ। सो!...अगले दिन ही भगवान को हाज़िर-नाज़िर मान अपुन उसके दरबार में हाज़िर था। 
                                       "ये लो!...उसे तो मैँ पहले से ही जानता था और जानता भी क्यूँ नहीं?...'वी.आई.पी'  बनने से पहले पट्ठा!...अपनी ही कॉलोनी में मिट्टी का तेल ब्लैक किया करता था और करता भी क्यों नहीं?.. तेल का डिपो जो था उसके सौतेले बाप का। मंदी में भी खूब नोट छापे पट्ठे ने और आज ठाठ तो देखो...बन्दे को बन्दा नहीं समझता है। लेकिन अपुन भी कोई भूलने वाली चीज़ नय्यी है ...  देखते ही झट से पहचान गया। गले मिलते ही मैने भी फट से पूछ लिया कि...
"अरे!...नेताजी...आप यहाँ कैसे?"... 
"अरे यार!...कुछ ना पूछ...सब इन मुय्ये चैनल वालों का किया धरा है"... 
"स्साले!...सोचते हैँ कि मैँ यूँ ही मुफ्त में सवाल पूछता फिरूँ...पागल है स्साले!...सब के सब".....
"और नहीं तो क्या?...आपको क्या किसी पागल कुत्ते ने काटा है जो आप ऐसे ही ...फोकट में अपनी ज़बान काली करते फिरें?"मैं जोश में आ नेताजी की साईड लेता हुआ बोला...
"इन स्सालों को ज़रा भी गुमान नहीं कि कितने खर्चे हैँ?...किस-किस को हफ्ता पहुँचाना पड़ता है?...किस-किस को मंथली दे के आनी पड़ती है?..
"किस-किस को?"मेरे स्वर में उत्सुकता थी...
"अरे!...ये पूछ कि किस-किस को नहीं?...ऊपर से नीचे तक...स्साला!...कोई भी बिना लिए रहता नहीं है" 
"ऊपर से नीचे तक?"... 
"हाँ!...भय्यी ...ऊपर से नीचे तक...इस हमाम में सभी नंगे हैँ"...
"ओह!...
"यहाँ तो गांव स्साला!...बाद में बसता है...कूदते-फाँदते भिखमंगे कटोरा हाथ में लिए पहले टपक पड़ते हैं"... 
"आपको पता भी ना चला कि कब स्साले!...फोटू खींच ले गये?" मेरे स्वर में हैरानी का पुट था.. 
"पता होता तो स्सालों का टेंटुआ ना दबा देता वहीं के वहीं?"नेताजी लगभग गुस्से से दाँत पीसते हुए  बोले ... 
"जी!...ये तो है"
आज लग रहा था कि जैसे नेताजी चुप नहीं बैठेंगे...कोई सुनने वाल जो मिल गया था। जब से संसद में सवाल पूछने के नाम पर बवाल हुआ था...कोई इनकी सुन ही कहाँ रहा था?...और मैँ भी तो अपने अन- महसूसे मतलब की खातिर उनकी लल्लो-चप्पो किए जा रहा था। मैने मस्का लगाते हुए कहा... "नेताजी!...आपका तो तेल का डिपो था ना?"....
"हाँ!...था तो सही...क्यों?...क्या हुआ?"नेताजी प्रश्नवाचक  दृष्टि से मेरी तरफ ताकते हुए बोले
"अच्छा-भला कमाई वाला काम छोड़ के आप इस नेतागिरी जैसी टुच्ची लाईन में कैसे आ गये?"... 
"अरे!..तुझे नहीं पता...इससे बढ़िया कमाई वाला तो कोई काम ही नहीं है पूरे हिंदोस्तान मैं"नेताजी आहिस्ता से फुसफुसाते हुए बोले...
"लेकिन कोई स्टेटस-वटेटस भी तो होना चाहिए?...ऐसे बे-इज्जत हो के नोट कमाए तो क्या खाक कमाए?"...
"अरे!..खाली फ़ोक्के स्टेटस को क्या चाटना है?...अपुन को तो कमाई दिखनी चाहिए...कमाई...भले ही कोई बेशक हमसे पैसों के बदले अपने बच्चे तक पिटवा ले...हमें कोई ऐतराज़ नहीं"नेताजी गर्व से छाती फुलाते हुए बोले   
"ओह!...
"तेल के डिपो की वजह से अपनी जान-पह्चान बहुत थी"...
"जी!...वो तो थी"..
"थी क्या?...अब भी है"नेताजी आँखे तरेरते हुए बोले...
"जी!..बिल्कुल"...
"जान-पहचान तो अपुन की भी बहुत है"मैँ मन ही मन सकुचाते हुए मुस्काया लेकिन ऊपर से एकदम अनजान बनता हुआ बोला...
"लेकिन खाली जान-पहचान से होता क्या है?"... 
"अरे बुद्धू!...उसी से तो सब कुछ होता है"..
"वो कैसे?"...
"यार!...गली-मोहल्ले में सबसे वाकिफ होने कि वजह से इलैक्शन के टाईम पे सभी पार्टी वाले अपुन को ही तो याद करते थे कि नहीं?"..
"जी!...करते तो थे"...
"चाहे वो 'भगवे' वाले हों...या फिर 'हाथी' वाले...या फिर 'हाथ' वाले या फिर किसी भी अन्य ठप्पे वाले ...सभी अपुन के दरबार में हाजिरी बजाते थे"..
"जी"मैंने मन ही मन लपेटना शुरू कर दिया था ... 
"उनसे जो माल-मसाला मिलता था पब्लिक में बांटने के लिए...उसका आधे से ज़्यादा तो मै अकेला ही डकार जाता था और चूँ तक नहीं करता था"..
"ओह!...तो फिर इस सब का हिसाब-किताब कैसे देते थे उनको?".. 
"हिसाब-किताब?" 
"जी"....
हा...हा...हा...हा" 
"अरे बुद्धू!...ये सब दो नम्बर के धन्धे होते हैँ...इनका हिसाब-किताब नहीं रखा जाता"...
"लेकिन फिर भी...थोडी-बहुत लिखा-पढी तो कर के देनी ही पड़ती होगी?..
"हाँ!...खानापूर्ति के नाम पर थोडी-बहुत लिखा-पढी तो कर के देनी ही पड़ती थी लेकिन उसके लिए तो मैंने परमनेंटली एक CA रख छोड़ा था ना...वही उल्टे-सीधे खर्चे लिखवा दिया करता था उनके हिसाब में"...
"जैसे?"...
"जैसे... 'दारू की पेटियाँ'......'जूते-चप्पल'.. लुंगी ...धोती और साड़ियाँ ..... 'झण्डे'....'बैनर'...... 'ड्ण्डा घिसाई' वगैरा वगैरा"....
"डण्डा घिसाई?...ये कौन सा खर्चा होता है?" मैं मन ही मन मुस्काता हुआ बोला ... 
"तू नहीं समझेगा...ये थोड़ा वयस्क टाईप का ...दो नंबर का खर्चा होता है"...
समझ तो मैं सब रहा था लेकिन मुँह से बस यही निकला "ओह!...
"आज नेताजी अपने आप ही सब कुछ उगलते जा रहे थे और मैँ किसी आज्ञाकारी शिष्य की भाँति बिना उन्हें टोके सब कुछ ग्रहण करने में ही अपनी भलाई समझ रहा था। आज चुप रह कर मतलब निकालने की मेरी कला काम आ ही गई। अब गर्व से सीना तान बताउंगा बीवी को कि..."देख!...चुप रहने के कितने फायदे होते हैँ।हर वक़्त बकती रहती थी कि..."सिर्फ मेरे आगे ही ज़ुबान लडाते हो...कभी बाहर जा के किसी के आगे मुँह खोलो तो जानूँ"...
अब बोल के देखियो ना कि... "बाहर तो घिघ्घी बंध जाती है जनाब की ....ज़ुबान तालु से चिपक...खुद को ताला लगा...चाबी ना जाने कहाँ गुम कर देती है?"...मुँह ना तो तोड़ दिया तो मेरा भी नाम राजीव नहीं। 
"कहाँ खो गये मित्र?" नेताजी की अवाज़ सुनाई दी तो हकबकाते हुए जवाब दिया कि... "बस ऐसे ही"
"कई बार तो ऐसा होता था कि मैँ अकेला ही पूरा का पूरा माल हज़म कर जाता था" नेताजी बात आगे बढाते हुए बोले
"पूरा?"... मैने हैरानी से पूछा 

"और नहीं तो क्या अधूरा?"...
"फिर बांटते क्या थे?....टट्टू?"... 
"अरे!...पूरे इलाके में अपुन की धाक जम चुकी थी...सो!...सभी काम-धन्धा करने वालों के यहाँ..."पार्टी फ़ंड के नाम पर चंदा दो" का फरमान जारी कर अपने गुर्गे भेज देता था.... और सारा का सारा काम खुद ब खुद निबटता जाता था"..
"ओह!...लेकिन सब के सब भला कहाँ देते होंगे?...कोई न कोई तीसमारखां तो...  
"अरे!...है कोई माई का लाल पूरे इलाक़े में जो अपुन को इनकार कर सके?...स्साले का जीना हराम ना कर दूंगा?"नेताजी अपनी आस्तीन ऊपर कर आवेश में आते हुए बोले  
"लेकिन फिर भी कोई ना कोई अड़ियल टट्टू तो मिल ही जाता होगा?" मैँ फिर बोल पड़ा 
"ऐसे घटिया इनसान तो थोड़े-बहुत हर कहीं भरे पड़े हैं यार"..
"तो फिर उनसे कैसे निबटते थे?"मेरे स्वर में उत्सुकता का पुट खुद ब खुद शामिल हो चुका था... 
"हर बार दो-चार शरीफ़ज़ादों के यहाँ 'इनकम टैक्स वालों का छापा पड़वा देता था और  नकली माल बनाने वालों के लिए तो मेरा एक फोन कॉल ही काफी होता था"...
"स्साले!..अगले ही दिन अपनी नाक रगड़ते हुए आ पहुँचे थे कि..
"हमसे भूल हो गई...हमका माफी दई दो" नेताजी फिल्मी तर्ज़ पे गाते हुए बोले ...
"ओह!...
"लेकिन एक स्साला!...फैक्ट्री मालिक ऐसा अड़ियल निकला कि लाख समझाए पर भी टस से मस ना हुआ"... 
"ओह!..फिर क्या हुआ?"... 
"अपुन भी कौन से कम हैं?...हर साँप के काटे का इलाज है अपने पास"... 
"क्या मतलब?"..
"इस जोड़ का भी तोड़ निकाल ही लिया"...
"वो कैसे?".. 
"एक तरफ स्साले की फैक्ट्री में हड़ताल करवा दी लाल झण्डे के तले और दूसरी तरफ अपना फर्ज़ समझ लेनदारों का डंडा पूरा का पूरा अंदर करवा दिया उसके कि... "हमें तो फुल एण्ड फ़ाइनल अभी चाहिए"... 
"ओह!..
"थोड़ी-बहुत कसर बाकी लगी तो प्लेन के तहत दो-चार वर्करों को चाकू मरवाया और ताला लगवा दिया हरामखोर की फैक्ट्री में"...
"ओह!...फिर क्या हुआ?" मेरे माथे पे चिंता कि रेखाएं अपना डेरा जमा चुकी थी ... 
"जब हफ्ते भर ताला लटका रहा तो खुद-बा-खुद सारी हेकडी ढीली हो गयी पट्ठे की"...
"गुड!...ये बहुत बढ़िया तरकीब सोची आपने" मेरे स्वर में प्रशंसा और हिकारत का मिलाजुला पुट था...  
"और नहीं तो क्या?" अपनी तारीफ सुन नेताजी की छाती गर्व से फूल चुकी थी ...
"तो क्या सारा का सारा माल-पानी बांट देते थे?"मुझ से अपनी उत्सुकता छुपाए न चुप रही थी 
"इतना येढा समझा है क्या?...अपुन भिण्डी बाज़ार की नहीं...दिल्ली की पैदाइश है....दिल्ली की"... 
"अगर सब कुछ बांट दूंगा तो मैँ क्या गुरुद्वारे जाउंगा?"...
"ये 'बंगला-गाडी'....ये 'नौकर-चाकर'...ये मॉल...ये 'शोरूम'...ये 'फार्म हाऊस'.... ये 'फैक्ट्री'...
सब का सब क्या आसमान से टपका है कि मन्तर मारा और सब हाज़िर?"...
 

"क्या मतलब?"मैं उनकी बात का मतलब ठीक से समझ नहीं प रहा था...
"अरे बुद्धू!...नोट खर्चा किए हैँ नोट...और नोट जो हैँ....वो पेड़ों पे नहीं उगा करते कि जब चाहा.. हाथ बढाया और तोड लिए हज़ार-दो-हज़ार"...
"तो फिर?"...
"थोडा-बहुत तो बांटना ही पडता था झुग्गी-बस्तियों वगैरा में...आखिर!...वोट बैंक जो थे"... 
"लेकिन इतनी बड़ी बस्ती...इतने सारे लोग...कैसे मैनेज करते होंगे आप ये सब?"...
"अरे!...कुछ खास मुश्किल नहीं है ये सब....बस...बस्ती के प्रधान को अपनी मुट्ठी में कर लिया तो किला फतेह समझो"... 
"यही तो सबसे मुश्किल काम होता होगा ना?" 
"कोई भी काम मुश्किल नहीं है अपुन के लिए....बस!...मुन्नी बाई को इशारा किया और पहुँच गई अपने पूरे दल-बल के साथ"...
"ओह!...उसके लटके-झटकों पे तो पूरी दिल्ली फिदा है तो इन प्रधानों-वरधानों की क्या मजाल जो काबू में नहीं आते"...

"और नहीं तो क्या?"... 
"उनमें बाँटने के लिए देसी की पेटियाँ तो हम पहले से ही मँगवा के रख लेते थे अपने गोदामों में"...
"देसी?" मैँ मुँह बिचकाता हुआ सा बोला 
"हाँ भाई!...'देसी'".....
"इंग्लिश आप अफफोर्ड नहीं कर सकते या... मैंने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया
"अरे नहीं!...ऐसी कोई बात नहीं है...अफफोर्ड तो मैं अंग्रेज़ी के बाप को भी आसानी से कर सकता हूँ लेकिन इन स्सालों की औकात ही नहीं है इसकी"...
"क्या मतलब?...फ्री में मिले तो मुझ जैसे डीसंट लोग शैम्पेन को भी ताड़ी की तरह डकारने लगते हैं?" अपनी औकात पे हमला होता देख मैं पूरी तरह भड़क चुका था...
"शांत!...गदधारी भीम...शांत...इतना काहे को भड़कता है?"...
"अरे!..कमाल करते हैं आप भी...इस तरह सरेआम अपनी अस्मिता पे हमला होते देख मैं भड़कूँ नहीं तो और क्या करूँ?" मैं लगभग सफाई सी देता हुआ बोला...
"ओह!...इटस नोट ए बिग थिंग...दरअसल क्या है कि ...इन हरामखोरों को इंगलिश पचती नहीं है आसानी से...इसलिए ऐसा कहा"...
"ओह!...
"पागल कहीं के...कहते हैँ कि..."बोहत आहिस्ता-आहिस्ता चढती है बाबू...सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है " 
"बात तो आपकी सही है लेकिन गधों को और घोड़ों को ...सभी को आप एक ही फीते से कैसे नाप सकते हैं?...सभी एक ही थैली चट्टे-बट्टे थोड़े ही हैं?"मेरे स्वर में आक्रोश का पुट साफ़ दिखाई दे रहा था"...
"ओह!...मी मिस्टेक...मुझे डग और अल्सेशियन में फर्क रखना चाहिए था"..
"बिल्कुल!...कुछ एक तो मेरी तरह के ठेठ मोलढ़ होते हुए भी 'इंग्लिश' को भरपूर एंजॉय करते हैं"...
"सही कहा तुमने...लेकिन चंद ऐसे गिने-चुने नमूनों के लिए बाकी सारी जमात के साथ भेदभाव तो नहीं किया जा सकता ना?"...
"बात तो आप सही कह रहे हैं लेकिन क्या हम जैसे चंद गिने-चुने उच्च कोटि के पियक्कड़ों के लिए कुछ न कुछ अलग से अररंगेमेंट किया जाना जायज़ नहीं है?"..
"लेकिन जो बीत गया...सो बीत गया....उसके लिए अब किया ही क्या जा सकता है?"...
"अरे वाह!...वर्तमान बिगड़ रहा है तो क्या?...भविष्य तो अपने ही हाथ में है ना?"...
"क्या मतलब?"..
"उसे तो सँवारा ही जा सकता है"...
"लेकिन कैसे?"...
"हम जैसों को 'इंग्लिश' की पेटी उपलब्ध करवा के"...
"हें...हें...हें...वैरी फन्नी "...
"जी!...वो तो मैं शुरू से ही....मेरी बीवी भी यही कहती है"....
"ठीक है!...तो फिर बीती ताही बिसार के मैं आगे बढ़ते हुए अब आगे की सोचता हूँ और इस बार के इलैक्शन में पहले से ही कुछ खास लोगों के लिए दो-नम्बर का माल तैयार करवा लूँगा आर्डर पे" मेरे चेहरे के भावों से अनभिज्ञ नेताजी अपनी रौ में बोलते चले गए  ... 
"तैयार करवा लेंगे?...आर्डर पे?...मैं कुछ समझा नहीं...ज़रा खुल के बताएं"... 
अब नेताजी चौकन्ने हो इधर-उधर देखने के बाद आहिस्ता से बोले..."अरे यार!...दो-नम्बर का माल माने ...  'बोतल असली...माल नकली' ...
"लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है?...
"माल नकली?" मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था 
"अरे बेवाकूफ!...बोतल से असली माल सिरिंज के जरिए बाहर और सिरिंज से ही नकली माल अन्दर" 
"ओह!..लेकिन क्या अपने खास बंदों के साथ ऐसी धोखाधड़ी करना आपको शोभा देता है?"..मैं पूरी तरह उखड़ चुका था  
"अरे!...नहीं-नहीं ...तुम समझे नहीं...तुम जैसे कुछ खास गिने-चुने बन्दो के लिए डाइरैक्ट फैक्ट्री से ही खालिस माल मँगवा लूँगा "नेताजी मानों लीपापोती सी करते हुए बोले  
"लेकिन वो तो काफी मँहगा पड़ेगा ना?"मैं भी अनजान बनने की कोशिश करता हुआ बोला...
"अरे यार!...ये सब मँहगा होता है तुम जैसों सिम्पल लोगों के लिए...हमारे लिए नहीं"...  
"क्या मतलब?...दाम तो सबके लिए एक ही होता है...कोई भी खरीदे"...
"अरे!...नहीं रे..तुम लोगों के लिए देसी...देसी ही होता है और अपने लिए क्या 'देसी' और क्या विलायती?...सब बराबर"...
"क्या मतलब?...आपके लिए देसी और विलायती में कोई फर्क ही नहीं होता है"...
"बिल्कुल"...
"लेकिन कैसे?"मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था
"अरे यार!...डाइरैक्ट फैक्ट्री से ही निकल आता है अपना माल...बिना एक्साइज़ ड्यूटी के"नेताजी फुसफुसाते हुए से बोले  
"ब्ब्...बिना एक्साइज़ ड्यूटी के?".. 
"हाँ यार!...एक अफसर को जो अन्दर होने से बचा दिया था एक बार.....पट्ठा आज तक नहीं भूला.....फुल रिगार्ड करता है अपना ...यारी जो हो गयी अपनी उसके साथ"... 
"लेकिन यारी हर किसी की कहाँ हो सकती है?" मैँ उदास मन से बोला 
"क्यों?...अगर कृष्ण और सुदामा की हो सकती है...मेरी और तुम्हारी हो सकती है...तो तुम्हारी..उसकी .. क्यों नहीं?"नेताजी मुझे हिकारत भरी नज़र से देखते हुए प्रतीत हुए...
गुस्सा तो इतना आ रहा था कि अभी के अभी मुँह तोड़ दूँ स्साले का लेकिन व्यावसायिक मजबूरी के चलते मुझे सिर्फ मनमसोस कर रह जाना पड़ा ...ऊपर से अनजान बनते हुए बोला "कहाँ वो राजा भोज और कहाँ मैं गंगू तेली?"..
"अरे!..होने को तो सब कुछ हो सकता है....बस पैसा फैंको और तमाशा देखो"
"हम्म!...बात तो सही कह रहे हैं आप" मैँ ऐसे मुण्डी हिलाता हुआ बोला जैसे सब कुछ समझ आ गया हो लेकिन कुछ शंकाए मन में ग्लेशियर कि बर्फ की भाँति जम चुकी थी और उनके पिघले बिना मुझे चैन नहीं पड़ने वाला था ...इसलिए बिना किसी लाग-लपेट के मैंने पूछ ही लिया कि...

"पिछली बार तो अपोज़ीशन वालों का ज़ोर था ना?...फिर आप और आपके साथी कैसे जीत गये?".. 
"अरे!..ये ज़ोर-वोर सब बे-फिजूल...बे-मतलब की बातें हैँ इनका भारतीय राजनीति के पटल पे कोई मतलब नहीं..कोई स्थान नहीं"....
"क्या मतलब?....ये सब बेकार कि बातें हैं?..इनका असलियत से कोई सरोकार नहीं?".. 
"बिल्कुल नहीं"...
?...?..?..?..?..
"असल मुद्दा ये नहीं होता कि किसका ज़ोर चल रहा है इलाक़े में?...असल मुद्दा ये होता है कि...तमाम धींगामुश्ती के बाद आखिर में जीता कौन?....और अंत में जीते तो हम ही थे ना?"नेताजी मेरा मुँह ताकते हुए बोले... 
"ओह!..बात तो आप सोलह आने दुर्रस्त फरमा रहे है लेकिन ये कमाल आपने कैसे कर दिखाया?"मेरे चेहरे पे छायी उत्सुकता हटने का नाम नहीं ले रही थी   
"अब यार!...तुम तो जानते ही हो कि अपुन को जवानी के दिनों से ही दण्ड पेलने का बड़ा शौक था" 
"जी!...ये तो मोहल्ले का बच्चा-बच्चा जानता है लेकिन उससे होता क्या है?"... 
"सो!...दिन भर अखाडे में ही पडे रहते थे"....
"ओ.के"... 
"बस!...वहीं अपनी यारी आठ-दस छटे हुए पहलवानों से हो गयी"...
"तो?"..
"उन्हीं का इस्तेमाल किया और  मार लिया मैदान"अपनी इस उपलब्धि से वशीभूत नेताजी गर्व से फूले नहीं समा रहे थे 
"हुंह!...मैं नहीं मानता"....
"क्या मतलब?"...
"वो 'एम.एल.ए' का चुनाव था कोई ‘R.W.A’ का नहीं कि ज़रा सी उठा-पटक से मार लिया मैदान"...
"R.W.A?…माने?"...
"'रेसिडेंट वेलफेयर असोशिएशन'"...
"मैं तुम्हारी बात का मतलब नहीं समझा"...
"महज़ आठ-दस पहलवानों से इतने बड़े इलैक्शन में भला किसी का क्या उखड़ा होगा?"चेहरे पे असमंजस के भाव लाता हुआ मैँ बोला 
"गुड क्वेस्चन!...सही कह रहे हो...इतने बड़े इलैक्शन में आठ-दस सूरमाओं से तो किसी का बाल भी बांका नहीं होना था"...
"तो फिर?"... 
"इन सबके भी अपने-अपने लिंक होते हैँ यार...उन्हीं के जरिए और भी मँगवा लिए पड़ोसी शहरों से ठेके पे...आखिर!...पड़ोसी भला किस दिन काम आएंगे?"...
"काम आएंगे?"... 
"यार!...सीधा सा हिसाब है ....'इस हाथ दे और उस हाथ ले' का.. जब उनको काम पड़ता है तो इन्हें बुलवा लिया जाता है और जब इन्हें ज़रूरत आन पड़ती है तो वो सर के बल दौड़े चले आते हैं"...
"ओह!..लेकिन आप तो कह रहे थी कि ठेके पे?"मेरे स्वर में असमंजस साफ़ दिखाई दे रहा था 
"हाँ!...भय्यी हाँ...ठेके पे...अब घड़ी-घड़ी कौन हिसाब रखता फिरे कि....
  • कितनों की टांगे तोड़ी और कितनों के सर फ़ोड़े?...
  • कितनो को पीट-पाट के अस्पताल पहुँचाया? और ...
  • कितनों को सरेआम शैंटी-फ्लैट किया? 
"लेकिन इन सारे कामों में तो अलग-अलग महारथ के लोगों की आवश्यकता होती है...तो फिर रेट वगैरा कैसे फिक्स करते थे?"... 
"हर काम का अलग-अलग रेट होता है जैसे...
टांग तोडने के इतने पैसे  और... मुँह तोडने के इतने पैसे'... हाथ-पैर अलग-अलग तोड़ने के और एक साथ तोड़ने के इतने पैसे ...धमकाने के इतने पैसे वगैरा...वगैरा " 
"और बूथ-कैप्चरिंग के और बोगस वोटिंग के ?"मैने सवाल दाग दिया 
"ये की ना तुमने हम नेताओं जैसी बात...कहीं मेरी ही वाट लगाने का इरादा तो नहीं है?" ..
"ही...ही...ही....जी मेरी क्या औकात तो मैँ आपके सामने सैकण्ड भर को भी ठहर सकूँ"मैँ खिसियानी हँसी हँसता हुआ बोला 
"हम्म!...फिर ठीक है"नेताजी का संतुष्ट जवाब...  
"हाँ!...तो बात हो रही थी 'बोगस वोटिंग' और 'बूथ कैप्चरिंग की"... 
"जी".. 
"तो यार...इन सब के लिए तो अलग से पैकेज देना पडता है कि...इस इलाके के लिए इतने खोखे और उस इलाके के लिये इतने खोखे"...
"ओह!...लेकिन उन्हें कैसे पता होता है की किस इलाक़े में कितने लुडकाने पड़ेंगे?..और किस इलाक़े में कितने?"..

"स्सालों ने पूरा सर्वे किया होता है कि फलाने इलाके में ...इतने पटाखे फोडने पड़ेंगे और फलाने इलाके में इतने"... 
"खोखे?" मेरा मुँह खुला का खुला ही रह गया... 
"और तुम इसे क्या दस-बीस पेटी का खेल समझे बैठे थे?"... 
"ज्जी!...
"अरे!...पच्चीस-पचास से तो मेरे 'पी.ए' की भी दाढ गीली नहीं होती है तो अपना तो सवाल ही पैदा नहीं होता" 
"ओह!...
अब मुझे हर तरफ खोखे ही खोखे दिखाई दे रहे थे...दिल रह-रह कर ख्वाब देखने लगा था कि...कब मैं छूटूँ और कब कूद पड़ूँ मैँ भी इस खेल में?... 
आखिर!...खोखों का सवाल जो था..
***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja
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शनिवार, 23 जनवरी 2010

वे नेता जी की पिस्तौलें सौंपना चाहते हैं राष्ट्र को!

नेताजी के सचिव रहे ८९ वर्षीय त्रिलोक सिंग चावला थाईलैंड में रहते हैं. उन्होंने आज भी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की दो पिस्तौलें सहेज कर रखी हैं. वे इस अमानत को भारत सरकार को सौंपना चाहते हैं. 
उन्होंने इस संबंध में बात करने के लिए अपने बेटे को भारत भेजा था. संतोष सिंग ने विगत दो हफ़्तों से प्रधान मंत्री से मिलने की कोशिश की है ताकि इन दोनों पिस्तौलों को भारत सरकार को सौंप कर अपने पिता की अधूरी ख्वाहिशों को पूरा कर सके. 
त्रिलोक दोनों पिस्तौलों कोल्ट-३२ और ऍफ़ एन-६३५ अपने साथ रखते हैं. वह इन हथियारों की रोज पूजा भी करते हैं. उन्होंने अपने बेटे संतोष सिंग को मनमोहन सिंग जी से मुलाकात करने के लिए भेजा है उल्लेखनीय है की २३ जनवरी को नेताजी की ११३ वर्षगांठ है. 
त्रिलोक सिंग जी  का कहना है कि नेताजी चाहते थे कि ये दोनों पिस्तौलें लाल किले में लौटा दी जाए. इन हथियारों को सौपने के आठ दिन बाद ही एक विमान हादसे में उनके निधन की खबर आई. मैं नहीं मानता की नेताजी हमारे बीच नहीं हैं और मैं आज तक उनकी राह देख रहा हूँ. परन्तु उम्र बढ़ने के साथ ही चाहता हूँ कि उनकी अमानत राष्ट्र को सौंप देनी चाहिए. वो चाहते हैं कि भारत के लोग इन पिस्तौलों को देखने से वंचित ना रह जाएँ.  

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गुरुवार, 21 जनवरी 2010

इंग्रेजी भाषा, लपटन जी और हमारी दुविधा


ओईसे तो हम बहुते अंग्रेजी पढे , और फ़िर काहे नहीं पढें , ई सोच के पढ लेते हैं कि हम लोग तो खाली अंग्रेजी को झेल रहे हैं , अपने पूर्वज़ लोग तो बेचारे पूरे के पूरे अंग्रेजन राज को और अंग्रेज सब को झेले थे ,बस यही सोच के झेले जा रहे हैं और ठेले जा रहे हैं ।यही परमदुविधा की स्थिति में हम पान के गुमटी पर पहुंच गए । अईसन घोर घडी में हम बचपने से पान के गुमटी पर धरना देते रहे हैं , अरे पान बीडी गुट्खा के लिए नहीं जी बल्कि , वहां लपटन जी से सार्थक विमर्श करने के लिए । लपटन जी की पान की गुमटी पर उपलब्धता की गुंजाईश कम से कम इससे तो जरूर ही ज्यादा रहती थी जितनी कि शरद पवार को चीनी के दाम कम होने की है । सो हम चल दिए लपटन जी से विमर्शियाने ।

लपटन जी , ई अंग्रेजी को लेकर हमरे मन में बहुते दुविधा रहती है कुछ मार्गदर्शन करिए । अच्छा ये बताईए कि , नैसर्गिक उष्मावर्धक पेय पदार्थ (अरे ,दारू यार )के दुकान पर लिखा होता है , यहां अंग्रेजी भी मिलती है ........जबकि नीचे लिखा होता है देसी ठेका । बडा ही धर्म संकट है भाई , लपटन जी कुछ प्रकाश डालिए न ।

यार तुम लोग भी न एकदम अनाडी ही रहे । अब इसमें तुम्हारा कोई कसूर भी नहीं है लगाते तो हो नहीं तो दुविधा तो बनी ही रहेगी न । देखो उस देसी ठेके से जब कोई वो लेता है न ,,,अरे दारू यार ...तो कुछ पैग मारने के बाद किस भाषा में बात करने लगता है ......अंग्रेजी में । ....फ़िश फ़्लैट ,,दिस दैट, ढिंग टिलुम , ट्विंग टैंग ......और भी । अंग्रेजी भी ऐसी कि अंग्रेजों के बाप भी न समझ पाएं । समझे कि नहीं ,..इसलिए देसी ठेके पर मिलने वाली से अंग्रेजी ........मिल जाती है ।

अच्छा लपटन जी ये मान लिया , है तो मेरे घर की बात , मगर फ़िर भी आपसे पूछ लेता हूं । घर पे श्रीमती जी पढती हिंदी का अखबार भी नहीं , मगर जोर देती हैं कि अंग्रेजी वाला भी चालू कर लो, काहे ...हम समझ नहीं पाते हैं ।

हा हा हा लो ई कौन भारी बात है , अरे झा जी , दु रुपैय्या में एतना रद्दी इकट्ठा हो जाता है , ई फ़ैसिलिटी अंग्रेजी अखबार में ही तो होता है , समझे कि नाहीं ॥

अच्छा छोडिए ई सब और नयका खबर सुनिए ,विंडोस का नया एक दम फ़्रेश पंजाबी वर्जन आया है

उसका शब्दावली देखिए आप झाजी

सेंड (send ) ......... इन पंजाबी ..........सुट्टो

फ़ाईंड (find ) ............." ..........................लब्बो

डाऊनलोड (download ) ........................थल्ले लाओ ।

डिलीट (delete )....................................मिट्टी पाओ ।

Ctrl +Alt+Del ........................................स्यापा ही मुकाओ ॥

पूरा कोर्स करते ही बताएंगे, आना आप भी , सुने झाजी , अरे ई लोगों को भी कह दीजिए न , सुन रहे हैं न

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सोमवार, 18 जनवरी 2010

सर्दी की लहर में एक चर्चा मदक कलि और मंहगाई

नसों को हिला देने वाली सर्द हवाएं चल रही थी . करीब एक हफ्ते से पान नहीं खाया था ....यह फ़िल्मी गाना ओ मदकक्ली ओ मदककली गुनगुनाते हुए पान की दुकान पर पहुँच गया . तो पानवाला बड़ा खुश हो गया जैसे कोई मुर्गा हलाल होने पहुँच गया हो .

बनियो की आदत के मुताबिक मुस्कुराकर बोला - बाबू आज बड़ी मस्ती में दिख रहा हो ..आज का बात है .....

मैंने कहा ख़ाक मस्ती कर रहा हूँ . ठण्ड इतनी पड़ रही है की मुंह अपने आप फड़कने लगता है और तुम समझ रहे हो की मै गाना गुनगुना रहा हूँ . अरे उस मंहगाई रूपी मदक कलि की बात करो जो सबको मटक मटक कर हलाकान कर रही है . तुम्हें मालूम है इस फिल्म के डायरेक्टर केन्द्रीय मंत्री पावर साब है . अरे पान वाले एक ज्योतिष ने इनके बारे में यहाँ तक कह दिया है की पवार जी को ये वाला मंत्री नहीं होना था . ये वाले का अर्थ है दाल रोटी वाला विभाग का मंत्री . हर तरफ से ओले पड़ रहे है बस वे फ़िल्मी डायरेक्टर की तरह कह देते है की अभी मंहगाई की फिल्म और चलेगी.

पानवाले ने टोककर कहा - अरे इन बुढऊ को कोई भी विभाग दे दो इनके बस में अब कुछ नहीं है अब इन्हें इस उम्र में अपने घर के नाती पोतो को खिलाना चाहिए .

मैंने कहा - यार पानवाले तुम भी बड़ी मीठी मीठी बात करत हो जिससे तुम्हारी पान की दुकान खूब चलें . पान तो मीठा खिलाते हो पर पान में चूना बहुत डाल देते हो तो पान खाने की इच्छा नहीं होती है .

पान वाला था बनिया प्रवृति का ताड़ गया की ये ग्राहक महाराज खिसक लेंगे फिर कभी न आएंगे इसीलिए चेप्टर को फ़ौरन बदल कर बोला - महाराज वो लंगोटा नन्द महाराज नहीं दिख रहे है . कभी उनसे मुलाकात होती है की नहीं ?

मैंने कहा - हाँ पिछले सप्ताह हिमालय पर थे अकेले एक लंगोट पर थे अधिक ठण्ड खा रहे थे . शायद लंगोटी में सिगड़ी बांध कर बैठे होंगें और यह कहते हुए मुश्कुराते हुए मैंने पान की दुकान से अंतिम बिदा ली...

आलेख व्यंग्य - महेंद्र मिश्र
जबलपुर वाले की कलम से

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