बोया पेड़ बबूल का
***राजीव तनेजा***
चेहरा उदास हो चला था और माथे से पसीना रुकने का नाम नहीं ले रहा था…कंपकपाते हुए हाथों से फोन को वापिस रख मैँ निढाल हो वहीं सोफे पे धम्म जा गिरा|सोच-सोच के परेशान हुए जा रहा था कि क्या होगा?....कैसे होगा?...कैसे मैनेज करुंगा सब का सब? कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि क्या किया जाए? और कैसे किया जाए? बार-बार ऊपरवाले को याद कर यही प्रार्थना किए जा रहा था कि काश!…ये होनी टल जाए किसी तरह|उनका आना कैंसल करवा दे भगवान|इक्यावन!… पूरे इक्यावन रुपए का प्रसाद चढाउंगा|सच ही तो कहा है किसी नेक बन्दे ने कि …”जब आफत लगी टपकने...तो खैरात लगी बटने"
अन्दर ही अन्दर सोच रहा था कि पहले काम तो बने ...फिर देखुंगा कि 'इक्यावन' का चढाऊँ के 'इक्कीस' का?..या फिर 'ग्यारह' में भी क्या बुराई है आखिर? भोग ही तो लगाना है बस। बाकी पाड़ना तो उसे अपुन जैसे हाड-माँस के इनसानों ने ही है।सो!....कुछ कम या ज़्यादा से क्या फर्क पडने वाला है?वैसे भी पत्थर की मूरत को क्या खबर कि 'देसी' की खुशबू क्या है और 'डाल्डा' कि क्या?
हाँ!...मुझ पागल को ही फोन उठाना था उनका...मति तो मेरी ही मारी गयी थी ना जो फ्री इनकमिंग के लालच में चार-चार फोन लगवा डाले और रौब झाडने के चक्कर में मामाजी को उन सभी के नम्बर थमा बैठा।अब एक पैसा प्रति सैकैंड का कॉल हो तो बंदा तो बेवाकूफी कर ही बैठेगा ना?सो!...मैँ भी कर बैठा।इसमें कौन सी बड़ी बात है?क्या ज़रूरत पड़ गई थी मुझे इतनी जल्दी उनका एहसान उतारने की?अच्छे-भले मुम्बई में बैठे-बैठे 'राज ठाकरे' के आंतक का मज़ा ले रहे थे...लगने देता उनकी वाट...मेरा क्या जा रहा था?.. लेकिन नहीं...पागल कुत्ते ने काटा था ना मुझे जो मैँ उन्हें उसके ताप से बचने के लिए कुछ दिन दिल्ली में आ हमारे साथ...हमारे घर में बिताने की युक्ति सुझा बैठा।सुनते ही बांछे खिल उठी थी उनकी...उसके बाद तो लगे दे पे दे फोन करने लगे एक के बाद एक...मुझे तभी समझ जाना चाहिए था कि बेटा राजीव...तू तो गया काम से...अब भुगत...
अब अगर किसी बन्दे से अनजाने में कोई गलती हो भी गई तो बच्चा समझ के माफ कर दो उसे...ये क्या कि उसकी बात को गाँठ में बाँध..पत्थर की लकीर समझ लो और पड़ जाओ हाथ थो के उसके पीछे? अपने...खुद के..सगे वालों का ही तो बच्चा है... कोई पराई औलाद तो नहीं कि ले बेटा...तू ये भी और वो भी?...
उफ!..अब स्साला...एक फोन ना उठाओ तो मिनट से पहले दूजे की घंटी बज उठती है....दूजा ना उठाओ तो तीजे पे और तीजा ना उठाओ तो चौथा गला फाड़ चिंघाड़ने लगता है।मैँ तो तंग आ गया हूँ इन मुसीबत के मारे मोबाईल फोनों से।स्सालों!...ने एक पैसा पर सैकेंड का पंगा डाल पंगू बना डाला पूरी इनसानी जमात को।पहले कितना अच्छा था ना कि रीचार्ज ना करवाओ तो पट्ठे तुरंत ही लाईन कट कर डालते थे कि..."ले बेटा!...हो जा आज़ाद... कोई तंग नहीं करेगा अब"
और अब?...अब भले ही जेब में इकलौती चवन्नी गुलाटियाँ मार कलाबाज़ियाँ खाने में शर्म महसूस कर रही हो लेकिन फोन वही ढीठ का ढीठ....सुसरा...चालू का चालू...बन्द होना तो जैसे भूल ही गया हो।अब इसे ...बैलैंस हो ना हो से कोई फर्क नहीं पड़ता।किसी को गोली देने लायक भी तो नहीं छोड़ा पट्ठों ने कि...."भैय्या मेरे...'फोन' में बैलैंस नहीं था....सो!..बन्द हो गया...कैसे बात करता आपसे?"
अच्छा झुनझुना थमाया है पट्ठों ने ये लाईफ टाईम वाला ...पता भी है इस संसार में हर चीज़ नश्वर है...हमारे...आपके ...सबके समूचे कुल ने नाश हो जाना है एक दिन... लेकिन इन्हें अकल हो तब ना...कोई जा के इनसे पूछे तो सही कि "क्या ज़रूरत थी इनको मोबाईल की लाईफ अनलिमिटिड करने की?"...."डॉक्टर ने ऐसा करने को कहा था या फिर कमाई हज़म नहीं हो रही थी?"...अगर नहीं हो रही थी तो मुझसे से कहते..मैँ काम आ जाता तुम्हारे...अपना चुपचाप आपस में मिल बाँट के खा लेते और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होती लेकिन वो कहते हैँ कि देवर को नहीं ....भले ही खूंटे से....
खैर!...लाईफ अनलिमिटिड कर दी..सो कर दी...जब चिड़िया चुग गई खेत तो अब किया ही क्या जा सकता है? लेकिन कोई मुझे बताएगा कि क्या ज़रूरत पड़ गई थी इन्हें कॉल रेट कम करने की?...बेवाकूफ के बच्चे!...इतना भी नहीं जानते कि कॉलें सस्ती करने से भी लोगों की नीयत में फर्क नहीं पड़ता।मिस्ड कॉल मारने वाले तो अभी भी मिस्ड कॉलें ही मार रहे हैँ ना? कि ले बेटा!..अपना काम तो कर दिया हमने...अब तू भी अपना कर्तव्य निभा" ...
"स्साले!...दुअन्नी छाप कहीं के"...
"पैसे कौन भरेगा?...तुम्हारा बाप?"...
"कान खोल के सुन लो सब के सब...पैसे पेड़ पर नहीं उग रहे मेरे और ना ही मेरा बाप कोई चलता मिल छोड गया है कि... "ले बेटा ...तू उड़ा...मौज कर...मैँ हूँ ना"..
"अब अगर कोई लडकी मिस्ड काल करे तो बात समझ में भी आती है कि लिपिस्टिक-पाउडर के लिए पैसे बचा रही होगी और फिर उनका फोन हम उठाएँ भी तो किस मुँह से?...शर्म नहीं आएगी हमें?...
गर्ज़ जो अपनी है कि कहीं पट्ठी नाराज़ हो के किसी और के साथ ही चोंच लड़ाने में मस्त ना हो जाए।बड़ी ही कुत्ती शै है ये औरत ज़ात भी...इनकी 'हाँ' में भी कहीं ना कहीं 'ना' छुपी रहती है...कोई भरोसा नहीं इनका...हम इस मुगालते में भरी दोपहरी सड़क किनारे खड़े-खड़े काट देते हैँ कि अब आएगी...अब आएगी और बाद में पता खुफिया सूत्रों के जरिए चलता है कि महारानी साहिबा आज किसी नए पंछी के साथ कम्पनी बाग के कोने वाले झुरमुट में कुछ गैर ज़रूरी मसलों पर गुटरगूं करते हुए ज़मीन पे बिछी हुई मखमली खास का बेरहमी से कत्लेआम कर रही थी।...
इसलिए भइय्या!...ये चाहे मिस्ड कॉल करें या फिर फिस्ड कॉल करें और चाहें तो कुछ भी ना करें...हम तो इन्हें ज़रूर फोन करेंगे...बिलकुल करेंगे...डंके की चोट पे करेंगे ..अब ऐतने बुरबक्क तो नहिए हैँ ना हम कि रुपये दो रुपये बचाने की खातिर पूरा लड्डू ही हाथ से गवाँ बैठें?
बस यही बुदबुदाते हुए पता ही नहीं चला कि कब आँख लग गयी।जाने कैसा शोर था? कि मैँ अचानक चौंक के उठ खडा हुआ।वही हुआ जिसका मुझे डर था...मोबाईल ही घनघना रहा था।'डेट'...'कन्फर्म हो चुकी थी उनके आने की।निर्दयी...निर्मोही ऊपरवाले ने एक ना सुनी और कर डाली अपनी मनमानी।लाख माथा फोड़ा उसके आगे लेकिन कोई फायदा नहीं...
"कर ली उसने अपने दिल की पूरी...निकाल ली अपनी भड़ास"...
मैँ तो ऐसे ही मज़ाक-मज़ाक में मज़ाक कर रहा था कि 'इक्यावन' या 'इक्कीस' और इन्होंने झट से बुरा भी मान लिया।भला!...'डाल्डा' का प्रसाद भी कोई चढाने लायक होता है?....जो मैँ चढाता?अब ये क्या बात हुई कि...वो खुद...पूरी ज़िन्दगी हमसे मज़ाक पे मज़ाक करता फिरे तो कोई बात नहीं?...हमने ज़रा सी ठिठोली क्या कर ली,...यूँ मुँह फुला के बैठ गये जनाब जैसे मैने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर डाला हो...पाप कर डाला हो।अच्छी तरह!...अच्छी तरह मालुम है मुझे भी और उन्हें भी कि चलेगी तो उनकी ही....सर्वशक्तिमान जो ठहरे...इसीलिए चौड़े हो रहे हैँ।
हाँ-हाँ!...और चौड़े होओ...खूब चौड़े होओ।इस अदना से बन्दे की रज़ा पूछने की ज़रूरत ही क्या है?...वो लगता ही क्या है तुम्हारा?...और फिर इन्हें फर्क भी क्या पडता है कि इनके राज में कोई मरे या जिए?
इनकी बला से मैँ कल का मरता आज मर जाऊँ...इन्हें कोई फिक्र नहीं...कोई परवाह नहीं।
"हुँह!..खुद तो ऊपर...मज़े से...गद्देदार सिंहासन पे विराजमान बैठे हैँ सबकी ज़िन्दगियों का फैसला करने के लिए और यहाँ?...यहाँ नीचे वालों की कोई चिंता ही नहीं...कोई सुध ही नहीं है जनाब को।
"अरे!...जो आपका काम है...उसे ही मस्त हो के करो ना भाई"..
"काहे को दूसरे के फटे तंबू में अपना बम्बू फँसाते हो?"...
"नेकी करते जाओ और कुँए में डालते जाओ"...बचपन से यही सुनते-सुनते कान पक गए हैँ हमारे।अपनी सीख हमें सिखाते हैँ और खुद ही भूले बैठे हैँ जनाब।पूरी ज़िन्दगी का ठेका इन्होंने ही ले लिया हो जैसे।हर बंदे का हिसाब-किताब ऐसे सम्भाल के रखते हैँ मानो गर्ल-फ्रैंड्ज़ के मोबाईल नम्बर कि...एक भी ना छूट जाए कहीं भूले से भी।
अब फलाने ने ये-ये अच्छा किया और ये-ये बुरा...तुम्हें इससे टट्टू लेना है? अगले की मर्ज़ी ...जो जी में आए...करे लेकिन नहीं!...तुम्हें चैन कहाँ?...बस हर एक के पीछे ही पड़े रहा करो हाथ धो के...और कोई काम-धाम तो है ही नहीं ना तुम्हें?
"ठीक है!...माना कि पैदा करने वाला 'वो'...और मारने वाला भी 'वो' लेकिन ये जो बीच का वक्त है 'ज़िन्दगी' और 'मौत' के...उसे तो अपनी मर्ज़ी से जी लेने दो हमें कम से कम"
"क्या ज़रूरत पड़ जाती है आपको जो ऐसे मुँह उठा के टांग अडाने चले आते हो हमारी निजी ज़िन्दगियों के बीच में?"..
"कोई और काम-धाम है कि नहीं?"मन ही मन 'उसे' कोसते हुए पता ही नहीं चला कि वक़्त कैसे तेज़ी से सरपट दौडे चला जा रहा था। रौंगटे खडे होने को आए थे कि वो भी एक-एक चीज़ का बदला ज़रूर लेंगे।
कोई कसर बाकी नहीं रहने देंगे।आज महसूस हो चला था कि एक ना एक दिन सेर को सवा सेर ज़रूर मिलता है।सही या गलत...सब का हिसाब यहीं...इसी धरती पर ही चुकाना पडता है।ये सब अगला जन्म- वन्म सब बेकार की...बेफिजूल की बातें हैँ।इनका कोई मतलब नहीं...असलियत से इनका कोई सरोकार नहीं।जिसका जैसा मौका लगता है वो वैसा दाव चले बगैर नहीं रहता।अन्दर ही अन्दर मेरा चोर दिल कह रहा था कि आखिर तुमने भी भला कौन सी कसर छोडी थी जो अब उसकी तरफ ऐसे कातर नज़रों से टुकुर-टुकुर ताक रहे हो?...
"क्या अपना खुद का माल होता तो इस बेदर्दी से उडाते?"... "नहीं ना?"...
5 टिप्पणियाँ:
बहुत अच्छा आलेख।
राजीव भाई,
मैंने आपके घर दो-चार दिन के लिए आना है लेकिन आपका मोबाइल लगातार अंगेज आ रहा है...पहले प्रसाद का असर अब तो खत्म हो गया होगा...नहीं तो राबड़ी देवी का लालू प्रसाद है न...
जय हिंद...
राजीव जी-बहुत जोरदार, परसाद अब सवामणी का चढाना पडेगा। खुशदीप जी नये साल से पहले आपके मेहमान होने वाले हैं। हा हा हा
बहुत लंबा हैष शाम को पढ़ता हूँ।
भाई सवामणी मे हमको भी याद कर लेना.
रामराम.
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