अरे बड़े मियां, बचा लिया नहीं तो आज तो इज्जत का फलूदा बन जाता
जौंक कहते हैं न
"क्या-क्या मजा ने तेरे सितम का उठा लिया हमने भी लुफ्ते-ज़िन्दगी अच्छा उठा लिया"
तो जनाब हमने भी बोर्ड परीक्षा के सितम उठाये, दिन रात कमरे में बंद रहे , फ़ोन और गेम्स उठवाकर दूसरे कमरे में रखवा दिए. हमारे वालिद साहब हमसे बड़े खुश नजर आते थे उन दिनों, आखिर निठल्ले ने पढना जो शुरू कर दिया था. वैसे हमारे अन्दर लाख बुराइयाँ वो निकालते हो पर एक अच्छी बात जिसकी वो हमेशा तारीफ करते हैं. जनाब हमें टीवी देखना पसंद नहीं. फिल्मो का शौक तो भारत की हवा में साँस लेते ही समां गया था पर टीवी से हमेशा बचके रहे हम. इसके पीछे भी एक कहानी हैं जिसे हम चाहे तो दो पंक्तियों में सुना दे या उपन्यास में बदल डाले.
दिसंबर से मार्च तक तो बोर्ड परीक्षा में डूबे रहे फिर अप्रैल, मई परिणाम का इंतजार किया. इस बार तो अँधेरे में तीर मार ही दिया. सुबह सुबह साइकिल पर चढ़कर साइबर कैफे में परिणाम देखने गया. दिमाग अपनी चालें चल रहा था और दिल अपना ढोलक बजा रहा था. खैर टकलू राम को रोल नंबर वाला परचा दिया और उसने बोर्ड की वेबसाईट पर उसे डाला. अब आप दिल्ली की सडको से गुजरे और आपको जाम न मिले तो समझना किसी पुण्यात्मा के दर्शन करे हैं अपने. वही हाल यहाँ था. दूसरे computers पर वेबसाइट खुल नहीं रही थी, अपने मामले में तो दो सेकंड में परिणाम निकल दिया. ऑंखें मल ली, ३-४ थप्पड़ भी जमा लिए, कहीं जन्नत में तो नहीं पहुच गए. पहली दफा ज़िन्दगी में इतने नंबर आये थे.
इतना खुश हो गया कि साइकिल उठा कर न जाने किस तरफ भागा और १०-१२ किलोमीटर चलाने के बाद ही रुका. फिर होश आया तो घर आया. अब्बूजान को खबर दी. कहा--अब आप वादा पूरा करिए. हाँ ठीक हैं कर देंगे पहले यह लो.
पांच सौ के चार हरे पत्ते. अब तो बस पूछिए मत. हम तो बस यही बोले उस वक़्त
"यह न थी हमारी किस्मत कि विसाले-यार होता, अगर और जीते रहते, यही इंतजार होता"
बस जल्दी से नहाया, दोस्तों को फ़ोन लगाया और चल दिए नशे में हम. जो मन में आया खाया, जहाँ मन में आया घुमे. फिर एक मियां ने फ़रमाया ---- क्यूँ न जबरदस्त पार्टी हो जाये???. आज सब अमीर थे, दिल से भी और जेब से भी.
मुफलिसी के दिन गए यारों और हम पहुचे दिल्ली के एक मशहूर और महंगे रेस्तरां में. आज तक कभी नहीं आये थे सो महाराज इस दुनिया की तहजीब और अदा से बेखबर हम सबने चिकन की टाँगे तोड़ी. आसपास के लोग हमारी तरफ यूँ घूर के देख रहे थे जैसे हम चाँद से उतर कर जमीं पर आयें हो. हम भी तो हैवानो की तरह चिकन लोलीपोप और चिकन सलामी ठूंस रहे थे.
बगल की टेबल पर बैठे एक मियां बड़े गौर से हमें देख रहे थे. उम्र और तजुर्बे दोनों में बड़े जानकर मालूम होते थे. ऊपर से एक ग़ज़ल भी चल रही थी......
अहिस्ता अहिस्ता हम चिकन को सलाम कर रहे थे, हमारी तहजीब का आफताब पूरे रेस्तरां को चमका रहा था.बड़ी मशहूर ग़ज़ल हैं और मुझे बहुत अच्छी भी लगती हैं सो मैं भी लता जी और किशोर कुमार का साथ देने लगा. बड़े मियां को बहुत अच्छा लगा. उन्होंने एक प्यारी सी मुस्कान हमारी तरफ फेंकी. इतने में वेटर महाराज एक थाली लेकर आये जिसमे कुछ कटोरियाँ थी. टेबल पर कटोरियाँ रखीं गयी. दोस्त बोले यार --- यह डीश तो हमने मंगवाई ही नहीं. कटोरियों में गरमपानी और कटा हुआ निम्बू डाला हुआ था. हमने निम्बू को पानी में निचोड़ दिया और बस लबों से लगाने ही वाले थे कि बड़े मियां कुछ बोलते हुए हमारी तरफ आये. वो हमारे पास आये और कान में बोले ---- यह पीने के लिए नहीं, हाथ धोने के लियें हैं.
अरे बड़े मियां, बचा लिया नहीं तो आज तो इज्जत का फलूदा बन जाता हलाकि रबड़ी तो हम बना ही चुके थे. नहीं तो ग़ालिब का यह शेर बिलकुल सही फिट हो जाता
निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन बहुत बे-आबरू हो कर तेरे कुचे से हम निकले
8 टिप्पणियाँ:
कोई बात नही बड़े मियाँ हर जगह मिल ही जाते हैं,
इज्जत का फ़ालुदा बनने से पहले पहुँच ही जाते है।
हा हा हा
अब और किसी से ना कहना
ये बातें अपने दिल मे रखना।
हा हा हा
आभार
mast wali baat hai ji,
maja aa hi gaya hota bas...
kunwar ji,
.nice
बहुत मस्त.
रामराम.
बहुत सुंदर जी, मजा आ गया , होता है ऎसा हि होता है
अब और किसी से ना कहना
ये बातें अपने दिल मे रखना।
पर कैसे रखें, ठीक किया आपने
यहाँ लिखकर, याद करके हँसते
रहना और हम सब ब्लॉग मित्रों को
भी हंसाते रहना
रोचक ।
बहुत खूब..दिलचस्प.
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'शब्द सृजन की ओर' पर 10 मई 1857 की याद में..आप भी शामिल हों.
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