तलाश भ्रष्ट लोगों की-गिरीश पंकज
गिरीश पंकज
पान ठेले पर उस दिन फोकट का पान खाते हुए नेता जी का मुंह लाल नहीं, काला नज़र आ रहा था. मै समझ नहीं पाया कि ऐसा कैसे हो रहा है. फिर चिंता करने पर दिमाग का बल्ब आखिर जल ही गया कि मालेमुफ्त उडाने वालो के होंठ से लेकर दिल तक सब काले ही काले होते है. फिर ये तो नेता है...खैर, अब मिल ही गए तो नमस्ते कर दिया. मुझे देख कर खिल गए. उनके चमचों ने कान में कुछ कहा, तो नेता जी खिसकने लगे. मैंने फ़ौरन लपक लिया-
' अरे-अरे, कहाँ चल दिए. उमरे अखबार दैनिक खंडन को इन्टव्यू तो देते जाइये. क्या आपको पता है कि अपने देश में सिर्फ आठ करोड़ लोग भ्रष्ट हैं!'' नेता परसादीराम जी से मैंने पूछा
'इस आठ करोड़ में कम से कम मैं तो बिलकुल ही शामिल नहीं हूँ.'' नेताजी फौरन मुसकराते हुए बोले, 'सचमुच, आज देश में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। मैं चाहता हूँ कि देश इससे ऊपर उठे।''
'आठ करोड़ में भी आप शामिल नहीं हैं, यह आश्चर्यजनक सत्य है।'' मैंने तनिक मुसकराते हुए कहा
'मैं आपका इशारा समझ रहा हूँ।'' नेताजी मेरी मुसकान के गूढ़ार्थ को पढ़ गए और बोले- 'लेकिन साफ-साफ बता दूँ कि उस मामले में मेरा कोई हाथ नहीं है।''
'किस मामले की बात कर रहे हैं?'' मैं चौंक पड़ा
'मैं फलाने कांड की बात कर रहा हूँ।'' नेताजी बोले, 'उसमें मेरा नाम जबरन उछाला गया था। मेरे भाई की दूकान में कुछ खरीदी हुई थी, इससे मुझे क्या? लेकिन नहीं, मुझको ही लपेट लिया। इसमें कुछ अफसरों का हाथ है।''
'वैसे तो आपका नाम ब्ल्यू फिल्म रैकेट को बचाने वालों में भी शामिल था?'' मैंने पूछा। मेरे इस प्रश्न पर पाँच सेकेंड तक मौन रहने के बाद परसादीराम बोले-
'अरे भाई, उस मामले में तो मुझे इसलिए कूदना पड़ा कि बेचारे सीधे-सादे लोग थे। एक कमरे में एकत्र होकर सती अनुसूया नामक फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। तुमको तो कहानी पता ही है। ये धार्मिक कार्य था। कपड़े उतारने का सीन था। किसी नास्तिक ने फोन कर दिया कि ब्ल्यू फिल्म बन रही है। बेचारे पकड़े गए, बताइए, ये क्या बात हुई ? मजबूरी में मुझे हस्तक्षेप करना पड़ा। क्या यह भ्रष्टाचार है ?''
'आपकी बात में दम है' मैंने कहा, 'आप जैसे सात्विक नेता आठ करोड़ की सूची में हो ही नहीं सकते। अब तो सीधे-सीधे वीवीआईपी भ्रष्टाचारियों की सूची बननी चाहिए। वैसे आप तो वीआईपी हैं!''
'ये क्या वकीलों टाइप फँसाने वाली भाषा बोल रहे हो?'' नेताजी हड़बड़ाए 'मैं अस्सी फीसदी ईमानदार नेता हूँ, बस। देश का नेता कैसा हो, परसादीराम जैसा हो।''
'मतलब अस्सी फीसदी पाक-साफ हैं' मैंने कहा, 'अच्छा, यही बात अपनी आत्मा पर हाथ रख कर बोलिए।''
परसादीराम जी अपना दिल टटोलने लगे। दाएं-बाएं, ऊपर-नीचे, सब जगह देखने के बाद बोले - 'पता नहीं, इस वक्त मेरी आत्मा कहाँ चली गई है। लगता है कि दंगापीडि़त इलाके में भटक रही होगी। कभी-कभी तो ससुरी राजघाट तक चली जाती है। मैं उस भटक रही आत्मा की कसम खाकर कहता हूँ कि मैं... मैं ईमानदार हूँ।''
मैंने अनेक नेताओं से मुलाकात की, बड़े-बड़े अफसरों से भी बात की। सबने कहा कि हम बेईमान नहीं हैं। मैंने व्यापारियों से चर्चा की। वे भी पाक-साफ थे।
अब सवाल यह उठता है कि आठ करोड़ भ्रष्ट लोगों की सूची में शामिल कौन है ? आखिर में थक हर कर पान ठेले के सामने आ कर खडा हो गया. यहाँ एक से एक फेंकोलाजी वाले भी आते रहते है. कोई तो मिलेगा जो बताएगा कि भ्रष्टों की सूची में अपने इलाके के नेता-अफसर शामिल है, या पडोसी राज्य के? यह सोच का ही नहीं, शोध का विषय भी है।
मैंने रोज लोगों को चूना लगाने वाले पनवाडी भाई से कहा- भाई मेरे, एक ठो पान तो खिलाना, घबराओ मत. ग्राहकी ख़राब नही होगी. हमको देख कर दो-चार लोग आयेंगे और जान नहीं, पान ही खायेंगे.
पान वाला मनुष्य था. अगला मुस्कराने लगा.
7 टिप्पणियाँ:
गिरीश जी ,
बढ़िया व्यंग है बस पहली ही लाइन में नेता जी की जगह नेनाजी हो गया है !
"मैंने रोज लोगों को चूना लगाने वाले पनवाडी भाई से कहा- भाई मेरे, एक ठो पान तो खिलाना, घबराओ मत. ग्राहकी ख़राब अहि होगी. हमको देख कर दो-चार लोग आ येंगी और जान नहीं, पान ही खायेंगे.
पान वाला मनुष्य था. अगला मुस्कराने लगा."
इन पंक्तियों में भी कुछ अशुद्धियाँ दिख रही है पर शायद वह जान कर है !!
आर्श्चय है, कि आपको लेख में अशुद्धियाँ दिखीं. मैंने दुबारा देखा. वाक्य ठीक है. कहीं अशुद्धियाँ नहीं है. खास कर दो शब्द-ख़राब अहि और आयेंगी. ब्लॉग में बिलकुल ठीक है- नहीं और आएंगे. उधर दिख रहा है अहि और आएँगी...? कमाल है. यह भी व्यंग्य में व्यंग्य हो गया.
गिरीश भैया, शिवम जी द्वारा कही गयी वर्तनी की अशुद्दियां थी जिसे अलाद्दीन का जिन्न रात मे ही ठीक कर गया था, आप सो गये थे इसलिए आपको पता नहीं चला,हे ईश्वर सबका काम ऐसे ही जिन्न कर जाये। बधाई ये भी बहुत बड़ा व्यग्य हो गया।
सचमुच, जिन्न भले होते है. भूत बदमाश होते है. जिन्नातों के बारे में सुना भर था. आज उनका काम देख भी लिया. चलो जिन्न को धन्यवाद. उसका ऐसा सारा ललित-काम जारी रहे.
गिरीश भाई!..ये क्या?...एक ही व्यंग्य दो-दो बार छप गया है इसी ब्लॉग पर
मेरी पहली टिप्पणी उस वाली पोस्ट पर है...
शिवम मिश्रा जी ने उसी पर गलती पकड़ी होगी और इस पर टिपिया दिए हैँ :-)
इस तरह तो कमैंट बँट जाएँगे भाई...
कहीं दो अलग-अलग गुट तो नहीं बना दिए हैँ कि एक पे हिन्दुत्ववादी और दूसरे पे वामपंथी आ के टिपियाएँ?
वाह! बहुत खूब! क्या लिखा है! ब्लौग का टाइटल तो बहुतै लाजवाब है!
ललित भाई काफी हिरदे ला छू लेने वाला व्यंग्य
लिखे हौ आप. वैसे आज मैं समझथों दूध के धोये
(अरे अब दूध घलो कहाँ शुद्ध मिलथे) तो बहुते कम मिलही. मैं हा अपन ढाक के तीन पात वाले शीषर्क माँ लिखे हौं थोकिन एखर बारे माँ. महू मनखे आवं अपनों गलती ला स्वीकारे हौं. लेकिन एक ठन बात कैहूँ के जनता हा घलो आजकल अपन सुभीता ला पहिली देखथे उदाहरण कहूँ लाइन माँ खड़े होए के नौबत आगे जैसे बिजली बिल नगर निगम त सोचथे ले भैगे बाबु ला काहीं कुछु दे दे त काम जल्दी हो जाही ये नियम कायदा माँ रहिबे त होगे कब मोर नंबर आही के नई आही. त इहाँ ले शुरू होथे ये फंडा हा.
मोर कहे के मतलब हे
जनता ल घलो होए बर परही जागरूक
देखौ फेर कैसे नई जाहि ये शिष्टाचार हा रुक
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