मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

इंसानों का आधुनिक बाजार

आज हर जगह

इंसानों का आधुनिक बाजार बन गया है

इस बाजार में

इंसान-इंसान का ही

व्यापार कर रहा है

बिठाकर अपना बेटा बाजार में

हर बाप उसका मौल कर रहा है

और

लगाकर बोलियां बेटी का

मजबूर बाप

अपना घर-बार भी बेच रहा है

कोई मजबूर भाई

अपना ईमान भी बेच रहा है

दहेज के लोभी

इंसानों के सामने अपना सर रगड़ रहा है

दहेज की आग

हर बेबस बाप

मर-मर कर जी रहा है

कुछ भी कर रहा है

पर

अपनी बेटी का घर बसा रहा है

मगर

फिर भी ये अन्याय हो रहा है

घर-घर में

मजबूर बापों की बेटियों

का दामन जल रहा है

हर घर में

आज मौतम का मातम मन रहा है

और

हमारा अंधा कानून

हमेशा की तरह

अपनी आंखें बंद किए सो रहा है

4 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari 8 दिसंबर 2009 को 7:37 am बजे  

बहुत विचारोत्तेजक रचना...

देवेन्द्र पाण्डेय 8 दिसंबर 2009 को 11:58 pm बजे  

चलिए हम इस बाजार को जलाकर राख कर दें शुरूवात अपने घर से ही करें...
कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ
जो घर फूंके आपणा चले हमारे साथ।

राजीव तनेजा 9 दिसंबर 2009 को 10:36 pm बजे  

सामाजिक कुरीति की ओर इंगित करती सामयिक रचना

बेनामी 21 मार्च 2011 को 2:34 pm बजे  

Samaj me Dahej Lobhio Ka Asli Chehra Dikhati Rachna aur Majboor Ladki Ki Family Ke Log. Bahut Badhiya, Kuch to Shayad Logo Me Sudhar Ho Is Rachna Ko Padhkar.
Regards
Rajender Singh
Sub-Editor
Meerut Report
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