रविवार, 29 नवंबर 2009

छत्तीसगढ़ की एक झलक


मण्डप में एक ओर गाँव की स्त्रियाँ बैठी थीं जिनमें सुहागिने, विधवा, बच्चियाँ सभी थीं। रंग-बिरंगी साड़ियाँ पहने सुहागिनों के मांग में सिंदूर की मोटी नारंगी रंग की रेखायें थीं और हाथों में चूड़ियाँ। विभिन्न गहनों से उन्होंने अपना श्रृंगार कर रखा था - कानों में 'खिनवा', बाहों में 'बँहुटे' या 'नागमोरी', कमर में चांदी के 'करधन' और पावों में काँसे या चांदी की 'पैरियाँ'। विधवायें सफेद रंग की साड़ियाँ पहने थीं और किसी-किसी के हाथ में चांदी का 'चुरुवा' था क्योंकि इस क्षेत्र के रिवाज के अनुसार वे चुरुवा के सिवा अन्य कोई गहना नहीं पहनतीं।
अकती त्यौहार के शुभ अवसर में खुड़मुड़ी गाँव में रात्रि को 'बाँस-गीत' का विशेष आयोजन किया गया था।

अक्षय तृतीया, जिस दिन भगवान परशुराम का जन्म हुआ था, को इस भू-भाग में 'अकती' त्यौहार के रूप में मनाते हैं। इसी दिन से खेती-किसानी का वर्ष प्रारम्भ होता है। इसी दिन पूरे वर्ष भर के लिये नौकर लगाये जाते हैं। शाम के समय हर घर की कुँआरी लड़कियाँ आँगन में मण्डप गाड़कर गुड्डे-गुड्डियों का ब्याह रचाती हैं।

'दैहान' (गाँव का मैदान) में मण्डप तान दिया गया था। उसके भीतर-बाहर रंग-बिरंगे कागजों का तोरण और झण्डियाँ बाँधी गई थीं। रात को लगभग साढ़े नौ या दस बजे से मण्डप में लोगों का जमाव शुरू हुआ। मालगुजार दीनदयाल के घर से गैसबत्ती लाकर जलाई गई थी जिसके उजाले में पूरा मण्डप जगमगा रहा था।

मण्डप में एक ओर गाँव की स्त्रियाँ बैठी थीं जिनमें सुहागिने, विधवा, बच्चियाँ सभी थीं। रंग-बिरंगी साड़ियाँ पहने सुहागिनों के मांग में सिंदूर की मोटी नारंगी रंग की रेखायें थीं और हाथों में चूड़ियाँ। विभिन्न गहनों से उन्होंने अपना श्रृंगार कर रखा था - कानों में 'खिनवा', बाहों में 'बँहुटे' या 'नागमोरी', कमर में चांदी के 'करधन' और पावों में काँसे या चांदी की 'पैरियाँ'। विधवायें सफेद रंग की साड़ियाँ पहने थीं और किसी-किसी के हाथ में चांदी का 'चुरुवा' था क्योंकि इस क्षेत्र के रिवाज के अनुसार वे चुरुवा के सिवा अन्य कोई गहना नहीं पहनतीं।

वहाँ उपस्थित सारे लोग बाँस-गीत सुनने के लिये उतावले हो रहे थे और मालगुजार दीनदयाल का इंतिजार कर रहे थे। इसी समय दीनदयाल मण्डप में आये। उनके आसन ग्रहण करने पर 'बाँस-गीत' टोली ने अपनी तैयारी की। लाखन और पचकौड़ अपनी बाँस की बनी तीन साढ़े-तीन फुट लम्बी 'बाँस बाजा' लेकर तैयार बैठ गये। रंजन और मिलउ गाने के लिये और अमोली बीच-बीच में 'हुँकार' करने के लिये संभल कर बैठ गये। इन पाँचों की टोली खुड़मुड़ी और उसके आस-पास के सभी गाँवों में 'बाँस-गीत' के लिये प्रसिद्ध थी।

रंजन और मिलउ ने एक स्वर में गाना शुरू किया -

दाई तो गये मोर दूध बेचन बर ददा गये दरबार,
भइया तो गये भउजी लेवाये बर, दउड़व नोनी भेड़ा गोहार।
नदिया भीतर के बारु-कुधरी, पैरी खवोसत चले जाय,
चूरा अउ पैरी ला ओली में धर लव, दउड़व नोनी भेड़ा गोहार॥

पद समाप्त होते ही अमोली ने जोर से मधुर हुँकार भरी - 'हुँ-हुँ-हुँ-होऽऽऽ-'। हुँकार के साथ ही लाखन और पचकौड़ ने एक साथ ही बाँस-बाजा को ऊपर-नीचे करते हुये, गाल फुलाकर जोरों से फूँकना शुरू किया। बाँस-बाजा से भारी किन्तु मधुर स्वर में उपरोक्त पद से मेल खाती हुई ध्वनि निकल कर पूरे मण्डप में गूँजने लगी। लोग तन्मय होकर बाँस-गीत को सुनने तथा उन गीतों में निहित कथाओं का आनंद लेने लगे। क्रम से एक के बाद एक कई कथानक सुनाये गये। एक कथा और दूसरे कथा के बीच थोड़ी देर का, 'चिलम' और 'चोंगी' पीने के लिये, विश्रामकाल होता था।

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया के उपन्यास "धान के देश में" से एक अंश)

2 टिप्पणियाँ:

निर्मला कपिला 29 नवंबर 2009 को 9:24 am बजे  

बहुत सुन्दर झलक है लाज़िमी है उपन्यास भी बहुत सुन्दर होगा अवधिया जी को बधाई आपका भी धन्यवाद्

दिनेशराय द्विवेदी 29 नवंबर 2009 को 5:24 pm बजे  

बहुत सुंदर प्रकरण है। निश्चित रूप से उपन्यास रोचक होगा।