बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

अलख निरंजन

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

sadhu-01-500

***राजीव तनेजा***

 

 

 

 

 

 

 

 

"अलख निरंजन! बोल. ..बम....बम चिक बम। अलख निरंजन....टूट जाएं तेरे सारे बंधन" कहकर बाबा ने हुंकारा लगाया और इधर-उधर देखने के बाद मेरे साथ वाली खाली सीट पर आकर बैठ गया। पूरी ट्रेन खाली पड़ी है, लेकिन नहीं, सबको इसी डिब्बे में आकर मरना है। बाबा के फटेहाल कपड़ों को देखते हुए मैं बड़बड़ाया। सबको, मेरे पास ही खाली सीट नज़र आती है। कहीं और नहीं बैठ सकता था क्या? मैं परे हटता हुआ मन ही मन बोला, कहां जा रहे हो बच्चा? मेरी तरफ देखते हुए पूछा। 'पानीपत', मेरा अनमना सा संक्षिप्त जवाब था। डेली पैसैंजर हो? जी! मेरा बात करने का मन नहीं हो रहा था।
जानता था कि सब एक नम्बर के ढोंगी हैं, पाखंडी हैं, इसलिए दूसरी तरफ मुंह करके खिड़की से बाहर ताकने लगा। काम क्या करते हो? रेडीमेड दरवाजे-खिड़कियों का काम है। ना चाहते हुए भी मैंने जवाब दिया। कहां इस कबाड़ के धन्धे में फंसा बैठा है वत्स? तेरा चेहरा तो कोई और ही कहानी कह रहा है। मेरी दुखती रग पर हाथ रखने की कोशिश थी यह। तेरे माथे की लकीरें बता रही हैं कि राज योग लिखा है तेरे भाग्य में। राज करेगा तू, राज। राज वाली बात सुनकर आस-पास बैठे यात्रियों का ध्यान भी बाबा की तरफ हो लिया। मैं मन ही मन हंसा कि सही ड्रामा है, पब्लिक को बेवकूफ बनाने का। किसी एक को लपेट लो, बाकी अपने आप खिंचे चले आएंगे। यहां खाने-कमाने को नहीं है और ये राज योग बता रहा है। हुंह!
वही पुराने घिसे-पिटे डायलॉग, कोई नई बात बताओ बाबा! मैं बोला, पता नहीं कब आएगा ये राजा वाला योग। मैं मन ही मन बुदबुदाया। अपना हाथ तो दिखाओ ज़रा। ये नहीं, दाहिना हाथ। मैंने भी पता नहीं, क्या सोचकर हाथ आगे बढ़ा दिया। तेरे हाथ की रेखाएं बता रही हैं कि तेरी आयु बडी लंबी है। पूरे सौ साल जिएगा। यह तो मालूम है मुझे। सभी कहते हैं कि शैतान का नाम लो और शैतान हाजिर, मेरा जवाब था। हुंह! यहां मन करता है कि अभी ट्रेन से कूद पड़ूं और यह मुझे लम्बी उम्र का झुनझुना थमाने की जुगत में है। मैं मन में विचरता हुआ बोला। मेरे चेहरे पर आते-जाते भावों को देख बाबा बोला, परेशान ना हो बच्चा! जहां इतना सब्र किया है वहां दो-चार साल और ठंड रख। राम जी भला करेंगे। चिंता ना कर, तेरा अच्छा समय आने वाला है। सही झुनझुना थमा रहे हो बाबा। यहां खाने-कमाने के लाले पड़े हैं और आप हो कि दो चार साल बाद का लॉलीपॉप थमा रहे हो। ताकि ना रुकते बने और ना ही चूसते बने। बिना बोले मुझसे रहा न गया।
यहां चिंता इतनी है कि सीधे चिता की तैयारी चल रही है। प्यासा प्यास से ना मर जाए कहीं, इसलिए मुंह में पानी आने का जुगाड़ बना दिया कि बेटा, इंतज़ार कर। अभी तक अच्छा समय आने का इंतज़ार ही तो कर रहा हूं और क्या कर रहा हूं? मैं बुदबुदाया। ना जाने कब आएगा अच्छा समय, मैंने उदास मन से सोचा। आज ये बाबा कह रहा है कि दो-चार साल इंतज़ार कर। कल को कोई दूसरा बाबा भी यही डायलॉग मार देगा, मैं बड़बड़ा उठा। फिर दो-चार साल और सही। बस यूं ही कटते-कटते कट जाएगी ज़िन्दगी, मैं अन्दर ही अन्दर ठण्डी आह भरता हुआ बोला।
मेरी देखादेखी और लोग भी हाथ दिखाने जुट गए कि बाबा, मेरा हाथ देखो बाबा! पहले मेरा देखो। देख बाबा देख, जी भर कर देख, आंखे फाड़-फाड़कर देख। सभी को लॉलीपॉप चाहिए, थमा दे। तुम्हारे बाप का क्या जाता है, मै मुंह फेरकर आहिस्ता से हंसता हुआ बोला। शश्श! टी.टी आ रहा है, जिलानी साहब पर नज़र पड़ते ही मैंने कहा। टी.टी का नाम सुनते ही मजमा लगाई भीड़ कब छंट गई पता भी नहीं चला। जिलानी साहब अपने दल बल के साथ आ पहुंचे थे। टिकट? टिकट दिखाइए। मैं? मेरे साथ बैठा बन्दा सकपका गया। हां, तुम। तुम्हीं से बातें कर रहा हूं। सर एम.एस.टी। सुपर चढ़ा है? जी, जी सर। दिखाओ? एक मिनट! एक मिनट सर, लीजिए सर। हम्म, यहां साईन कौन करेगा? निकालो तीन सौ बीस रुपये। सर, गलती से रह गया साईन करना। अभी कर देता हूं। पहले तीन सौ बीस निकालो, बाद में करते रहना साईन-वाईन। प्लीज़ सर! इस बार छोड़ दीजिए, प्लीज़। आईन्दा ध्यान रहेगा। देख लो इस बार तो छोड़ देता हूं, पर अगली बार अगर सुपर चढ़ा नहीं मिला तो पूरे तीन सौ बीस रुपये तैयार रखना।जी सर।
बहुत दिन हो गए तुमसे भी इंट्रोडक्शन किए हुए, मेरी तरफ ताकते हुए जिलानी साहब बोले। जी, जी सर। वो! मेरे उस काम का क्या हुआ? जिलानी साहब पलटकर पीछे आते अनुराग से बोले। जी, कैंटीन बन्द थी ना सर, 26 जनवरी के चक्कर में। एक दो दिन में ला दूंगा सर। ध्यान रखना अपने आप, मेरी आदत नहीं है बार-बार टोकने की। जी! जी सर। आपका टिकट? जिलानी साहब 'मलंग बाबा' की तरफ मुखातिब होते हुए बोले, पर कोई जवाब नहीं। आपसे पूछ रहा हूं जनाब, टिकट दिखाइए। हम? हम बाबा हैं। फिर, क्या करूं? जिलानी साहब ने तल्खी भरे स्वर में कहा। हम इस मोह-माया के बन्धनों से आज़ाद हैं बच्चा। अच्छा? जिलानी साहब भी तुक मिलाते हुए बोले। ये फालतू की बातें छोड़ो, सीधे-सीधे टिकट दिखाओ। मैंने कहा ना टिकट दिखाइए? जिलानी साहब तेज़ आवाज़ में बोले।
किससे? किससे टिकट मांग रहे हो बच्चा? आपसे। जानते नहीं, हम कौन हैं? आप जो कोई भी हैं, मुझे मतलब नहीं। बस आप टिकट दिखाएं। फालतू बात नहीं। अगर है तो दिखाते क्यों नहीं? मैं भी भड़क उठा। नहीं है, तो तीन सौ बीस रुपए निकालें। जिलानी साहब रसीद बुक संभालते हुए बोले। हां, टिकट तो नहीं है हमारे पास। कभी लेने की ज़रूरत ही नहीं समझी होगी ना? मैं बोल पड़ा। किसी ने कभी रोका ही नहीं हमें कभी। आज तो रोक लिया ना? टी.टी गरम होता हुआ बोला। आप सीधी तरह से पैसे निकालें, इतना वक्त नहीं है।
वक्त तो बच्चा, सचमुच तेरे पास नहीं है। बाबा जिलानी साहब के माथे को गौर से देखते हुए शांत स्वर में बोले- शनि तेरे सर पर मंडरा रहा है। राहू केतु पर सवार चला आ रहा है। जल्दी से उपाय कर ले, वर्ना पछताएगा। जो होगा देखा जाएगा, आप बस जल्दी से पैसे निकालो। मुझे पूरी गाड़ी चेक करनी है। जिलानी साहब की आवाज़ सख्त हो चली थी। टी.टी साहब अड़कर खड़े हो गए कि इस बाबा से पैसे वसूल कर ही रहेंगे। बहस खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। ना बाबा मानने को तैयार, ना जिलानी साहब झुकने को तैयार और आग लगाने के लिए तो मैं काफी था ही। मज़ा जो आता था इन सबमें। तमाशा देखने वालों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। एक टिकट में दो-दो मज़े जो मिल रहे थे। सफर का सफर और एंटरटेन्मेंट भी।
बहस चल ही रही थी कि सोनीपत आ गया। अगर आप पैसे नहीं देंगे तो मुझे जबरन आपको यहीं उतारना पड़ेगा, जिलानी साहब गुस्से से बोल पड़े। तू! तू उतारेगा मुझे? जी हां, मैं उतारूंगा आपको। जिलानी साहब अपनी बेल्ट कसते हुए दृढ़ आवाज़ में बोले। सब! सब हिसाब देना पड़ेगा तुझे। आज तूने मलंग बाबा का अपमान किया है, बाबा की नशेड़ी आंखें गुस्से से लाल हो चुकी थी। चला जा चुपचाप यहां से, वर्ना घोर अनर्थ हो जाएगा। तूने ईश्वर का अपमान किया है, मुझसे टिकट मांगता है? तेरी औकात ही क्या है? बाबा गुस्से से थर-थर कांपते हुए बोले।
तेरे जैसे छत्तीस मेरे आगे-पीछे घूमते हैं, हमेशा। बाबा आसपास इकट्ठे हुए मजमे को देखते हुए बोले। मुझे गुस्सा ना दिला, कहे देता हूं, वर्ना पछ्ताएगा। टिकट और मुझसे? ये! ये तू ठीक नहीं कर रहा है। मेरा काम है आप जैसे मुफ्तखोरों को पकड़ना और मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि मैं अपनी ड्यूटी ठीक से बजा रहा हूं। जिलानी साहब गुस्से से चिल्लाए। अब देख तमाशा। देख, कैसे मैं तुझे श्राप देता हूं। फिर ना कहना कि बाबा ने पहले चेताया नहीं। कहते हुए बाबा ने आवेशित होकर अपने झोले में हाथ डाला और जय काली कलकत्ते वाली का जाप करते हुए पता नहीं क्या मंतर पढ़ा और मुट्ठी को जिलानी साहब के चेहरे पर फूंक दिया।
कुछ राख-सी उड़ी और अपने टी.टी साहब का मुंह धूल से अटा पड़ा था। उतारो साले इस पाखंडी बाबा को, उनका गुस्सा भड़क उठा। हमको उतार सके, ये तुझमें दम नहीं। तू हमारे से है, हम तुमसे नहीं- बाबा गुस्से में भी शायरी करता-सा नज़र आया। तेरी इतनी औकात नहीं कि तू मुझे उतार सके। अच्छा? जिलानी साहब उपहास उड़ाते हुए बोले। देखता हूं, मुझे लिए बिना यहां से गाड़ी कैसे हिलती भी है? कहते हुए बाबा गाड़ी से उतरा और तेज़ी से इंजन की तरफ लपका। वो आगे-आगे और मुझ समेत सारी पब्लिक पीछे पीछे। पब्लिक को तो बस मसाला मिलना चाहिए, चाहे जैसे भी मिले। पूरा इंजॉय करती है, सो मैं भी कर रहा था।
इंजन तक पहुंचते ही बाबा सीधा छलांग लगाकर ड्राइवर के केबिन में जा घुसा और झोले से वही राख मंत्र पढ़कर फूंकना शुरू हो गया। ये क्या कर रहा है बेवकूफ? ट्रेन रोककर केबिन से बाहर निकलकर ड्राईवर चिल्लाया। शश्श....चुप, एकदम चुप और बाबा का मंत्र पढ़ना जारी था। तब तक बाहर भक्तजनों का रेला-सा हाथ जोड़ खड़ा हो चुका था। अंधविश्वासी कहीं के। कुछ नहीं होने वाला है। सब टिकट न लेने से बचने का ड्रामा भर है। मैं सबको कहता फिर रहा था, लेकिन कोई मेरी सुनने को तैयार ही नहीं। देखते ही देखते उस अधनंगे से मलंग बाबा को पता नहीं क्या सूझा कि सीधा छलांग मारकर पटरी पर आया और इंजन के सामने आकर खड़ा हो गया। अब देखता हूं कि कैसे तनिक सी भी हिलती है गाड़ी? है हिम्मत तो चला गाड़ी, वह जिलानी साहब को चैलेंज करता हुआ बोला। तूने बाबा का प्यार देखा है, क्रोध नहीं। गुस्से से टी.टी की तरफ देखते हुए बाबा बोला।
ईश्वर से! ईश्वर के बन्दों से टिकट मांगता है! तुझे इस सबका हिसाब देना होगा। आज ही और यहीं, इसी जगह पर। कहकर बाबा ने फिर वही राख इंजन की तरफ फूंकनी शुरू कर दी। कोई समझाओ यार इसे, बेमौत मारा जाएगा, टी.टी साहब भीड़ की तरफ मुखातिब होते हुए बोले। सब चुप, कोई टी.टी की बात पर ध्यान नहीं दे रहा था। ग्रीन सिग्नल दिखाई नहीं दे रहा क्या? जिलानी साहब ड्राईवर पर बरसे। जी! तो फिर चलाता क्यों नहीं? जी, ये बाबा...। बाबा गया तेल लेने, तू गाड़ी चला। टी.टी की भाषा भी अभद्र हो चली थी। चढ़ा दे गाड़ी, इस पर। लिख देंगे कि आत्महत्या करने चला था। आ गया अपने आप नीचे। हम क्या करें? चिंता ना कर, गवाही मैं दूंगा। चला गाड़ी। साहब, पता नहीं क्या खराबी आ गई है, स्टार्ट ही नहीं हो रहा है इंजन। तो, बन्द ही क्यों किया था? जिलानी साहब भड़कते हुए बोले। मैंने कहां बन्द किया? तो फिर क्या कोई भूत-प्रेत आकर इसे बन्द कर गया? जी, ये तो पता नहीं। कई बार कोशिश कर ली, लेकिन पता नहीं क्या बीमारी लग गई है इसे। ड्राईवर इंजन को लात मारता हुआ बोला। घूं घूं की आवाज़ सी आती है और फिर ठुस्स। अभी तक तो अच्छा-भला चलता आया है, दिल्ली से। ड्राईवर की आवाज़ में असमंजस भरा था।
पता नहीं क्या चक्कर है? उधर दूसरी तरफ भीड़ के बढ़ते हुजूम के साथ-साथ बाबा का ड्रामा भी बढ़ता ही जा रहा था। कभी इधर भभूती फूंके, कभी उधर। जब ग्रीन सिग्नल होने के बावजूद ट्रेन अपनी जगह से नहीं हिली तो स्टेशन मास्टर साहब दौड़े-दौड़े तुरंत आ पहुंचे। अरे चला ना इसे, चलाता क्यों नहीं? कब से ग्रीन सिग्नल हुआ पड़ा है, दिखाई नहीं दे रहा है क्या? अपनी तो तुझे चिंता है नहीं, मेरी भी नौकरी खतरे में डलवाएगा? पीछे शताब्दी आ रही है, निकाल इसे फटाफट। अपने बस का नहीं है, आप खुद ही कोशिश कर लो। ड्राईवर तैश में गाड़ी से उतरता हुआ बोला। आखिर, हुआ क्या है इसे? पता नहीं, अपने आप इंजन बन्द हो गया।
देख, कोई वायरिंग-शायरिंग ना हिल गई हो। स्टेशन मास्टर की आवाज़ नरम पड़ चुकी थी। सब देख लिया साहब, कहीं कोई खराबी नहीं दिख रही। ड्राईवर का वही रटा-रटाया सा जवाब। इतने में खबर पूरे सोनीपत स्टेशन पर फैल गई और बाबा की जय, बाबा की जय के नारे लगाते लोग उसी प्लैटफॉर्म पर इकट्ठा होने शुरू हो गए। हां, इस बाबा ने केबिन के अन्दर आकर कुछ फूंका और इंजन अपने आप बन्द हो गया, ड्राईवर बाबा की तरफ इशारा करता हुआ बोला। आखिर चक्कर क्या है? पता नहीं साहब। किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा है। सब इसी टी.टी. का किया धरा है। ना ये टिकट मांगता और ना ही ये लफड़ा होता, एक बोल पड़ा। तो क्या, अपनी ड्यूटी करना छोड़ दें? मैं भड़क उठा। तो अब करवा ले ना आराम से ड्यूटी। हुंह, बड़ा तरफदारी करने चला है, वह चिल्लाया।
उफ, पहले से ही ट्रेन सवा दो घंटे लेट है, ऊपर से ये ड्रामा। पता नहीं, कब चंडीगढ़ पहुंचेगी? एक सरदार जी परेशान होकर घड़ी देखते हुए बोले। कोर्ट में तारीख है आज की। नहीं पहुंचा, टाइम पर तो समझो प्लॉट गया हाथ से। वे रुआंसे होकर बोले। बड़ा पहुंचा हुआ महात्मा है, एक बोला। एक झटके में ही ट्रेन रोक दी, कमाल है। दूसरे ने हां में हां मिलाई। अरे, महात्मा नहीं अवतार कहो अवतार, किसी तीसरे की आवाज़ सुनाई दी। कोई पहुंचा हुआ फकीर मालूम होता है, एक और चहक उठा। अगर ऐसा है तो टिकट नहीं ले सकता था क्या? मैं फिर बोल पड़ा, चुप हो जा एकदम। परेशान सरदार जी मुझे गुस्से से घूरते हुए बोले। इतना ठुकेगा कि ज़िन्दगी भर याद रखेगा। एक पंगा खत्म होने को नहीं है और तू दूसरे की तैयारी किए बैठा है।
सबको अपने खिलाफ देखकर, मन मसोस कर मुझे चुप हो जाना पड़ा। जबतक टी.टी. माफी नहीं मांगेगा, तबतक ये बाबा गाड़ी नहीं चलने देगा। एक आवाज़ सुनाई दी, सही है बड़ा अड़ियल बाबा है। अपने टी.टी. साहब भी कौन-सा कम हैं? एक बार अड़ गए सो अड़ गए। मेरा इतना कहना था कि सबकी गुस्से भरी आंखे मुझे तरेरने लगी। एक काम करो, तुम ही माफी मांग लो यार स्टेशन मास्टर टी.टी. की तरफ देखते हुए बोले। मैं क्यों? मैं तो अपनी ड्यूटी कर रहा था।
अरे यार, देख तो लिया करो कम से कम कि किस से पंगा लेना है और किस से नहीं। ये क्या कि गधे-घोड़े सभी एक ही फीते से नाप दो, स्टेशन मास्टर साहब बोले। देख नहीं रहे कि सब कितने परेशान हो रहे हैं? आखिर क्या गलत किया है मैंने? जिलानी साहब तैश में बोले। अरे बाबा, कुछ गलत नहीं किया। बस खुश? टी.टी. की बात काटते हुए स्टेशन मास्टर साहब बोले। अब किसी भी तरह से चलता करो इस मुसीबत को, स्टेशन मास्टर की आवाज़ में मिमियाहट थी। कैसे? जो मर्ज़ी, जैसे मर्ज़ी करो लेकिन ये गाड़ी यहां से निकल जानी चाहिए अभी के अभी। वर्ना, समझ लो अपने साथ-साथ कईयों की नौकरी ले बैठोगे, स्टेशन मास्टर साहब गुस्से से बोले।
समझा कर यार! अगले महीने रिटायर हो रहा हूं और कोई पंगा नहीं चाहिए मुझे। इनक्वायरी बैठ गई तो समझो लटक गया मेरा फंड, मेरी पेन्शन। स्टेशन मास्टर साहब सहमे-सहमे से बोले। पता नहीं कैसे मैनैज करूंगा सब। बेटी की शादी करनी है, डेट फाईनल हो चुकी है। कार्ड तक बंट चुके हैं। अपनी अड़ी के चक्कर में मेरा जुलूस ना निकलवा देना, प्लीज़। अच्छा! आप ही बताइए, क्या करूं मैं? पांव पड़ूं क्या उसके? हां, हां ये ठीक रहेगा। कोई बोल पड़ा। मना लो यार, किसी भी तरीके से स्टेशन मास्टर बोले।
ना चाहते हुए भी जिलानी साहब को बाबा से माफी मांगनी पड़ी। अब तो मैं क्या मेरे बाप की तौबा, जो आईन्दा कभी किसी साधू या मलंग के मत्थे भी लगा। जिलानी साहब खुद से ही बातें करते हुए आगे निकल गए। मुझे किसी पागल कुत्ते ने काटा है, जो मैं नाहक पंगा मोल लेता फिरूं। उनका बड़बड़ाना जारी था। माफी मांगने से बाबा का गुस्सा शांत हो चुका था। मंत्र बुदबुदाते हुए उन्होंने अपने थैले से कुछ निकाल फिर इंजन की तरफ फूंक दिया।
हां, तो भइया ड्राईवर, अब तुम खुशी से ले जा सकते हो अपना छकड़ा, लेकिन मुझे ले जाना नहीं भूलना। हा...हा...हा मुझ समेत, सभी की हंसी छूट गई। ड्राईवर ने खटका दबाया और कमाल ये कि बिना कोई ना नुकुर किए इंजन एक ही झटके में स्टार्ट। अवाक से सबके मुंह खुले के खुले रह गए। हर कोई हक्का-बक्का। आश्चर्य भाव सभी के चेहरे पर तैर रहे थे। बाबा की जय हो, मलंग बाबा की जय हो- इन आवाज़ों से पूरा माहौल गूंज उठा। आंखे देख रही थीं, कान सुन रहे थे, लेकिन दिमाग को मानो विश्वास ही नहीं हो रहा था। और होता भी कैसे? कोई विश्वास करने लायक बात हो तब तो। लेकिन आंखों देखी को कैसे झुठला देगा राजीव? असमंजस भरी सोच में डूबा मैं चुपचाप अपनी सीट पर आ गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये सब हुआ तो कैसे हुआ।
सारे तर्क-वितर्क फेल होते नज़र आ रहे थे। ये जादू-वादू कुछ नहीं होता है। सब हाथ की सफाई, आंखों का धोखा है जैसी बचपन में सीखी बातें मुझे बेमानी-सी लगने लगी थी। कहीं हिप्नोटाईज़ ना कर दिया हो बाबा ने पूरी पब्लिक को। शायद, मैं खुद ही सवाल पूछ रहा था और खुद ही जवाब दे रहा था। शायद, कोई सुपर नैचरल पावर हो बाबा के पास। या कहीं सचमुच में कोई देवता, कोई अवतार तो नहीं है ये बाबा? इन जैसे सैंकड़ो सवाल बिना किसी वाजिब जवाब के मेरे दिमाग के भंवर में गोते लगाने लगे थे।
ये सारा चक्कर मुझे घनचक्कर किए जा रहा था। इतनी शक्ति, इतनी पावर एक आम इंसान में? हो ही नहीं सकता। क्या आज भी इतनी ताकत, इतना दम है मंत्रोचार में? कभी सोचा ना था। ऐसे किस्से तो मानो या न मानो, सरीखे टीवी-सीरियलों में ही देखे थे आज से पहले। सब फ्रॉड है, सब धोखा है। दिमाग मुझे इस सारे वाक्यों पर विश्वास करने से मना कर रहा था। लेकिन अगर सब फ्रॉड, सब धोखा है और छलावा मात्र है तो यकीनन बाबा की दाद देनी होगी कि कैसे उन्होंने सबकी आंखे फाड़ती नज़रों के सामने खुली आंखों से काजल चुरा लिया। जरूर कुछ ना कुछ चमत्कार, कुछ ना कुछ कशिश तो है ही बाबा में, मन बाबा की तारीफ करने लगा था। मैं हक्का-बक्का सा बाबा को ही टुकुर-टुकुर निहारे चला जा रहा था। उनके चेहरे पर तेजस्वी ओज सा चमकने लगा था।
उफ! मैं नादान समझ नहीं पाया उनको। अनजाने में भूल से पता नहीं कैसा-कैसा मज़ाक उड़ाता रहा। अब अपने किए पर पछतावा होने लगा था मुझे। ये ज़बान कट के क्यों ना गिर गई, उनके बारे में अपशब्द कहने से पहले? बाबा, मुझ अज्ञानी, मुझ पापी को क्षमा कर दो। मैं नास्तिक आपको पहचान नहीं पाया, कहते हुए मैंने बाबा के पांव पकड़ लिए। आंखों से कब अविरल आसुंओ की धार बह चली, पता भी न चला। मेरे चेहरे पर पश्चाताप के आंसू देख बाबा ने उठकर मुझे गले से लगा लिया। कोई बात नहीं बच्चा। बाबा की जय, बाबा की जय हो, इन आवाज़ों में मेरी आवाज़ भी शामिल हो चुकी थी। क्या सोच रहा है बच्चा?
मुझे सोच में डूबा देखकर बाबा ने पूछ लिया। जी कुछ खास नहीं, बस ऐसे ही। मैंने तो सुना था कि ये जादू-शादू कुछ नहीं होता, लेकिन वह ट्रेन...! मेरे चेहरे पर असमंजस का भाव था। सब ईश्वर की माया है बच्चा। लेकिन बाबा, ऐसा कैसे हो सकता है? मेरे चेहरे पर हैरत का भाव था। आंखो देखी पर विश्वास नहीं है, तुझे तो अब कानों सुनी पर कैसे विश्वास करेगा बच्चा? जी ये तो है, लेकिन? कुछ लेकिन, वेकिन नहीं, कहा ना! सब ईश्वर की माया है। बाबा मुझे अपनी शरण में ले लो, अपना दास बना लो कहते हुए मैंने हाथ से अपनी अंगूठी उतार बाबा के चरणों में अर्पित कर दी। हमें कुछ नहीं चाहिए बच्चा। बरसों पहले हम इन मोह माया के बन्धनों से मुक्त हो चुके हैं, आज़ाद हो चुके हैं। बाबा ये कुछ भी नहीं, बस ऐसे ही छोटी सी तुच्छ भेंट समझ कर रख लें।
मुझे तो बस आपका सानिध्य, आपका आर्शीवाद चाहिए। मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताएं? लगता है तुम नहीं मानोगे, जैसी तुम्हारी इच्छा। लेकिन इस छोटी-मोटी फुटकर सेवा से हमारा अभिप्राय पूरा नहीं होने वाला, कहते हुए उन्होंने अंगूठी उठाकर कुर्ते की जेब में रख ली। मेरे चेहरे पर प्रश्न सवार देखकर वह बोले, मैं तो मलंग आदमी हूं। अपने लिए कुछ नहीं चाहिए मुझे। दो जून खाने को मिल जाए और तन ढंकने को एक जोड़ी कपड़ा तो बहुत है मेरे लिए। फिर, मेरा अज्ञान अभी भी दूर नहीं हुआ था। एक छोटी-सी गौशाला बनवा रहा हूं, यही कोई पांच सौ गायों की। साथ में आठ-दस कमरे बनवा रहा हूं धर्मशाला के लिए, आने-जाने वालों के काम आएंगे। यही कोई दस लाख का खर्चा आएगा।
नेक कामों के लिए पैसे की तंगी तो रहती ही है हमेशा। शायद इशारा था उनकी तरफ से ये। बाबा, दान-दक्षिणा की आप चिंता न करें। जो बन पड़ेगा, जितना बन पड़ेगा जरूर मदद करूंगा। आखिर गौ माता की सेवा का सवाल जो है। हम मदद नहीं करेंगे तो कोई बाहर से तो आने से रहा, मैंने कहा। लेकिन बाबा, एक जिज्ञासा है। बोलो वत्स, बाबा ने सौम्य स्वर में पूछा। एक सवाल मेरे मन को खाए जा रहा है बार-बार। मेरा कौतुहल मुझे चैन से बैठने नहीं दे रहा है कि कैसे वह ट्रेन...मैंने बात अधूरी छोड़ दी। मेरी बात सुन बाबा हौले से मुस्काते हुए बोले, अच्छा सुन! पानीपत जाना है ना तुझे? जी! ठीक है स्टेशन आने दे, तेरी सब शंकाओं का निवारण कर दूंगा। अब खुश?
जी, मैं प्रसन्न होकर बोला। वो बेटा, मैंने तुम्हें बताया था ना गौशाला के लिए....। जी, आप बताएं कितने से आपका काम चल जाएगा? दान मांगा नहीं जाता बच्चा, जो तुम्हारी श्रद्धा हो। दो हज़ार ठीक रहेगा? मैं जेब से पर्स निकालता हुआ बोला। तुम्हारी मर्ज़ी। अपने आप देख लो, पुण्य का काम है। ठीक है बाबा, पांच हज़ार दे देता हूं, ये लीजिए। हमें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए बच्चा, सब गौ माता की सेवा के काम आएगा। बाबा पैसे जेब के हवाले करते हुए बोले। मोक्ष क्या है, नाम-दान से क्या अभिप्राय है जैसी ज्ञान-ध्यान की बातों में पता ही नहीं चला कब पानीपत आ गया। बाबा मैं चलता हूं, पानीपत आ गया। ठीक है बच्चा पहुंचो अपनी मंज़िल पर, बाबा मुझसे विदा लेते हुए बोले -अपना ध्यान रखना।
बाबा, बताओ ना कैसे रोक दिया था आपने ट्रेन को? मेरे चेहरे पर बच्चों जैसी उत्सुकता देखकर बाबा मुस्कुराए, सब ईश्वर की माया है बच्चा। ये मेरा विज़िटिंग कार्ड रख लो, दर्शन देने कभी-कभार आ जाया करना हमारे आश्रम में। ईश्वर चन्द मेरा नाम है। ध्यान रहेगा ना? जी ज़रूर, विज़िटिंग कार्ड जेब में रखते हुए मैं बोला। वैसे भी बच्चा जो कोई मुझे एक बार जान लेता है ताउम्र नहीं भूलता है, बाबा की मुस्कान गहरी हो चली थी। आपकी महिमा अपरम्पार है प्रभु। बाबा, वह...। लगता है तुम जाने बिना नहीं मानोगे। अच्छा, कान इधर लाओ। उसके बाद उन्होंने जो कुछ भी मेरे कान में कहा, वह सुनकर मैं हक्का-बक्का सा रह गया। बोलने को शब्द नहीं मिल रहे थे। कानों को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था। यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये सब कैसे हो गया।
विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई मुझे दिनदहाडे पांच हज़ार रुपए नकद और दहेज में मिली सोने की अंगूठी का फटका लगा चुका था। हुआ दरअसल क्या कि जब बाबा, इंजन में ड्राईवर के पास गया तो उसने चुपके से ड्राईवर को पांच सौ का नोट देकर कहा था कि जबतक मैं इशारा ना करूं तबतक गाड़ी रोककर रखनी है। इतनी सिम्पल सी बात, मैं बेवकूफ समझ नहीं पाया। खुद अपनी ही नज़रों से शर्मसार हो जब मैं कुछ समझने लायक हुआ तो पाया कि बाबा आस-पास कहीं न था। अब मैं कभी अपने खाली पर्स को देखता, कभी अंगूठी विहीन अपने हाथ को। सच, वह ईश्वर चन्द का बच्चा अपनी ईश्वरी माया दिखा गया था। सही कह गया था वह ठग बाबा कि उसे एक बार जान लेने वाला ताउम्र कभी भूल नहीं सकता है।

 

***राजीव तनेजा***

5 टिप्पणियाँ:

विनोद कुमार पांडेय 28 अक्तूबर 2009 को 10:34 pm बजे  

ऐसे लोगों से दुनिया भरी पड़ी है ..और जनता भी तैयार रहती है इनका चमत्कार देखने के लिए..बढ़िया चर्चा

36solutions 28 अक्तूबर 2009 को 10:39 pm बजे  

विश्‍वास की सीमायें जब लांघी जाती है तभी अंधविश्‍वास जन्‍म लेता है और इसका परिणाम ऐसा ही होता है।

36solutions 28 अक्तूबर 2009 को 10:40 pm बजे  

विश्‍वास की सीमायें जब लांघी जाती है तभी अंधविश्‍वास जन्‍म लेता है और इसका परिणाम ऐसा ही होता है।

ब्लॉ.ललित शर्मा 29 अक्तूबर 2009 को 7:56 am बजे  

राजीव भाई ! एक बार मैने भी फ़टका खाया है
दिन दहाड़े, वो भी अपने ही घर पे, कभी फ़ुरसत मे बताऊंगा बड़ी मजेदार कहानी है, पर उस दिन के बाद मेरा विस्वास इन पर से उठ गया। आज तक उठा हुआ है, मैं तो लगातार सफ़र मे ही रहता हुं पुरे भारत मे, कदम-कदम पे ऐसे लोग मिल ही जाते हैं, बढिया स्मरण है प्रेरणा दायक,

kavita verma 29 अक्तूबर 2009 को 6:58 pm बजे  

andhvishwason par ek sateek lanat.par in logon ke atmavishvas,logo ki pareshaniyon ko pahachanne ki kshamata ko salam kiya jana chahiye.