सोमवार, 8 नवंबर 2010

बढ़ते सड़क हादसे :एक गंभीर राष्ट्रीय समस्या

                                                                                                         स्वराज्य करुण
    विज्ञान और टेक्नालॉजी जहाँ हमारे जीवन को सहज-सरल और सुविधाजनक बनाने के सबसे बड़े औजार हैं , वहीं उनके अनेक आविष्कारों ने आधुनिक समाज के सामने कई गंभीर चुनौतियां भी पैदा कर दी हैं . बहुत पहले वाष्प और बाद में डीजल और पेट्रोल से चलने और दौड़ने वाली गाड़ियों का आविष्कार इसलिए नहीं हुआ कि लोग उनसे कुचल कर या टकरा कर अपना  बेशकीमती जीवन गँवा दें , लेकिन अगर हम अपने ही देश में देखें तो अखबारों में हर दिन सड़क हादसों की दिल दहला देने वाली ख़बरें कहीं सिंगल ,या कहीं डबल कॉलम में  या फिर हादसे की विकरालता के अनुसार उससे भी ज्यादा आकार में छपती रहती हैं .कितने ही घरों के चिराग बुझ जाते हैं , सुहाग उजड़ जाते हैं और कितने ही लोग घायल होकर हमेशा के लिए विकलांग हो जाते है .सड़क हादसों की दिनों-दिन बढ़ती संख्या अब एक गंभीर राष्ट्रीय समस्या बनती जा रही है.आंकड़ों पर न जाकर अपने आस-पास नज़र डालें , तो भी हमें स्थिति की गंभीरता का आसानी से अंदाजा हो जाएगा .
      तीव्र औद्योगिक-विकास , तेजी से बढ़ती जनसंख्या, तूफानी रफ्तार से हो रहे शहरीकरण  और आधुनिक उपभोक्तावादी जीवन शैली की सुविधाभोगी मानसिकता से  समाज में मोटर-चालित गाड़ियों की संख्या भी बेतहाशा बढ़ रही है . औद्योगिक-प्रगति से जैसे -जैसे व्यापार-व्यवसाय बढ़ रहा है , माल-परिवहन के लिए विशालकाय भारी वाहन भी सड़कों पर बढते जा रहे हैं. ट्रकें सोलह चक्कों से बढ़कर सौ-सौ चक्कों की आने लगी हैं. दो-पहिया ,चार-पहिया वाहनों के साथ-साथ यात्री-बसों और माल-वाहक ट्रकों की बेतहाशा दौड़  रोज सड़कों पर नज़र आती है. सड़कें भी इन गाड़ियों का वजन सम्हाल नहीं पाने के कारण आकस्मिक रूप से  दम तोड़ने लगती हैं . त्योहारों , मेले-ठेलों , और जुलूस-जलसों के दौरान भी बेतरतीब यातायात के कारण हादसे हो जाते हैं .
   शहरों में ट्राफिक-जाम और वाहनों की बेतरतीब हल-चल देख कर मुझे तो कभी-कभी यह भ्रम हो जाता है कि इंसानी आबादी से कहीं ज्यादा मोटर-वाहनों की जन-संख्या तो नहीं बढ़ रही है ? सरकारें जनता की सुविधा के लिए सड़कों की चौड़ाई बढ़ाने का कितना भी प्रयास क्यों न करे , लेकिन गाड़ियों की भीड़ या वाहनों की  बेहिसाब रेलम-पेल से सरकारों की तमाम कोशिशें बेअसर साबित होने लगती हैं . वाहनों के बढ़ते दबाव की वजह से सरकार सिंगल-लेन की डामर की सड़कें डबल लेन ,में और डबल-लेन की सड़कों को फोर-लेन में बदलती हैं . फोर-लेन की सड़कें सिक्स -लेन में तब्दील की जाती हैं . इस प्रक्रिया में सड़कों के किनारे की कई बस्तियों को हटना या फिर हटाना पड़ता है . उन्हें मुआवजा भी दिया जाता है .सड़क-चौड़ीकरण और मुआवजा बांटने में ही सरकारों के अरबों -खरबों रूपए खर्च हो जाते हैं . यह जनता का ही धन है. लेकिन सरकारें भी आखिर करें भी तो क्या ? जिस रफ्तार से सड़कों पर वाहनों की आबादी बढ़ रही है , आने वाले वर्षों में अगर हमें सिक्स-लेन और आठ-लेन की सड़कों को बारह-लेन , बीस-लेन और पच्चीस -पच्चास लेन की सड़कों में बदलने के लिए मजबूर होना पड़ जाए , तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. लेकिन क्या सड़क-दुर्घटनाओं का इकलौता कारण वाहनों की बढ़ती जन-संख्या है ? मेरे विचार से यह समस्या का सिर्फ एक पहलू है. इसके दूसरे पहलू के साथ और भी कई कारण हैं ,जिन पर संजीदगी से विचार करने की ज़रूरत है. आर्थिक-उदारीकरण के माहौल ने  देश में धनवानों के एक नए आर्थिक समूह को भी जन्म दिया है. कारपोरेट-सेक्टर के अधिकारियों सहित सरकारी -कर्मचारियों और अधिकारियों की तनख्वाहें पिछले दस-पन्द्रह साल में कई गुना ज्यादा हो गई हैं. बड़ी-बड़ी निजी कंपनियों में इंजीनियर और अन्य तकनीकी स्टाफ अब मासिक वेतन पर नहीं , लाखों रूपयों के सालाना 'पैकेज' पर रखे जाते हैं .इससे समाज में उपभोक्तावादी मानसिकता लेकर एक  नए किस्म का मध्य-वर्ग तैयार हो रहा है . जिसके बच्चे भी अब दो-पहिया वाहन नहीं , बल्कि चार-चक्के वाली कार को अपना 'स्टेटस' मानने लगे हैं . सरकारी -बैंकों के साथ अब निजी बैंक भी अपने ग्राहकों को वाहन खरीदने के लिए   उदार-नियमों और आसान-किश्तों पर क़र्ज़ लेने की सुविधा दे रहे है . कई बैंक तो गली-मुहल्लों में लोन-मेले आयोजित करने लगे हैं .इन सबका एक नतीजा यह आया है कि जिसके घर में चार-चक्के वाली गाड़ी रखने की जगह नहीं है , वह भी  उसे खरीद कर अपने घर के सामने वाली सार्वजनिक-सड़क .या फिर मोहल्ले की गली में खड़ी कर रहा है और सार्वजनिक रास्तों को सरे-आम बाधित कर रहा है . उधर आधुनिक-तकनीक से बनी गाड़ियों में 'पिक-अप ' और  रात में आँखों को चौंधियाने वाली हेड-लाईट की एक अलग महिमा है .ट्राफिक-नियमों का ज्ञान नहीं होना , हेलमेट नहीं पहनना , नाबालिगों के हाथों में मोटर-बाईक के हैंडल और गाड़ियों की स्टेयरिंग थमा देना , शराब पीकर गाड़ी चलाना जैसे कई कारण भी इन हादसों के लिए जिम्मेदार होते होते हैं .अब तो गाँवों की गलियों में भी मोटर सायकलों का फर्राटे से  दौड़ना कोई नयी बात नहीं है.
   उत्तरप्रदेश के एक अखबार में वाराणसी से छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हर साल जितनी मौतें आपराधिक घटनाओं में होती हैं , उनसे औसतन पांच गुना ज्यादा जानें सड़क हादसों में चली जाती हैं . रिपोर्ट में इसके जिलेवार आंकड़े भी दिए गए है और कहा गया है कि कहीं बदहाल सड़कों के कारण तो कहीं काफी अच्छी चिकनी सड़कों के कारण भी हादसे हो रहे हैं . इसमें यह भी कहा गया है कि अधिकतर हादसे ऐसी सड़कों पर हो रहे हैं , जिनकी हालत काफी अच्छी हैं .ऐसी सड़कों पर वाहन फर्राटे भरते निकलते हैं . फिर इन सड़कों पर यातायात संकेतक भी पर्याप्त संख्या में नहीं हैं . इससे वाहन चलाने वालों को खास तौर पर रात में अंधा-मोड़ या क्रासिंग का अंदाज नहीं हो पाता और हादसे हो जाते हैं . बहरहाल पूरे भारत में देखें तो सड़क -हादसों के प्रति-दिन के और सालाना आंकड़े निश्चित रूप से बहुत डराने वाले और चौंकाने वाले हो सकते हैं .इन दुर्घटनाओं को रोकने और सड़क-यातायात को सुगम और सुरक्षित बनाने के लिए मेरे विचार से तीन  उपाय हो सकते हैं . इनमे से मेरा पहला सुझाव है कि देश में कम से कम पांच साल के लिए हल्के मोटर वाहनों का निर्माण बंद कर दिया जाए.यह सुझाव आज के माहौल के हिसाब से लोगों को हास्यास्पद लग सकता है ,लेकिन मुझे लगता है कि इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है ,क्योकि अब हमारे  देश की सड़कों पर ऐसे वाहनों की भीड़ इतनी ज्यादा हो गयी है कि नए वाहनों के लिए जगह नहीं है .मेरा दूसरा सुझाव है कि मोटर-चालित वाहन खास तौर पर चौपाये वाहन खरीदने की अनुमति सिर्फ उन्हें दी जाए ,जो अदालत में यह शपथ-पत्र दें कि उनके घर में वाहन रखने के लिए गैरेज की सुविधा है और वे अपनी गाड़ी घर के सामने की सार्वजनिक गली अथवा सड़क पर खड़ी नहीं करेंगे . तीसरा सुझाव यह है कि  बड़े लोग भी आम-जनता की तरह  यातायात के सार्वजनिक साधनों का इस्तेमाल करने की आदत बनाएँ ,या फिर सायकलों का इस्तेमाल करें .सायकल एक पर्यावरण हितैषी वाहन है. इसके इस्तेमाल से हम धुंआ प्रदूषण को भी काफी हद तक कम कर सकते हैं . हर इंसान की जिंदगी अनमोल है .सड़क-हादसों से उसे बचाना भी इंसान होने के नाते हम सबका कर्तव्य है. अपने इस कर्तव्य को हम कैसे निभाएं ,इस पर गंभीरता  से विचार करने की ज़रूरत है . 
                                                                                                      स्वराज्य करुण

Read more...

रविवार, 7 नवंबर 2010

दबंगों से भयभीत मानवता !

अमेरिकी राष्ट्रपति  बराक हुसैन ओबामा की तीन दिवसीय  भारत यात्रा के दूसरे दिन की सुबह एक  निजी  हिन्दी टेलीविजन समाचार चैनल ने अपने खास और लाइव कार्यक्रम में कुछ ऐसे शीर्षक भी दिए जो हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान को आहत कर गए .मुझसे रहा नहीं गया और  कुछ मिनटों तक देखने के बाद मैंने टेलीवजन ऑफ कर दिया ,लेकिन यह तय है कि  चैनल का  कार्यक्रम तो ऐसे शीर्षकों के साथ आगे कई घंटों तक चलता और बजता रहा होगा और देश के मान-सम्मान को बार-बार चोट पहुंचाता रहा होगा . ओबामा की भारत यात्रा के महिमा -मंडन के लिए इस चैनल के द्वारा प्रसारित विशेष कार्यक्रम की कुछ सुर्खियाँ ,जो शायद किसी भी देशभक्त भारतीय को विचलित कर सकती हैं , इस प्रकार थीं --
         भारत में दुनिया का दबंग
         दबंग की दीवाली  
 ओबामा के साथ राजस्थान के अजमेर जिले की ग्राम पंचायत कानपुरा के लोगों की वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग पर इस टेलीविजन चैनल की एक हेड-लाईन थी--'दबंग देखेगा गाँव'. महसूस करें तो वास्तव में 'दबंग' एक भय पैदा करने वाला शब्द है . .मानवता इस शब्द से भयभीत हो जाती है . वह दब कर रहती है , जिसे 'दलित' कहा जाता है . क्या अमेरिकी राष्ट्रपति को 'दबंग ' संज्ञा दे कर इस चैनल ने भारत को और हम भारतीयों को अप्रत्यक्ष रूप से 'दलित' साबित करने का प्रयास नहीं किया ?  हिन्दी अखबारों में कई बार देश के कुछ राज्यों से ख़बरें छपती हैं- दबंगों ने दलितों को ज़िंदा जलाया . दबंगों ने दलितों को सरे-आम प्रताडित किया .ऐसे में क्या  'दबंग' शब्द   का अर्थ किसी को अपने बाहुबल , धन-बल और आज के जमाने में शस्त्र -बल से दबाकर रखने वाले गुंडे-मवाली किस्म के लोगों से नहीं जुडता ? अमेरिकी राष्ट्रपति को 'दबंग' की संज्ञा देकर इस चैनल ने हमारे खास विदेशी मेहमान को जाने-अनजाने आखिर किस उपाधि से नवाजा है ,यह बताने की ज़रूरत नहीं है ,वहीं 'दबंग' के  विपरीत शब्द 'दलित'को उसने अघोषित रूप से भारत की आम जनता पर थोप दिया है . इसमें दो राय नहीं कि लोकतंत्र के इस युग में , आज की आधुनिक दुनिया में  अपने कई तरह के कारनामों के कारण  अमेरिका की छवि 'दबंग ' जैसी ही बन गयी है , लेकिन चैनल की सुर्ख़ियों ने इस बदनाम शब्द को वहाँ के राष्ट्रपति के नाम से जोड़ कर जनता को क्या संदेश दिया , यह तो चैनल के कर्ता-धर्ता ही बता पाएंगे ,पर इतनी फुरसत किसे है कि जाकर उनसे यह पूछे .दबंग भले ही मुट्ठी भर होते हैं , लेकिन अपने साम-दाम ,दंड-भेद की नीतियों से  समूची इंसानी आबादी  को दबा कर रखते हैं. इंसानियत दबंगों की गुलाम बन जाती है .
      इन दिनों एक फ़िल्मी कलाकार के 'दबंग ' शीर्षक हिन्दी फिल्म के किसी अपराधी चरित्र को  प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में इसी शीर्षक से काफी महिमा -मंडित किया जा रहा है . मानो ,यह किसी  महान प्रेरणा दायक चरित्र का नाम हो . ध्यान देने लायक बात यह भी है कि 'दबंग' फिल्म में 'दबंग ' का किरदार निभाने वाले  पर अपने वास्तविक जीवन में काले हिरणों के शिकार और फुटपाथ पर सोए गरीबों को मदहोशी में  अपनी कार से कुचल कर मार डालने का संगीन आरोप लगा हुआ है .इन्ही आरोपों में वह जेल भी जा चुका है .यह आज के जमाने के  विज्ञापन आधारित  प्रचार-तंत्र का ही करिश्मा है कि इसके बावजूद लोग . खास तौर पर चालू-छाप मनोरंजन के दीवाने  निठल्ले  युवाओं को इस 'दबंग' पर फ़िदा होते देखा जा सकता है ,भले ही उन्हें इसके लिए उसके  निजी सुरक्षा-गार्डों के हाथों मार खानी  पड़े ,या फिर पुलिस की भी लाठियां खानी पड़ जाए. मानो 'दबंग' नामक इस फ़िल्मी किरदार ने देश के लिए कोई बहुत बड़ा काम किया हो, जिससे लाखों-करोड़ों लोगों का भला हुआ हो . ऐसा कुछ भी नहीं है .फिर भी उसके लाखों निठल्ले किस्म के दीवाने हैं .प्रचार-तन्त्र और उसके निजी विज्ञापन-तंत्र ने उसे हमारे  समाज के एक 'रोल-मॉडल ' के रूप में स्थापित करने में  कोई कसर नहीं छोड़ी है.
   क्या यह आज की पढ़ी-लिखी ,साक्षर और शिक्षित कहलाने वाली आधुनिक दुनिया में नैतिक-मूल्यों के पतन और नैतिकता के प्रतिमानों में तेजी से आ रहे बदलाव का संकेत नहीं है ?आज़ादी के छह दशक बाद भी हम अपने लिए और अपनी नयी पीढ़ी के लिए महात्मा गांधी , स्वामी विवेकानंद और शहीद भगत सिंह जैसी महान विभूतियों को 'रोल मॉडल' नहीं बना पाए . न सिर्फ दबंग किस्म के लोग, बल्कि  अघोषित चोरी ,अघोषित डकैती और अघोषित बेईमानी के धन से पूरी दबंगता के साथ अपना आर्थिक साम्राज्य फैला रहे लोग भी  समाज का 'रोल-मॉडल ' बन रहे हैं .  क्या यह हमारे दिल के किसी कोने में 'दबंगों' के भय से कांपती चुपचाप दुबक कर बैठी मानवता के अस्तित्व के लिए खतरे का संकेत नहीं है ?
                                                                                                             स्वराज्य करुण

Read more...