मंगलवार, 26 जनवरी 2010

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

 गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं


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सोमवार, 25 जनवरी 2010

खेल खिलाड़ी का

***राजीव तनेजा*** 



ज्योतिषी बनने के चक्कर में जेल की हवा खाने पडी…कोई खास नहीं…बस यही कोई तीन महीने की हुई…बोरियत का तो सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि अपने सभी यार-दोस्त तो वहाँ पहले से ही मौजूद थे| कोई दो साल के लिए अन्दर था तो कोई पाँच साल की चक्की अपने नाम लिखवा के आया था| ये तो मैँ ही था जो अपने ज़मीर के चलते कुछ ले-दे के सस्ते में छूट गया था वरना  बाकि सब के सब स्साले!...कंगाल....सोचते थे कि बाहर निकल के तो फिर कोई ना कोई काम-धन्धा करना पड़ेगा .. सो!...यही ठीक है...अपना..दो वक्त की आराम से मिल जाती है..और क्या चाहिए किसी बदनसीब बंदे को? सही कहा है किसी भले-मानस ने कि... "जब मुफ्त में मिले खाने को तो कद्दू जाए कमाने को" 
                                  सब के सब स्साले!...निठल्ले....कामचोर की औलाद...मुफ्त में जेल की रोटियाँ तोडे जा रहे थे दबादब। बाकि सब तो खैर ठीक ही था लेकिन एक ख्याल दिल में उमड़ रहा था बार-बार कि..."आखिर!...जेल से छूटने के बाद मैं करूँगा क्या?" अब कोई छोटा-मोटा काम-धंधा करना तो अपने बस का था ही नहीं शुरू से। इसलिए अपुन का इरादा तो फुल्ल बटा फुल्ल लम्बा हाथ मारने का था लेकिन कोई भी आईडिया स्साला!..इस भेजे में घुसने को राज़ी ही नहीं था और घुसता भी कैसे? आदत तो अपुन को थी हमेशा तर माल पाडने की और यहाँ...ये स्साला!...जेल का खाना...माशा-अल्लाह। अब क्या बताऊँ?...ये अफसर लोग ही सब का सब हडप जाते हैँ खुद ही और डकार तक नहीं लेते...छोड़ देते हैं हम जैसों के लिए मूंग धुली का बचा-खुचा पानी और कुछ अधजली...कच्ची-पक्की रोटियाँ।
                                  बाहर किसी कुत्ते को भी डालो तो वो भी कूँ ...कूँ कर किंकियाता हुआ काटने को दौड़ेगा और अपनी हालत तो ऐसी थी कि काटना तो दूर...सही ढंग से भौंक भी नहीं सकते थे। भौंकना और काटना सब अफसर लोगों के जिम्मे जो था।लेकिन एक दिन अचानक सब काया-पलट होते नज़र आया...चकाचक सफेदियाँ कर पूरी बैरक को चमकाया जा रहा था...'फ्रिज'.....'सोफा'...'प्लाज़मा टीवी'....'गद्देदार पलंग' और ना जाने क्या-क्या?... मैने मन ही मन सोचा कि "ये सब स्साले...इतना सुधर कैसे गये? किसी से पता किया तो जवाब मिला....
"इतना परेशान ना हो....एक 'वी.आई.पी' आ रहा है कुछ हफ्तों के लिये। उसी की खातिरदारी के लिए ये सब इंतज़ाम हो रहा है...तेरे बाजू वाली बैरक में ठहरने का इंतज़ाम किया गया है उसका" 
                                   इन दिनों एक ठुल्ले से अपुन ने अच्छे ताल्लुकात बना लिए थे। बस!...कुछ खास नही...वही पुराने ज्योतिष के हथकण्डे अपनाते हुए आठ-दस उल्टे-सीधे डायलाग मारे...तीन-चार का तुक्का फिट बैठा और हो गया एक नया चेला तैयार। बस!...फिर क्या था?...उसी को मस्का लगाया कि... "एक बार...बस!...एक बार...किसी भी तरह से इंट्रोडक्शन भर करवा दो...बाकि सब मैँ अपने आप सलट लूँगा"  कुछ खास मुश्किल नहीं था ये सब उसके लिए। उसी की ड्यूटी जो लगी थी उस 'वी.आई.पी' के साथ। सो!...अगले दिन ही भगवान को हाज़िर-नाज़िर मान अपुन उसके दरबार में हाज़िर था। 
                                       "ये लो!...उसे तो मैँ पहले से ही जानता था और जानता भी क्यूँ नहीं?...'वी.आई.पी'  बनने से पहले पट्ठा!...अपनी ही कॉलोनी में मिट्टी का तेल ब्लैक किया करता था और करता भी क्यों नहीं?.. तेल का डिपो जो था उसके सौतेले बाप का। मंदी में भी खूब नोट छापे पट्ठे ने और आज ठाठ तो देखो...बन्दे को बन्दा नहीं समझता है। लेकिन अपुन भी कोई भूलने वाली चीज़ नय्यी है ...  देखते ही झट से पहचान गया। गले मिलते ही मैने भी फट से पूछ लिया कि...
"अरे!...नेताजी...आप यहाँ कैसे?"... 
"अरे यार!...कुछ ना पूछ...सब इन मुय्ये चैनल वालों का किया धरा है"... 
"स्साले!...सोचते हैँ कि मैँ यूँ ही मुफ्त में सवाल पूछता फिरूँ...पागल है स्साले!...सब के सब".....
"और नहीं तो क्या?...आपको क्या किसी पागल कुत्ते ने काटा है जो आप ऐसे ही ...फोकट में अपनी ज़बान काली करते फिरें?"मैं जोश में आ नेताजी की साईड लेता हुआ बोला...
"इन स्सालों को ज़रा भी गुमान नहीं कि कितने खर्चे हैँ?...किस-किस को हफ्ता पहुँचाना पड़ता है?...किस-किस को मंथली दे के आनी पड़ती है?..
"किस-किस को?"मेरे स्वर में उत्सुकता थी...
"अरे!...ये पूछ कि किस-किस को नहीं?...ऊपर से नीचे तक...स्साला!...कोई भी बिना लिए रहता नहीं है" 
"ऊपर से नीचे तक?"... 
"हाँ!...भय्यी ...ऊपर से नीचे तक...इस हमाम में सभी नंगे हैँ"...
"ओह!...
"यहाँ तो गांव स्साला!...बाद में बसता है...कूदते-फाँदते भिखमंगे कटोरा हाथ में लिए पहले टपक पड़ते हैं"... 
"आपको पता भी ना चला कि कब स्साले!...फोटू खींच ले गये?" मेरे स्वर में हैरानी का पुट था.. 
"पता होता तो स्सालों का टेंटुआ ना दबा देता वहीं के वहीं?"नेताजी लगभग गुस्से से दाँत पीसते हुए  बोले ... 
"जी!...ये तो है"
आज लग रहा था कि जैसे नेताजी चुप नहीं बैठेंगे...कोई सुनने वाल जो मिल गया था। जब से संसद में सवाल पूछने के नाम पर बवाल हुआ था...कोई इनकी सुन ही कहाँ रहा था?...और मैँ भी तो अपने अन- महसूसे मतलब की खातिर उनकी लल्लो-चप्पो किए जा रहा था। मैने मस्का लगाते हुए कहा... "नेताजी!...आपका तो तेल का डिपो था ना?"....
"हाँ!...था तो सही...क्यों?...क्या हुआ?"नेताजी प्रश्नवाचक  दृष्टि से मेरी तरफ ताकते हुए बोले
"अच्छा-भला कमाई वाला काम छोड़ के आप इस नेतागिरी जैसी टुच्ची लाईन में कैसे आ गये?"... 
"अरे!..तुझे नहीं पता...इससे बढ़िया कमाई वाला तो कोई काम ही नहीं है पूरे हिंदोस्तान मैं"नेताजी आहिस्ता से फुसफुसाते हुए बोले...
"लेकिन कोई स्टेटस-वटेटस भी तो होना चाहिए?...ऐसे बे-इज्जत हो के नोट कमाए तो क्या खाक कमाए?"...
"अरे!..खाली फ़ोक्के स्टेटस को क्या चाटना है?...अपुन को तो कमाई दिखनी चाहिए...कमाई...भले ही कोई बेशक हमसे पैसों के बदले अपने बच्चे तक पिटवा ले...हमें कोई ऐतराज़ नहीं"नेताजी गर्व से छाती फुलाते हुए बोले   
"ओह!...
"तेल के डिपो की वजह से अपनी जान-पह्चान बहुत थी"...
"जी!...वो तो थी"..
"थी क्या?...अब भी है"नेताजी आँखे तरेरते हुए बोले...
"जी!..बिल्कुल"...
"जान-पहचान तो अपुन की भी बहुत है"मैँ मन ही मन सकुचाते हुए मुस्काया लेकिन ऊपर से एकदम अनजान बनता हुआ बोला...
"लेकिन खाली जान-पहचान से होता क्या है?"... 
"अरे बुद्धू!...उसी से तो सब कुछ होता है"..
"वो कैसे?"...
"यार!...गली-मोहल्ले में सबसे वाकिफ होने कि वजह से इलैक्शन के टाईम पे सभी पार्टी वाले अपुन को ही तो याद करते थे कि नहीं?"..
"जी!...करते तो थे"...
"चाहे वो 'भगवे' वाले हों...या फिर 'हाथी' वाले...या फिर 'हाथ' वाले या फिर किसी भी अन्य ठप्पे वाले ...सभी अपुन के दरबार में हाजिरी बजाते थे"..
"जी"मैंने मन ही मन लपेटना शुरू कर दिया था ... 
"उनसे जो माल-मसाला मिलता था पब्लिक में बांटने के लिए...उसका आधे से ज़्यादा तो मै अकेला ही डकार जाता था और चूँ तक नहीं करता था"..
"ओह!...तो फिर इस सब का हिसाब-किताब कैसे देते थे उनको?".. 
"हिसाब-किताब?" 
"जी"....
हा...हा...हा...हा" 
"अरे बुद्धू!...ये सब दो नम्बर के धन्धे होते हैँ...इनका हिसाब-किताब नहीं रखा जाता"...
"लेकिन फिर भी...थोडी-बहुत लिखा-पढी तो कर के देनी ही पड़ती होगी?..
"हाँ!...खानापूर्ति के नाम पर थोडी-बहुत लिखा-पढी तो कर के देनी ही पड़ती थी लेकिन उसके लिए तो मैंने परमनेंटली एक CA रख छोड़ा था ना...वही उल्टे-सीधे खर्चे लिखवा दिया करता था उनके हिसाब में"...
"जैसे?"...
"जैसे... 'दारू की पेटियाँ'......'जूते-चप्पल'.. लुंगी ...धोती और साड़ियाँ ..... 'झण्डे'....'बैनर'...... 'ड्ण्डा घिसाई' वगैरा वगैरा"....
"डण्डा घिसाई?...ये कौन सा खर्चा होता है?" मैं मन ही मन मुस्काता हुआ बोला ... 
"तू नहीं समझेगा...ये थोड़ा वयस्क टाईप का ...दो नंबर का खर्चा होता है"...
समझ तो मैं सब रहा था लेकिन मुँह से बस यही निकला "ओह!...
"आज नेताजी अपने आप ही सब कुछ उगलते जा रहे थे और मैँ किसी आज्ञाकारी शिष्य की भाँति बिना उन्हें टोके सब कुछ ग्रहण करने में ही अपनी भलाई समझ रहा था। आज चुप रह कर मतलब निकालने की मेरी कला काम आ ही गई। अब गर्व से सीना तान बताउंगा बीवी को कि..."देख!...चुप रहने के कितने फायदे होते हैँ।हर वक़्त बकती रहती थी कि..."सिर्फ मेरे आगे ही ज़ुबान लडाते हो...कभी बाहर जा के किसी के आगे मुँह खोलो तो जानूँ"...
अब बोल के देखियो ना कि... "बाहर तो घिघ्घी बंध जाती है जनाब की ....ज़ुबान तालु से चिपक...खुद को ताला लगा...चाबी ना जाने कहाँ गुम कर देती है?"...मुँह ना तो तोड़ दिया तो मेरा भी नाम राजीव नहीं। 
"कहाँ खो गये मित्र?" नेताजी की अवाज़ सुनाई दी तो हकबकाते हुए जवाब दिया कि... "बस ऐसे ही"
"कई बार तो ऐसा होता था कि मैँ अकेला ही पूरा का पूरा माल हज़म कर जाता था" नेताजी बात आगे बढाते हुए बोले
"पूरा?"... मैने हैरानी से पूछा 

"और नहीं तो क्या अधूरा?"...
"फिर बांटते क्या थे?....टट्टू?"... 
"अरे!...पूरे इलाके में अपुन की धाक जम चुकी थी...सो!...सभी काम-धन्धा करने वालों के यहाँ..."पार्टी फ़ंड के नाम पर चंदा दो" का फरमान जारी कर अपने गुर्गे भेज देता था.... और सारा का सारा काम खुद ब खुद निबटता जाता था"..
"ओह!...लेकिन सब के सब भला कहाँ देते होंगे?...कोई न कोई तीसमारखां तो...  
"अरे!...है कोई माई का लाल पूरे इलाक़े में जो अपुन को इनकार कर सके?...स्साले का जीना हराम ना कर दूंगा?"नेताजी अपनी आस्तीन ऊपर कर आवेश में आते हुए बोले  
"लेकिन फिर भी कोई ना कोई अड़ियल टट्टू तो मिल ही जाता होगा?" मैँ फिर बोल पड़ा 
"ऐसे घटिया इनसान तो थोड़े-बहुत हर कहीं भरे पड़े हैं यार"..
"तो फिर उनसे कैसे निबटते थे?"मेरे स्वर में उत्सुकता का पुट खुद ब खुद शामिल हो चुका था... 
"हर बार दो-चार शरीफ़ज़ादों के यहाँ 'इनकम टैक्स वालों का छापा पड़वा देता था और  नकली माल बनाने वालों के लिए तो मेरा एक फोन कॉल ही काफी होता था"...
"स्साले!..अगले ही दिन अपनी नाक रगड़ते हुए आ पहुँचे थे कि..
"हमसे भूल हो गई...हमका माफी दई दो" नेताजी फिल्मी तर्ज़ पे गाते हुए बोले ...
"ओह!...
"लेकिन एक स्साला!...फैक्ट्री मालिक ऐसा अड़ियल निकला कि लाख समझाए पर भी टस से मस ना हुआ"... 
"ओह!..फिर क्या हुआ?"... 
"अपुन भी कौन से कम हैं?...हर साँप के काटे का इलाज है अपने पास"... 
"क्या मतलब?"..
"इस जोड़ का भी तोड़ निकाल ही लिया"...
"वो कैसे?".. 
"एक तरफ स्साले की फैक्ट्री में हड़ताल करवा दी लाल झण्डे के तले और दूसरी तरफ अपना फर्ज़ समझ लेनदारों का डंडा पूरा का पूरा अंदर करवा दिया उसके कि... "हमें तो फुल एण्ड फ़ाइनल अभी चाहिए"... 
"ओह!..
"थोड़ी-बहुत कसर बाकी लगी तो प्लेन के तहत दो-चार वर्करों को चाकू मरवाया और ताला लगवा दिया हरामखोर की फैक्ट्री में"...
"ओह!...फिर क्या हुआ?" मेरे माथे पे चिंता कि रेखाएं अपना डेरा जमा चुकी थी ... 
"जब हफ्ते भर ताला लटका रहा तो खुद-बा-खुद सारी हेकडी ढीली हो गयी पट्ठे की"...
"गुड!...ये बहुत बढ़िया तरकीब सोची आपने" मेरे स्वर में प्रशंसा और हिकारत का मिलाजुला पुट था...  
"और नहीं तो क्या?" अपनी तारीफ सुन नेताजी की छाती गर्व से फूल चुकी थी ...
"तो क्या सारा का सारा माल-पानी बांट देते थे?"मुझ से अपनी उत्सुकता छुपाए न चुप रही थी 
"इतना येढा समझा है क्या?...अपुन भिण्डी बाज़ार की नहीं...दिल्ली की पैदाइश है....दिल्ली की"... 
"अगर सब कुछ बांट दूंगा तो मैँ क्या गुरुद्वारे जाउंगा?"...
"ये 'बंगला-गाडी'....ये 'नौकर-चाकर'...ये मॉल...ये 'शोरूम'...ये 'फार्म हाऊस'.... ये 'फैक्ट्री'...
सब का सब क्या आसमान से टपका है कि मन्तर मारा और सब हाज़िर?"...
 

"क्या मतलब?"मैं उनकी बात का मतलब ठीक से समझ नहीं प रहा था...
"अरे बुद्धू!...नोट खर्चा किए हैँ नोट...और नोट जो हैँ....वो पेड़ों पे नहीं उगा करते कि जब चाहा.. हाथ बढाया और तोड लिए हज़ार-दो-हज़ार"...
"तो फिर?"...
"थोडा-बहुत तो बांटना ही पडता था झुग्गी-बस्तियों वगैरा में...आखिर!...वोट बैंक जो थे"... 
"लेकिन इतनी बड़ी बस्ती...इतने सारे लोग...कैसे मैनेज करते होंगे आप ये सब?"...
"अरे!...कुछ खास मुश्किल नहीं है ये सब....बस...बस्ती के प्रधान को अपनी मुट्ठी में कर लिया तो किला फतेह समझो"... 
"यही तो सबसे मुश्किल काम होता होगा ना?" 
"कोई भी काम मुश्किल नहीं है अपुन के लिए....बस!...मुन्नी बाई को इशारा किया और पहुँच गई अपने पूरे दल-बल के साथ"...
"ओह!...उसके लटके-झटकों पे तो पूरी दिल्ली फिदा है तो इन प्रधानों-वरधानों की क्या मजाल जो काबू में नहीं आते"...

"और नहीं तो क्या?"... 
"उनमें बाँटने के लिए देसी की पेटियाँ तो हम पहले से ही मँगवा के रख लेते थे अपने गोदामों में"...
"देसी?" मैँ मुँह बिचकाता हुआ सा बोला 
"हाँ भाई!...'देसी'".....
"इंग्लिश आप अफफोर्ड नहीं कर सकते या... मैंने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया
"अरे नहीं!...ऐसी कोई बात नहीं है...अफफोर्ड तो मैं अंग्रेज़ी के बाप को भी आसानी से कर सकता हूँ लेकिन इन स्सालों की औकात ही नहीं है इसकी"...
"क्या मतलब?...फ्री में मिले तो मुझ जैसे डीसंट लोग शैम्पेन को भी ताड़ी की तरह डकारने लगते हैं?" अपनी औकात पे हमला होता देख मैं पूरी तरह भड़क चुका था...
"शांत!...गदधारी भीम...शांत...इतना काहे को भड़कता है?"...
"अरे!..कमाल करते हैं आप भी...इस तरह सरेआम अपनी अस्मिता पे हमला होते देख मैं भड़कूँ नहीं तो और क्या करूँ?" मैं लगभग सफाई सी देता हुआ बोला...
"ओह!...इटस नोट ए बिग थिंग...दरअसल क्या है कि ...इन हरामखोरों को इंगलिश पचती नहीं है आसानी से...इसलिए ऐसा कहा"...
"ओह!...
"पागल कहीं के...कहते हैँ कि..."बोहत आहिस्ता-आहिस्ता चढती है बाबू...सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है " 
"बात तो आपकी सही है लेकिन गधों को और घोड़ों को ...सभी को आप एक ही फीते से कैसे नाप सकते हैं?...सभी एक ही थैली चट्टे-बट्टे थोड़े ही हैं?"मेरे स्वर में आक्रोश का पुट साफ़ दिखाई दे रहा था"...
"ओह!...मी मिस्टेक...मुझे डग और अल्सेशियन में फर्क रखना चाहिए था"..
"बिल्कुल!...कुछ एक तो मेरी तरह के ठेठ मोलढ़ होते हुए भी 'इंग्लिश' को भरपूर एंजॉय करते हैं"...
"सही कहा तुमने...लेकिन चंद ऐसे गिने-चुने नमूनों के लिए बाकी सारी जमात के साथ भेदभाव तो नहीं किया जा सकता ना?"...
"बात तो आप सही कह रहे हैं लेकिन क्या हम जैसे चंद गिने-चुने उच्च कोटि के पियक्कड़ों के लिए कुछ न कुछ अलग से अररंगेमेंट किया जाना जायज़ नहीं है?"..
"लेकिन जो बीत गया...सो बीत गया....उसके लिए अब किया ही क्या जा सकता है?"...
"अरे वाह!...वर्तमान बिगड़ रहा है तो क्या?...भविष्य तो अपने ही हाथ में है ना?"...
"क्या मतलब?"..
"उसे तो सँवारा ही जा सकता है"...
"लेकिन कैसे?"...
"हम जैसों को 'इंग्लिश' की पेटी उपलब्ध करवा के"...
"हें...हें...हें...वैरी फन्नी "...
"जी!...वो तो मैं शुरू से ही....मेरी बीवी भी यही कहती है"....
"ठीक है!...तो फिर बीती ताही बिसार के मैं आगे बढ़ते हुए अब आगे की सोचता हूँ और इस बार के इलैक्शन में पहले से ही कुछ खास लोगों के लिए दो-नम्बर का माल तैयार करवा लूँगा आर्डर पे" मेरे चेहरे के भावों से अनभिज्ञ नेताजी अपनी रौ में बोलते चले गए  ... 
"तैयार करवा लेंगे?...आर्डर पे?...मैं कुछ समझा नहीं...ज़रा खुल के बताएं"... 
अब नेताजी चौकन्ने हो इधर-उधर देखने के बाद आहिस्ता से बोले..."अरे यार!...दो-नम्बर का माल माने ...  'बोतल असली...माल नकली' ...
"लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है?...
"माल नकली?" मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था 
"अरे बेवाकूफ!...बोतल से असली माल सिरिंज के जरिए बाहर और सिरिंज से ही नकली माल अन्दर" 
"ओह!..लेकिन क्या अपने खास बंदों के साथ ऐसी धोखाधड़ी करना आपको शोभा देता है?"..मैं पूरी तरह उखड़ चुका था  
"अरे!...नहीं-नहीं ...तुम समझे नहीं...तुम जैसे कुछ खास गिने-चुने बन्दो के लिए डाइरैक्ट फैक्ट्री से ही खालिस माल मँगवा लूँगा "नेताजी मानों लीपापोती सी करते हुए बोले  
"लेकिन वो तो काफी मँहगा पड़ेगा ना?"मैं भी अनजान बनने की कोशिश करता हुआ बोला...
"अरे यार!...ये सब मँहगा होता है तुम जैसों सिम्पल लोगों के लिए...हमारे लिए नहीं"...  
"क्या मतलब?...दाम तो सबके लिए एक ही होता है...कोई भी खरीदे"...
"अरे!...नहीं रे..तुम लोगों के लिए देसी...देसी ही होता है और अपने लिए क्या 'देसी' और क्या विलायती?...सब बराबर"...
"क्या मतलब?...आपके लिए देसी और विलायती में कोई फर्क ही नहीं होता है"...
"बिल्कुल"...
"लेकिन कैसे?"मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था
"अरे यार!...डाइरैक्ट फैक्ट्री से ही निकल आता है अपना माल...बिना एक्साइज़ ड्यूटी के"नेताजी फुसफुसाते हुए से बोले  
"ब्ब्...बिना एक्साइज़ ड्यूटी के?".. 
"हाँ यार!...एक अफसर को जो अन्दर होने से बचा दिया था एक बार.....पट्ठा आज तक नहीं भूला.....फुल रिगार्ड करता है अपना ...यारी जो हो गयी अपनी उसके साथ"... 
"लेकिन यारी हर किसी की कहाँ हो सकती है?" मैँ उदास मन से बोला 
"क्यों?...अगर कृष्ण और सुदामा की हो सकती है...मेरी और तुम्हारी हो सकती है...तो तुम्हारी..उसकी .. क्यों नहीं?"नेताजी मुझे हिकारत भरी नज़र से देखते हुए प्रतीत हुए...
गुस्सा तो इतना आ रहा था कि अभी के अभी मुँह तोड़ दूँ स्साले का लेकिन व्यावसायिक मजबूरी के चलते मुझे सिर्फ मनमसोस कर रह जाना पड़ा ...ऊपर से अनजान बनते हुए बोला "कहाँ वो राजा भोज और कहाँ मैं गंगू तेली?"..
"अरे!..होने को तो सब कुछ हो सकता है....बस पैसा फैंको और तमाशा देखो"
"हम्म!...बात तो सही कह रहे हैं आप" मैँ ऐसे मुण्डी हिलाता हुआ बोला जैसे सब कुछ समझ आ गया हो लेकिन कुछ शंकाए मन में ग्लेशियर कि बर्फ की भाँति जम चुकी थी और उनके पिघले बिना मुझे चैन नहीं पड़ने वाला था ...इसलिए बिना किसी लाग-लपेट के मैंने पूछ ही लिया कि...

"पिछली बार तो अपोज़ीशन वालों का ज़ोर था ना?...फिर आप और आपके साथी कैसे जीत गये?".. 
"अरे!..ये ज़ोर-वोर सब बे-फिजूल...बे-मतलब की बातें हैँ इनका भारतीय राजनीति के पटल पे कोई मतलब नहीं..कोई स्थान नहीं"....
"क्या मतलब?....ये सब बेकार कि बातें हैं?..इनका असलियत से कोई सरोकार नहीं?".. 
"बिल्कुल नहीं"...
?...?..?..?..?..
"असल मुद्दा ये नहीं होता कि किसका ज़ोर चल रहा है इलाक़े में?...असल मुद्दा ये होता है कि...तमाम धींगामुश्ती के बाद आखिर में जीता कौन?....और अंत में जीते तो हम ही थे ना?"नेताजी मेरा मुँह ताकते हुए बोले... 
"ओह!..बात तो आप सोलह आने दुर्रस्त फरमा रहे है लेकिन ये कमाल आपने कैसे कर दिखाया?"मेरे चेहरे पे छायी उत्सुकता हटने का नाम नहीं ले रही थी   
"अब यार!...तुम तो जानते ही हो कि अपुन को जवानी के दिनों से ही दण्ड पेलने का बड़ा शौक था" 
"जी!...ये तो मोहल्ले का बच्चा-बच्चा जानता है लेकिन उससे होता क्या है?"... 
"सो!...दिन भर अखाडे में ही पडे रहते थे"....
"ओ.के"... 
"बस!...वहीं अपनी यारी आठ-दस छटे हुए पहलवानों से हो गयी"...
"तो?"..
"उन्हीं का इस्तेमाल किया और  मार लिया मैदान"अपनी इस उपलब्धि से वशीभूत नेताजी गर्व से फूले नहीं समा रहे थे 
"हुंह!...मैं नहीं मानता"....
"क्या मतलब?"...
"वो 'एम.एल.ए' का चुनाव था कोई ‘R.W.A’ का नहीं कि ज़रा सी उठा-पटक से मार लिया मैदान"...
"R.W.A?…माने?"...
"'रेसिडेंट वेलफेयर असोशिएशन'"...
"मैं तुम्हारी बात का मतलब नहीं समझा"...
"महज़ आठ-दस पहलवानों से इतने बड़े इलैक्शन में भला किसी का क्या उखड़ा होगा?"चेहरे पे असमंजस के भाव लाता हुआ मैँ बोला 
"गुड क्वेस्चन!...सही कह रहे हो...इतने बड़े इलैक्शन में आठ-दस सूरमाओं से तो किसी का बाल भी बांका नहीं होना था"...
"तो फिर?"... 
"इन सबके भी अपने-अपने लिंक होते हैँ यार...उन्हीं के जरिए और भी मँगवा लिए पड़ोसी शहरों से ठेके पे...आखिर!...पड़ोसी भला किस दिन काम आएंगे?"...
"काम आएंगे?"... 
"यार!...सीधा सा हिसाब है ....'इस हाथ दे और उस हाथ ले' का.. जब उनको काम पड़ता है तो इन्हें बुलवा लिया जाता है और जब इन्हें ज़रूरत आन पड़ती है तो वो सर के बल दौड़े चले आते हैं"...
"ओह!..लेकिन आप तो कह रहे थी कि ठेके पे?"मेरे स्वर में असमंजस साफ़ दिखाई दे रहा था 
"हाँ!...भय्यी हाँ...ठेके पे...अब घड़ी-घड़ी कौन हिसाब रखता फिरे कि....
  • कितनों की टांगे तोड़ी और कितनों के सर फ़ोड़े?...
  • कितनो को पीट-पाट के अस्पताल पहुँचाया? और ...
  • कितनों को सरेआम शैंटी-फ्लैट किया? 
"लेकिन इन सारे कामों में तो अलग-अलग महारथ के लोगों की आवश्यकता होती है...तो फिर रेट वगैरा कैसे फिक्स करते थे?"... 
"हर काम का अलग-अलग रेट होता है जैसे...
टांग तोडने के इतने पैसे  और... मुँह तोडने के इतने पैसे'... हाथ-पैर अलग-अलग तोड़ने के और एक साथ तोड़ने के इतने पैसे ...धमकाने के इतने पैसे वगैरा...वगैरा " 
"और बूथ-कैप्चरिंग के और बोगस वोटिंग के ?"मैने सवाल दाग दिया 
"ये की ना तुमने हम नेताओं जैसी बात...कहीं मेरी ही वाट लगाने का इरादा तो नहीं है?" ..
"ही...ही...ही....जी मेरी क्या औकात तो मैँ आपके सामने सैकण्ड भर को भी ठहर सकूँ"मैँ खिसियानी हँसी हँसता हुआ बोला 
"हम्म!...फिर ठीक है"नेताजी का संतुष्ट जवाब...  
"हाँ!...तो बात हो रही थी 'बोगस वोटिंग' और 'बूथ कैप्चरिंग की"... 
"जी".. 
"तो यार...इन सब के लिए तो अलग से पैकेज देना पडता है कि...इस इलाके के लिए इतने खोखे और उस इलाके के लिये इतने खोखे"...
"ओह!...लेकिन उन्हें कैसे पता होता है की किस इलाक़े में कितने लुडकाने पड़ेंगे?..और किस इलाक़े में कितने?"..

"स्सालों ने पूरा सर्वे किया होता है कि फलाने इलाके में ...इतने पटाखे फोडने पड़ेंगे और फलाने इलाके में इतने"... 
"खोखे?" मेरा मुँह खुला का खुला ही रह गया... 
"और तुम इसे क्या दस-बीस पेटी का खेल समझे बैठे थे?"... 
"ज्जी!...
"अरे!...पच्चीस-पचास से तो मेरे 'पी.ए' की भी दाढ गीली नहीं होती है तो अपना तो सवाल ही पैदा नहीं होता" 
"ओह!...
अब मुझे हर तरफ खोखे ही खोखे दिखाई दे रहे थे...दिल रह-रह कर ख्वाब देखने लगा था कि...कब मैं छूटूँ और कब कूद पड़ूँ मैँ भी इस खेल में?... 
आखिर!...खोखों का सवाल जो था..
***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja
Delhi(India)
http://hansteraho.blogspot.com
rajivtaneja2004@gmail.com
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+919213766753

+919136159706

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शनिवार, 23 जनवरी 2010

वे नेता जी की पिस्तौलें सौंपना चाहते हैं राष्ट्र को!

नेताजी के सचिव रहे ८९ वर्षीय त्रिलोक सिंग चावला थाईलैंड में रहते हैं. उन्होंने आज भी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की दो पिस्तौलें सहेज कर रखी हैं. वे इस अमानत को भारत सरकार को सौंपना चाहते हैं. 
उन्होंने इस संबंध में बात करने के लिए अपने बेटे को भारत भेजा था. संतोष सिंग ने विगत दो हफ़्तों से प्रधान मंत्री से मिलने की कोशिश की है ताकि इन दोनों पिस्तौलों को भारत सरकार को सौंप कर अपने पिता की अधूरी ख्वाहिशों को पूरा कर सके. 
त्रिलोक दोनों पिस्तौलों कोल्ट-३२ और ऍफ़ एन-६३५ अपने साथ रखते हैं. वह इन हथियारों की रोज पूजा भी करते हैं. उन्होंने अपने बेटे संतोष सिंग को मनमोहन सिंग जी से मुलाकात करने के लिए भेजा है उल्लेखनीय है की २३ जनवरी को नेताजी की ११३ वर्षगांठ है. 
त्रिलोक सिंग जी  का कहना है कि नेताजी चाहते थे कि ये दोनों पिस्तौलें लाल किले में लौटा दी जाए. इन हथियारों को सौपने के आठ दिन बाद ही एक विमान हादसे में उनके निधन की खबर आई. मैं नहीं मानता की नेताजी हमारे बीच नहीं हैं और मैं आज तक उनकी राह देख रहा हूँ. परन्तु उम्र बढ़ने के साथ ही चाहता हूँ कि उनकी अमानत राष्ट्र को सौंप देनी चाहिए. वो चाहते हैं कि भारत के लोग इन पिस्तौलों को देखने से वंचित ना रह जाएँ.  

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गुरुवार, 21 जनवरी 2010

इंग्रेजी भाषा, लपटन जी और हमारी दुविधा


ओईसे तो हम बहुते अंग्रेजी पढे , और फ़िर काहे नहीं पढें , ई सोच के पढ लेते हैं कि हम लोग तो खाली अंग्रेजी को झेल रहे हैं , अपने पूर्वज़ लोग तो बेचारे पूरे के पूरे अंग्रेजन राज को और अंग्रेज सब को झेले थे ,बस यही सोच के झेले जा रहे हैं और ठेले जा रहे हैं ।यही परमदुविधा की स्थिति में हम पान के गुमटी पर पहुंच गए । अईसन घोर घडी में हम बचपने से पान के गुमटी पर धरना देते रहे हैं , अरे पान बीडी गुट्खा के लिए नहीं जी बल्कि , वहां लपटन जी से सार्थक विमर्श करने के लिए । लपटन जी की पान की गुमटी पर उपलब्धता की गुंजाईश कम से कम इससे तो जरूर ही ज्यादा रहती थी जितनी कि शरद पवार को चीनी के दाम कम होने की है । सो हम चल दिए लपटन जी से विमर्शियाने ।

लपटन जी , ई अंग्रेजी को लेकर हमरे मन में बहुते दुविधा रहती है कुछ मार्गदर्शन करिए । अच्छा ये बताईए कि , नैसर्गिक उष्मावर्धक पेय पदार्थ (अरे ,दारू यार )के दुकान पर लिखा होता है , यहां अंग्रेजी भी मिलती है ........जबकि नीचे लिखा होता है देसी ठेका । बडा ही धर्म संकट है भाई , लपटन जी कुछ प्रकाश डालिए न ।

यार तुम लोग भी न एकदम अनाडी ही रहे । अब इसमें तुम्हारा कोई कसूर भी नहीं है लगाते तो हो नहीं तो दुविधा तो बनी ही रहेगी न । देखो उस देसी ठेके से जब कोई वो लेता है न ,,,अरे दारू यार ...तो कुछ पैग मारने के बाद किस भाषा में बात करने लगता है ......अंग्रेजी में । ....फ़िश फ़्लैट ,,दिस दैट, ढिंग टिलुम , ट्विंग टैंग ......और भी । अंग्रेजी भी ऐसी कि अंग्रेजों के बाप भी न समझ पाएं । समझे कि नहीं ,..इसलिए देसी ठेके पर मिलने वाली से अंग्रेजी ........मिल जाती है ।

अच्छा लपटन जी ये मान लिया , है तो मेरे घर की बात , मगर फ़िर भी आपसे पूछ लेता हूं । घर पे श्रीमती जी पढती हिंदी का अखबार भी नहीं , मगर जोर देती हैं कि अंग्रेजी वाला भी चालू कर लो, काहे ...हम समझ नहीं पाते हैं ।

हा हा हा लो ई कौन भारी बात है , अरे झा जी , दु रुपैय्या में एतना रद्दी इकट्ठा हो जाता है , ई फ़ैसिलिटी अंग्रेजी अखबार में ही तो होता है , समझे कि नाहीं ॥

अच्छा छोडिए ई सब और नयका खबर सुनिए ,विंडोस का नया एक दम फ़्रेश पंजाबी वर्जन आया है

उसका शब्दावली देखिए आप झाजी

सेंड (send ) ......... इन पंजाबी ..........सुट्टो

फ़ाईंड (find ) ............." ..........................लब्बो

डाऊनलोड (download ) ........................थल्ले लाओ ।

डिलीट (delete )....................................मिट्टी पाओ ।

Ctrl +Alt+Del ........................................स्यापा ही मुकाओ ॥

पूरा कोर्स करते ही बताएंगे, आना आप भी , सुने झाजी , अरे ई लोगों को भी कह दीजिए न , सुन रहे हैं न

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सोमवार, 18 जनवरी 2010

सर्दी की लहर में एक चर्चा मदक कलि और मंहगाई

नसों को हिला देने वाली सर्द हवाएं चल रही थी . करीब एक हफ्ते से पान नहीं खाया था ....यह फ़िल्मी गाना ओ मदकक्ली ओ मदककली गुनगुनाते हुए पान की दुकान पर पहुँच गया . तो पानवाला बड़ा खुश हो गया जैसे कोई मुर्गा हलाल होने पहुँच गया हो .

बनियो की आदत के मुताबिक मुस्कुराकर बोला - बाबू आज बड़ी मस्ती में दिख रहा हो ..आज का बात है .....

मैंने कहा ख़ाक मस्ती कर रहा हूँ . ठण्ड इतनी पड़ रही है की मुंह अपने आप फड़कने लगता है और तुम समझ रहे हो की मै गाना गुनगुना रहा हूँ . अरे उस मंहगाई रूपी मदक कलि की बात करो जो सबको मटक मटक कर हलाकान कर रही है . तुम्हें मालूम है इस फिल्म के डायरेक्टर केन्द्रीय मंत्री पावर साब है . अरे पान वाले एक ज्योतिष ने इनके बारे में यहाँ तक कह दिया है की पवार जी को ये वाला मंत्री नहीं होना था . ये वाले का अर्थ है दाल रोटी वाला विभाग का मंत्री . हर तरफ से ओले पड़ रहे है बस वे फ़िल्मी डायरेक्टर की तरह कह देते है की अभी मंहगाई की फिल्म और चलेगी.

पानवाले ने टोककर कहा - अरे इन बुढऊ को कोई भी विभाग दे दो इनके बस में अब कुछ नहीं है अब इन्हें इस उम्र में अपने घर के नाती पोतो को खिलाना चाहिए .

मैंने कहा - यार पानवाले तुम भी बड़ी मीठी मीठी बात करत हो जिससे तुम्हारी पान की दुकान खूब चलें . पान तो मीठा खिलाते हो पर पान में चूना बहुत डाल देते हो तो पान खाने की इच्छा नहीं होती है .

पान वाला था बनिया प्रवृति का ताड़ गया की ये ग्राहक महाराज खिसक लेंगे फिर कभी न आएंगे इसीलिए चेप्टर को फ़ौरन बदल कर बोला - महाराज वो लंगोटा नन्द महाराज नहीं दिख रहे है . कभी उनसे मुलाकात होती है की नहीं ?

मैंने कहा - हाँ पिछले सप्ताह हिमालय पर थे अकेले एक लंगोट पर थे अधिक ठण्ड खा रहे थे . शायद लंगोटी में सिगड़ी बांध कर बैठे होंगें और यह कहते हुए मुश्कुराते हुए मैंने पान की दुकान से अंतिम बिदा ली...

आलेख व्यंग्य - महेंद्र मिश्र
जबलपुर वाले की कलम से

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शनिवार, 16 जनवरी 2010

कौनऊ टाइप के हो तुम यार....

एक सप्ताह से ठंडी हवाओ का लम्बा सिलसिला चल रहा है . अच्छे अच्छो की सीटी बजने लगती है . इस कड़कती ठण्ड में अच्छे अच्छो के नल्ले पसले ढीले पड़ जाते है . कांपते कांपते अपुन फिर पहुँच गए पान की दुकान पर .

पानवाला बोला - भैय्या आज ग्राहकी कम है अच्छा है कै तुम आ गए . कम से कम अच्छे भले के समाचार तो मिल जाएँ .

मैंने कहा - भीषण कुहरा पड़ रहा है .. कुहरे में आँखों में टिपत नहीं है सो अपने घर से वे कहाँ निकलने वाले है.. घर में पल्ली तनके सो रहे है ... हमने उन्हें समाचार जानने के लिए चिट्ठी पतरी लिखने को कै बार कहा और कहा की आप आमंत्रित हमारे ब्लॉग में चिट्ठी लिख देवे करो पर पता नहीं भाई लोग कौन टाइप के है ....कै चुपचाप कथरी ओड़ के बैठे है .

पानवाला - तो भैया है तो सही बात पर नाराज काय हो रहे हो लेव एक नागपुरी पान खाओ और सुनाओ कैसे गुजर रही है ....

मैंने कहा - भाई पान वाले तुम्ही बताओ जब जुड़े हो तो कछु अपने वचन का पालन करो पता नहीं कौनऊ टाइप के है यार लोग बाग़ .

पानवाले ने कहा - हाँ है तो सौ टके की बात सटीक है और ऐसो सब जगह हो भी रहो है भैय्या .. हाँ कछु अपनी भी तो रखनी चाहिए ... कै नहीं ....

और मैंने चिट्ठी की उम्मीद की आशा करते हुए पान की दूकान से बिदा ली .

चर्चा - महेंद्र मिश्र
जबलपुर वालो द्वारा

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बुधवार, 13 जनवरी 2010

हाल क्या था दिलो का हमसे पूछो न सनम ...उनका पतंग उड़ाना गजब हो गया ....

आज अनमने से से पहुँच गए पान की दूकान पे ... पानवाला बोला - के आज चेहरा बड़ा उदास सा दिख रहा है का बात है जो बड़े परेशान से दिख रहे हो . मैंने कहा - मुझे मकर संक्रांति पर बचपन की यादे सता रही है . पान वाले ने कहा तनिक हमखो सो तो बताई ... बताने से जी हल्का हो जाता है तो मैंने अपनी दास्तान कुछ इस तरह से बयां की -----

ओह जब जब मकर संक्रांति आती है तब अपना बचपना भी याद आ जाता है और उन सुखद दिनों की स्मृतियाँ दिलो दिमाग में छा जाती है . वाकया उन दिनों का है जब मै करीब पन्द्रह साल का था . कहते है की जवानी दीवानी होती है . इश्क विश्क का चक्कर भी उस दौरान मेरे सर पर चढ़कर बोल रहा था .









मकरसंक्रांति के दिन हम सभी मित्र पतंग धागे की चरखी और मंजा लेकर अपनी अपनी छतो पर सुबह से ही पहुँच जाते थे और जो पतंगे उड़ाने का सिलसिला शुरू करते थे वह शाम होने के बाद ही ख़त्म होता था . मेरे घर के चार पांच मकान आगे एक गुजराती फेमिली उन दिनों रहती थी . उस परिवार के लोग मकर संक्रांति के दिन अपने मकान की छत पर खूब पतंग उड़ाया करते थे . उस परिवार की महिलाए लड़कियाँ भी खूब पतंगबाजी करने की शौकीन थी .








उस परिवार की एक मेरे हम उम्र की एक लड़की खूब पतंग उड़ा रही थी मैंने उसकी पतंग खूब काटने की कोशिश की पर उसने हर बार मेरी पतंग काट दी . पेंच लड़ाने के लिए बार बार नए मंजे का उपयोग करता .हर बार वह मेरी पतंग काटने के बाद हुर्रे वो काट दी कहते हुए अपनी छत पर बड़े जोर जोर से उछलते हुए कूदती थी और विजयी मुस्कान से मेरी और हंसकर देखती तो मेरे दिल में सांप लोट जाता था .





एक दिन मैंने अपनी पतंग की छुरैया में एक छोटी सी चिट्ठी बांध दी और उसमे अपने प्यार का इजहार का सन्देश लिख दिया और उसमे ये भी लिख दिया की तुमने मेरी खूब पतंगे काटी है इसीलिए तुम्हे मै अपना गुरु मानता हूँ . छत पर वो खड़ी थी उस समय मैंने अपनी वह पतंग उड़ाकर धीरे से उसकी छत पर उतार दी . पतंग अपनी छत पर देखकर लपकी और उसने मेरी पतंग को पकड़ लिया और पतंग की छुर्रैया में मेरा बंधा संदेशा पढ़ लिया और मुस्कुराते हुए काफी देर तक मुझे देखती रही और मुझे हवा में हाथ हिलाते हुए एक फ़्लाइंग किस दी . उस दौरान मेरे दिमाग की सारी बत्तियां अचानक गुल हो गई थी .





मकर संक्रांति के बाद एक दो बार उससे लुक छिपकर मिलना हुआ था . वह शायद मेरा पहला पहला प्यार था शायद उसका नाम न लूं तो भारती था . अचानक कुछ दिनों के बाद बिजनिस के सिलसिले में उनका परिवार गुजरात चला गया और वो भी चली गई उसके बाद उससे कभी मिलना नहीं हुआ . जब जब मकर संक्रांति का पर्व आता है तो उसके चेहरे की मुस्कराहट और और उसका पतंकबाजी करना और ये कह चिल्लाना वो काट दी है बरबस जेहन में घूमने लगता है .

....

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सोमवार, 11 जनवरी 2010

आ...बताएँ तुझे की कैसे होता है बच्चा

राजीव तनेजा


 
बड़े दिन हो गए थे खाली बैठे बैठे... कोई काम-धाम तो था नहीं अपने पास.. बस कभी-कभार कंप्यूटर खोला और थोडी-बहुत 'चैट-वैट' ही कर ली। सच पूछो तो यार बेरोज़गार था मैं और इसमें अपनी सरकार का कोई दोष नहीं, दरअसल!...अपनी पूरी जेनरेशन ही ऐसी है। अब कोई छोटी-मोटी नोकरी तो हम करने से रहे क्योंकि हर किसी ऐरे-गैरे...नत्थू-खैरे को घड़ी-घड़ी कौन सलाम बजाता फिरे ? और फिर कोई छोटा- मोटा धंधा करना तो अपने बस की बात नहीं इसलिए बाप-दादा जो थोडी-बहुत पूंजी छोड गए थे...वो भी आहिस्ता-आहिस्ता खत्म होने को आ रही थी। आखिर!...वो भी भला कब तक साथ देती ? बीवी के तानों का तो शुरू से ही मुझ पर कोई असर होता नहीं था। उसकी हर बात को मैं एक कान से सुनता और दूसरे से बाहर निकाल देता। कई बार तो कान में घुसने तक ही ना देता।
पहले नकदी खत्म हुई फिर  गहने-लत्तों का नंबर भी आ गया। एक-एक करके चीज़ें खत्म होती जा रही थीं लेकिन मेरी अकड़ ढीली होने का नाम ही नहीं ले रही थी। एक दिन मज़े से टीवी पर ' नो-एंट्री ' फिल्म देखते-देखते अचानक मैं खुशी के मारे उछल पडा। इसलिए नहीं कि फिल्म अच्छी थी बल्कि...अपुन के भेजे मे आइडिया आ गया था नोट कमाने का। अरे नोट कमाने का क्या,?...वो तो नोट छापने का आइडिया था। जैसे ही बीवी को बताया कि...
"एक आइडिया मिला है नोट छापने का"...तो वह गश खा कर धड़ाम करती हुए ऐसे गिरी कि वहीं के वहीं बेहोश हो गई। होश मे आने के बाद बोली....
 "बस जेल जाने की कसर ही बाकी रह गई थी .... नोट छाप कर वह भी पूरी करने का इरादा है जनाब का? " 
मेरी हंसी रोके ना रुकी। बोला,...
"अरी भागवान!...नोट छापने का असली मतलब सचमुच में नोट छापना नहीं है".. 
"तो फिर?" 
"देखा नहीं, फिल्म में उस ज्योतिषी को?.... कितनी सफाई से 'सलमान' से पैसे ऐंठ लेता है और अनिल कपूर को बेवकूफ बनाता है"
"तो क्या हुआ?" 
" अपुन का भी बस यही आइडिया है" ...
" तुम्हारे पूरे खानदान में भी कोई ज्योतिषी हुआ है जो तुम बनोगे?"..
" हुआ तो नहीं लेकिन हमारी आनेवाली नस्लें ज़रूर 'राज ज्योतिषी' कहलाएगी"... 
"पर ये सब करोगे कैसे?"... 
"अरे!...कुछ खास मुश्किल नहीं है ये सब...बस...थोड़ा-बहुत त्याग मुझे करना होगा" ...
"तो क्या दारू छोड़ दोगे?"बीवी के चेहरे पे खुशी के बादल आने को थे... 
"पागल हो गई है क्या?...वो भी कोई छोड्ने की चीज़ है?"...
"तो फिर?" बीवी कुछ मायूस सी होती हुई बोली 
"अरे!...ये हीरो-कट बाल छोड़ सीधे-सीधे लम्बे बाल रखूंगा" 
"अरे वाह!..उसमें तो नाई का खर्चा भी बचेगा" बीवी चहक उठी  
"कर दी ना तुमने दो कौड़ी वाली बात?.... अरे!...मैं लाखों में खेलने की सोच रहा हूं और तुम इन छोटी-छोटी बातों पर नज़र गड़ाए बैठी हो"मैं आगबबूला होने का नाटक सा करता हुआ बोला  
"लेकिन आता-जाता तो तुम्हें कुछ है नहीं...खाली वेष बदलने से क्या होगा?" बीवी फिर बोल पड़ी 
"अरे यार!..पहले पूरी प्लानिंग तो सुन ले...बाद मे अपनी बकबक करती रहिओ" 
"जी!...बताऒ" बीवी आतुर नज़रों से मेरी तरफ ताकते हुए बोली 
"हां!...तो मैं त्याग करने की बात कह रहा था...तो दूसरा त्याग ये करना पडेगा कि....ये गोविंदा-छाप चटक-मटक वाले कपड़े छोड़ सिम्पल धोती-कुरता पहनना पड़ेगा" 
"वो तो शादी का पड़ा-पड़ा अभी तक सड़ रहा है अलमारी में" बीवी चहकते हुए फिर बोल पड़ी 
"चलो!...ये काम तो आसान हुआ...अब कोने वाले कबाड़ी की दुकान से रद्दी छांटनी पड़ेगी"  
"आय-हाय।...अब क्या रद्दी भी बेचोगे?" बीवी हैरान हो परेशान होती हुई बोली  
"जब पता नहीं होता ...तो बीच में चोंच मत लड़ाया कर" मैं आँखे तरेर गुस्से से लाल-पीला होता हुआ बोला 
"बेवाकूफ!..पुराने अखबारों में जो भविष्यफल आता है... उन्ही की कतरनों को सम्भालकर रखूंगा, वक्त-बेवक्त काम आएंगी और अगर एस्ट्रॉलजी से रिलेटेड कोई किताब मिल गई तो...अपनी पौ-बारह समझो" 
"पौ-बारह मतलब?"... 
"अरी बेवकूफ!... पौ-बारह मतलब...लॉटरी लग गई समझो"... 
"लेकिन ये 'जन्तर-मन्तर' वगैरा कहां से सीखोगे भला?" 
"कोई खास मुश्किल नहीं है ये सब भी...बस!...'बल्ली सागू' या फिर 'बाबा सहगल' के किसी भी पुराने रैप सॉन्ग को कुछ इस अन्दाज़ से तेज़ी से...होंठो ही होंठो मे बुदबुदाना होगा कि किसी के पल्ले कुछ ना पड़े"...
?...?....?...?....बीवी कि समझ मे कुछ नहीं आ रहा था
"बस!...हो गया.... ' जन्तर-मन्तर काली कलन्तर"...  
"ऒह!...समझ गई...समझ गई"..बीवी का ट्यूबलाईटी अचनक फक्क  से रौशन हो उठा  
बस!..फिर क्या था?...मोटी कमाई के चक्कर में बीवी के बटुए का मुंह खुल चुका था। इसलिए ज़रूरी सामान इकट्ठा करने के बहाने उससे पैसे ले मैं चल पड़ा बाज़ार। पहले ठेके से दारू की बोतल खरीदी और फिर जा पहुंचा बाज़ू वाले कबाड़ी की दुकान पर। एक-दो पेग मरवाए उसे और अपने मतलब की रद्दी छांट लाया। अब दिन-रात एक करके हम मियां-बीवी उन कतरनो का एक-एक अक्षर चाट गए और इस नतीजे पर पहुंचे कि...पूरी दुनिया में इससे आसान काम तो कोई और हो ही नहीं सकता।

अब आप पूछोगे कि...."वो भला कैसे?" 
तो ये भाला मैं आपको क्यों बताऊं और अपने पैरों पे ख़ुद ही कुलहाड़ी मार लूं?....कहीं मुझसे ही कॉम्पिटीशन करने का इरादा तो नहीं है ना आपका?".. 

"क्या कहा?.... चिंता ना करूँ?
"ठीक है!...जब बीवी पर विश्वास करते हुए उसे सब कुछ सच बता दिया था तो आपसे क्या छिपाना?...आपको भी उसी टोन...उसी लैंगवेज़ मे सब कुछ वैसे ही समझा देता हूँ जैसे बीवी को समझाया था"..
"आप भी तो अपने ही हैं...कौन सा पराए हैं?".
"कुछ ख़ास मुश्किल नहीं है ये सब.... बस!...सिम्पल-सी कुछ बातें गांठ बांध लो कि...
  • हर बंदा अपने को अच्छा और बाक़ी सबको बुरा समझता है...  
  • हर-एक को यही लगता है कि वह सही है और बाक़ी सब ग़लत...
  • कोई उसे सही ढंग से समझ ही नहीं पाया आज तक...
  • वह अपनी तरफ़ से कड़ी मेहनत करता है लेकिन उसे उसका पूरा फल नहीं मिलता...
  • सब के सब उसकी कामयाबी से जलते हैं...
  • कोई उसका भला नहीं चाहता...
  • दोस्त-यार...रिश्तेदार...भाई-बहन...पड़ोसी...सब के सब मतलबी हैं...कोई उसकी ख़ुशी से ख़ुश नहीं हैं...
  • वह सब पर तरस ख़ाता है, लेकिन कोई उस पर नहीं...
  • किसी ने उस पर कोई जादू-टोना किया हुआ है... या फ़िर...
  • उसकी दुकान या मकान को बांध दिया है...
"सामने वाले का चौख़टा देख कर अंदाज़ा लगाओ कि उस पर कौन-कौन से डायलॉग फ़िट बैठेंगे?..बस!...चौखटा देखो और मार दो हथौड़ा"...
"यहाँ मेरी इस बात से कहीं ये मतलब ना निकाल लेना कि सामने वाले का चौखटा देखते ही उस पर ज़ोर से हथौड़ा धर देना है...ऐसा करने कि कभी सोचना भी मत...हमेशा के लिए अंदर हो जाओगे"...
"समझ गए ना कि चौखटा देख के सिर्फ डायलाग ही मारने हैं..ईंट-पत्थर या हथौड़े नहीं?"...
"ओ.के!...मुझे आपसे यही उम्मीद भी थी"..
"अगर तीर सही निशाने पर लगा तो समझो कि अपनी तो निकल पड़ी".. 
"अब आप पूछेंगे कि ...अगर निशाना ग़लत लगा तो?" 
"तो उसके लिए...फिकर नॉट... घुमा-फिरा कर 2-4 डायलॉग और मार दो बस...कोई ना कोई तो अटकेगा ज़रूर"..
"और हाँ!... अगर ऊंचे लैवल का गेम खेलना है...तो दो-चार चेले-चपाटे भी साथ रख लो...एक-आध चेली भी मिल जाए तो कहना ही क्या?"...
"अगर कोई ना मिले तो?"..
"चौक से ही दिहाड़ी पर पकड़ लाओ...बड़े बे-रोज़गार हैं अपने देश मे...कोई ना कोई अपने मतलब का मिल ही जाएगा पर हाँ!...इतना ज़रूर ध्यान रखना कि....चेला रखना है...गुरु नहीं"... 
?...?...?..?..
"कहीं ऐसा ना हो कि अगले दिन ही वो तुम्हारे सामने तेल की शीशी और चटाई लिए बैठा...तुम्हारा ही बंटाधार करता नज़र आए"...
"एक ज़रूरी बात...चौक पर बिकने वाला तोता अगर मिल जाए, तो धंधे में और रौनक आ जाएगी"...
"वो कैसे?"...
"कुछ खास नहीं..बस!..तोते को भूखा रखना है और... भविष्य की पर्चियों पर अनाज का दाना चिपका देना है।पंछी बेचारा तो भूख के मारे अनाज के दाने वाली पर्ची उठाएगा और बकरा बेचारा बस यही समझेगा कि मिट्ठू महाराज ने उसका नसीब बांच दिया है"..
"और उस पर्ची के अंदर लिखा क्या होगा?" ...
" हे भगवान!...आप तो हूबहू मेरी बीवी के ही अंदाज़ मे पूछ रहे हैं...इरादा तो ठीक एव नेक है न आपका?...
"कमाल है!...जैसे पूरी रामायण खत्म होने के बाद वो पूछ रही थी कि ..." सीता...राम की कौन थी?" 
"आप भी उसी टोन ...उसी लय मे पूछ रहे हैं कि पर्ची के अंडा क्या लिखा होगा?"...
"मेरा सर लिखा होगा"..
"चढ़ा दिया न बिना बात के गुस्सा?....अब खुश?"....
"ठंडक मिल गई न आपके कलेजे को?"..
"क्या कहा?...खामख्वाह नाराज़ हो रहा हूँ मैं?...गुस्से को थूक दूँ?"...
"ठीक है!...जब कभी मैं अपनी बीवी कि बात नहीं टाल सका तो आपकी कैसे टाल दूँ?"...
"ओ.के!..जैसे मैंने उसे टुट्टा सा जवाब दिया था...आपको भी वैसे ही दे देता हूँ"....
"अरी भागवान!...अभी ऊपर इतने सारे मन्तर तो बताता आया हूँ...उन्ही मे से कोई ना कोई तो ज़रूर फ़िट बैठेगा" मैं दाँत किटकिटा का उन्हे गुस्से से पीसता हुआ बोला
"हम्म!...
"लगता है कि आपकी भी समझ मे बात आ चुकी है"...
"जी"...
"तो फिर आगे कि कथा बांचू?"...
"जी"..
कैसे लोगों का फुददु खींचना है?...ये सब तरीका तो अब तक समझ आ ही चुका था इसलिए बिना किसी प्रकार के देरी किए एक दिन ऊपरवाले का नाम ले बीच बाज़ार पहुँच...ऊँचे वाले बरगद के पेड़ के नीचे अपना डेरा जा जमाया।  कोई न कोई कोई असामी रोज़ टकराने लगी। किसी को कुछ , तो किसी को कुछ इलाज बताता उसकी हर तक़लीफ़ या बीमारी का। एक से तो मैने एक ही झटके में पूरे बारह हज़ार ठग डाले थे। बड़ी आई थी मज़े से कि...
"महाराज!...बच्चा नहीं होता है...कोई उपाय बताओ"
मैंने सोचा कि..."अगर नहीं होता है तो कुछ 'ओवर-टाइम' लगाओ....'माल-शाल' खाओ और अगर फिर भी बात नहीं बनती है तो किसी अच्छे डॉक्टर-शॉक्टर के पास जाओ। ये क्या कि सीधे मुंह उठाया और ज्योतिषी के पास चली आई?"
"अब यार!..अपने घर की ड्यूटी तो ढंग से बजाई नहीं जाती अपुन से,...ऊपर से ओवरटाइम कौन कमबख्त करता फिरे??"...
"लेकिन मंदा है...फिर भी...धंधा तो धंधा है"...
"सो!...उस बेचारी को कुछ उलटी-पुलटी चीज़ें बताई लाने के लिए जैसे...
  •  काली शेरनी का दूध...
  •  जंगली भैंसे का सींग ...
  •  शुतुर्मुर्ग का कलेजा और न जाने क्या-क्या...
 मुँह उतर आया उस बेचारी का कि..."मैं अबला नारी...ये सब लाना मुझे पड़ेगा बहुत भारी"... 

"कहाँ से लाऊंगी ये सब?"... 
"मौके कि नज़ाकत को भाँप मैंने उसे ढांढस बंधाते हुए कहा..." आप चिंता ना करें...परसों...मेरा शागिर्द नेपाल कि तराई के जंगलो से आनेवाला है...उसे ही संदेशा भिजवा देता हूँ...वही लेता आएगा"...

उसने हामी भर दी...और चारा भी क्या था उसके पास? नकद गिन के पूरे बारह हज़ार धरवा लिए...फिर जाने दिया उसे। मोटी-कमाई तो हो ही चुकी थी...सो!...मैंने भी वक्त गँवाना ठीक नहीं समझा और झट से अपना झुल्ली- बिस्तरा संभाल चल पड़ा घर की ओर। रस्ते में विलायती की पेटी ले जाना नहीं भूला। ख़ुश बहुत था मैं उस दिन, बस!...पीता गया, पीता गया। कुछ होश नहीं कि कितनी पी और कितनी नहीं पी?...जब होश आया तो बीवी ने बताया कि...
" पूरे तीन दिन तक टुल्ली रहे आप...ख़ूब उठाने की कोशिश की लेकिन कोई फ़ायदा नहीं...इधर से उठाऊँ तो उधर जा के पसर जाओ...उधर से उठाऊँ तो इधर आ के लंबलेट हो जाओ" 
"तो क्या?...पूरे तीन दिन दुकान बन्द रही?" 
"और नहीं तो क्या?"...
"ओह!...मैं एक झटके से खुद को झटक कर उठ खड़ा हुआ और भाग लिया सीधा दुकान की ओर। पूरे रास्ते यही सोचे जा रहा था कि तीन दिन में पता नहीं कितने का नुक़सान हो गया होगा? कुछ दिनो कि जीतोड़ मेहनत के बाद हाथ कुछ जमने सा लगा था। नतीजन!...गलती से या पता नहीं कैसे मेरे तुक्के सही निशाने पे लगने लगे थे"...
मैंने भी सोच जो लिया था कि....
"लग गया तो तीर...नहीं तो तुक्का सही...बीड़ी नहीं...तो हुक्का सही"..
"मेरे अजीबोगरीब इलाजों से किसी-किसी को थोड़ा-बहुत फ़ायदा भी होने लगा लेकिन 8-10 बार शिकायत भी आई कि...
"महाराज!...आपकी तरकीब तो काम न आई...कोई और जुगाड बताओ"...
ऐसे बकरों का तो मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहता था। एक ही पार्टी को दो-दो दफा जो शैंटी-फ्लैट करने का मज़ा कुछ और होता है। उनके द्वारा किए गये इलाज में कोई न कोई कमी ज़रूर निकालता और नये सिरे से बकरा हलाल होने को तैयार। पुरानी कहावत भी तो है कि...
"खरबूजा चाहे छुरी पर गिरे या फ़िर छुरी खरबूजे पर... कटना तो खरबूजे को ही पड़ता है"... 

अपुन का कॉन्फिडेंस 'टॉप-ओ-टॉप' बढता ही जा रहा था कि एक दिन अचानक एक 'जाट-मोलढ' टकरा गया.... 
पूरी राम कहानी सुनने के बाद मैंने उससे...उसकी परेशानी का इलाज बताने के नाम पर 2 हज़ार माँग लिए। जाट ठहरा जाट...पट्ठा..सौदेबाज़ी पर उतर आया। खूब हील-हुज्जत के बाद आख़िर में सौदा 450 रुपये में पटा। उसने धोती ढीली करते हुए जो नोट निकाले, तो जनाब...मेरी आंखें तो फटी की फटी ही रह गईं। नज़र धोती में बंधी नोटों की गड्डी पर जो जा अटकी थी लेकिन अब क्या फ़ायदा?...जब चिड़िया चुग गयी खेत। मैं तो यही सोचे बैठा था कि बेचारा ग़रीब मानुस है...इसे तो कम से कम बख्श ही दूं"...

"आख़िर!...ऊपर जाने के बाद वहाँ भी तो अपने हर अच्छे-बुरे कर्म का हिसाब देना पड़ेगालेकिन यह बांगड़ू तो मोटी आसामी निकला"...

"उफ़!...यहीं तो मार खा गया इंडिया"... 
साढ़े चार सौ जेब के हवाले करते हुए मुंह से बस यही निकला..."ताऊ!...काम तो करवा रहे हो पूरे अढाई हज़ार का और नोट दिखा रहे हो टट्टू?" 

"बेटा!...टट्टू तो तुमने अभी देखा ही कहाँ है?..वो तो अब मैं तुम्हें दिखाऊंगा" कहते हुए उसने किसी को इशारा किया और तुरंत ही मेरे चारों तरफ़ पुलिस ही पुलिस थी...
"स्साले हरामखोर!...पब्लिक का फुद्दू खींचता है?....अब बताएंगे तुझे...चल थाने"...
"बड़ी शिकायतें मिली हैं तेरे खिलाफ़"...
"स्साले!...वो S.H.O साहेब की मैडम थीं, जिससे तूने बारह हज़ार ठगे थे"...
"चल!...चल अब थाने...हम तुझे बताएंगे कि ....
"बच्चा कैसे होता है?"...
राजीव तनेजा

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शनिवार, 9 जनवरी 2010

साली के बाद अब पत्नी भी आईं पान दुकान में

पत्नी जी मीठा मसाला पान खाने की शौकीन तो हैं पर कभी पान दुकान में आकर नहीं खातीं, अक्सर हम ही ले जाते हैं उनके लिये ताकि वे खुश हो जायें। जब बहुत अधिक खुश करना होता हैं उन्हें तो चांदी के वर्क में लिपटी पान ले कर जाते हैं। पर आज वे पान दुकान में कैसे आ गईं? शायद हमारी साली याने कि अपनी बहन को खोजते खोजते आई होंगी।

हम तो भई, पत्नी को परमेश्वर मानते हैं क्योंकि हम तो वही करते हैं जो हमारे आदरणीय श्री गोपाल प्रसाद व्यास जी कहते हैं, और वे कहते हैं:

पत्नी को परमेश्वर मानो

गोपाल प्रसाद व्यास

यदि ईश्वर में विश्वास न हो,
उससे कुछ फल की आस न हो,
तो अरे नास्तिको! घर बैठे,
साकार ब्रह्‌म को पहचानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो!

वे अन्नपूर्णा जग-जननी,
माया हैं, उनको अपनाओ।
वे शिवा, भवानी, चंडी हैं,
तुम भक्ति करो, कुछ भय खाओ।
सीखो पत्नी-पूजन पद्धति,
पत्नी-अर्चन, पत्नीचर्या
पत्नी-व्रत पालन करो और
पत्नीवत्‌ शास्त्र पढ़े जाओ।
अब कृष्णचंद्र के दिन बीते,
राधा के दिन बढ़ती के हैं।
यह सदी बीसवीं है, भाई!
नारी के ग्रह चढ़ती के हैं।
तुम उनका छाता, कोट, बैग,
ले पीछे-पीछे चला करो,
संध्या को उनकी शय्‌या पर
नियमित मच्छरदानी तानो!!
पत्नी को परमेश्वर मानो!

तुम उनसे पहले उठा करो,
उठते ही चाय तयार करो।
उनके कमरे के कभी अचानक,
खोला नहीं किवाड़ करो।
उनकी पसंद के कार्य करो,
उनकी रुचियों को पहचानो,
तुम उनके प्यारे कुत्ते को,
बस चूमो-चाटो, प्यार करो।
तुम उनको नाविल पढ़ने दो
आओ कुछ घर का काम करो।
वे अगर इधर आ जाएं कहीं ,
तो कहो-प्रिये, आराम करो!
उनकी भौंहें सिगनल समझो,
वे चढ़ीं कहीं तो खैर नहीं,
तुम उन्हें नहीं डिस्टर्ब करो,
ए हटो, बजाने दो प्यानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो!

तुम दफ्तर से आ गए, बैठिए!
उनको क्लब में जाने दो।
वे अगर देर से आती हैं,
तो मत शंका को आने दो।
तुम समझो वह हैं फूल,
कहीं मुरझा न जाएं घर में रहकर!
तुम उन्हें हवा खा आने दो,
तुम उन्हें रोशनी पाने दो,
तुम समझो ‘ऐटीकेट’ सदा,
उनके मित्रों से प्रेम करो।
वे कहाँ, किसलिए जाती हैं-
कुछ मत पूछो, ऐ ‘शेम’ करो!
यदि जग में सुख से जीना है,
कुछ रस की बूँदें पीना है,
तो ऐ विवाहितो, आँख मूँद,
मेरे कहने को सच मानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो ।

मित्रों से जब वह बात करें,
बेहतर है तब मत सुना करो।
तुम दूर अकेले खड़े-खड़े,
बिजली के खंबे गिना करो।

तुम उनकी किसी सहेली को
मत देखो, कभी न बात करो।
उनके पीछे उनके दराज से
कभी नहीं उत्पात करो।
तुम समझ उन्हें स्टीम गैस,
अपने डिब्बे को जोड़ चलो।
जो छोटे स्टेशन आएं तुम,
उन सबको पीछे छोड़ चलो।
जो सँभल कदम तुम चले-चले,
तो हिन्दू-सदगति पाओगे,
मरते ही हूरें घेरेंगी,
तुम चूको नहीं, मुसलमानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो!

तुम उनके फौजी शासन में,
चुपके राशन ले लिया करो।
उनके चेकों पर सही-सही
अपने हस्ताक्षर किया करो।
तुम समझो उन्हें ‘डिफेंस एक्ट’,
कब पता नहीं क्या कर बैठें ?
वे भारत की सरकार, नहीं
उनसे सत्याग्रह किया करो।
छह बजने के पहले से ही,
उनका करफ्यू लग जाता है।
बस हुई जरा-सी चूक कि
झट ही ‘आर्डिनेंस’ बन जाता है।
वे ‘अल्टीमेटम’ दिए बिना ही
युद्ध शुरू कर देती हैं,
उनको अपनी हिटलर समझो,
चर्चिल-सा डिक्टेटर जानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो।

व्यास जी की यह रचना मुझे मेरे स्कूल के दिनों से ही पसंद है। आपको कैसी लगी यह लंबी कविता?

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गुरुवार, 7 जनवरी 2010

बात महिमावान उंगली की ...

बड़ी जोरदार ठण्ड पड़ रही है . घूमते घूमते अपुन आज पान की दूकान पे पहुँच गए . देखा तो पान वाला भी ठण्ड से ठिठुर रहा था . तबई अचानक गिरीश जी की जा बात जेहन में कौंध गई की हमें हर मामले में उंगली करनें में महारत हासिल है और मैंने भी ठान लिया की इस वार्ता को मै आगे बढ़ा दूं.

मैंने सोचा की क्यों न पान वाले को उंगली बताई जाय ... जैसे मैंने उंगली उठाई तो पान वाला बोला - उंगली काय उठा रहे हो ...सीधे सीधे बताओ बाबू कैसा पान लगा दूं .

मैंने डकार लेते हुए कहा जरा पान में कतरी, पिपरमेंट और सौप डाल देना . फिर मैंने पान वाले से कहा तुम्हे मालूम है की मैंने तुम्हे काय उंगली बताई थी . आजकल उंगली की महिमा बढ़ गई है .उंगली है बड़ी काम की चीज . उंगली बताकर किसी को चिढाया जा सकता है .

उंगली बताकर चुनौती भी दी जाती है . श्री कृष्ण ने उंगली बताकर जरासंघ को दो फाड़ करवा दिया था . कोई अच्छा भला खा पी रहा हो तो उसकी गा... एंड में उंगली कर दो बस फिर उसका खूब धुआं देखो और खूब आंच सेको और खूब हा हा हा करो..

कुछ लोगो की बिना बात के उंगुली करने की आदत होती है जो बिना वजह किसी को भी उंगली करते रहते है . देखो जा बात नेट पे तो बहुतई देखी जा रही है....बड़े बड़े पुराने धुरंदर नामी गिरामी चिटठाकार किसी नये या पुराने ब्लागर की खिल्ली उड़ाने के लिए बेवजह उंगली कर देते है . यह बात भी भूलने लायक नहीं है की एक उंगली उठाकर एम्पायर खिलाडी को आउट करार दे देता है ..

विपाशा बासु कम कपडे पहिनकर जब हाथ उठाकर उठाकर उंगली बता कर जब नाचती है तो दीवाने थिरकने लगते है तो दूसरी और संस्कारी बूढ़े विपाशा को कम कपडे पहिनने पर उंगली उठा उठाकर कोसते है . पान वाले ने कहा - भैय्या बहुत तै हो गई...अब जा बताओ भाई ललितजी और बाबा लंगोतानद नहीं दिख रहे है ?

मैंने मुस्कुराकर पान वाले से कहा - भैय्ये ठण्ड ज्यादा पद रही है कही उंगली कर रहे होंगे.
इस बात पर पान वाले और मैंने जोर का ठहाका लगाया और मैंने वहां से हंसते हंसते बिदा ली .


चर्चा पान की दूकान पर - महेंद्र मिश्र जबलपुर वालो द्वारा

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मंगलवार, 5 जनवरी 2010

मृतकों का जन्म दिन क्यों मनाते हैं

हमारे एक मित्र ने अचानक एक सवाल किया कि यार यह बात समझ नहीं आती है कि लोग मृतकों का जन्म दिन क्यों मनाते हैं। उनके इस सवाल के बाद हम भी सोचने पर मजबूर हो गए हैं, कि वास्तव में जहां अपने देश में आधी से ज्यादा आबादी भूखी और नंगी है और लोगों के पास न तो खाने के लिए पैसे हैं और न तन ढ़कने के लिए कपड़े हैं, उस देश में बड़े-बड़े लोगों के जन्मदिन मरने के बाद भी क्यों मनाए जाते हैं। कुछ बड़े लोगों के जन्म दिन का जरूर यह फायदा हो जाता है, कि उस दिन गरीबों को कपड़े बांटे जाते हैं और खाना खिलाया जाता है, पर कितने लोग ऐसा करते हैं।देश के नेताओं के साथ बड़े लोगों का जन्म दिन मनाने की परंपरा आखिर क्यों है? मृतकों का जन्म दिन मनाने से क्या फायदा है?

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सोमवार, 4 जनवरी 2010

दोस्त-दोस्त ना रहा

***राजीव तनेजा***

"दोस्त-दोस्त ना रहा...प्यार-प्यार ना रहा....ऐ ज़िन्दगी हमें तेरा एतबार ना रहा"
आज टी.वी पर 'संगम' फिल्म का ये गीत ना चाहते हुए भी बार-बार मुझे पुरानी यादों की तरफ पुन: लौटाए लिए जा रहा था...
ऐ मेरे प्यारे दोस्त...मैँ तुझे कहाँ ढूँढू?...कैसे ढूँढू? ...प्लीज़!...लौट आ...तू लौट आ...
सब मेरी ही गलती है...सब मेरी ही कमी है...मुझे ही संयम से काम लेना चाहिए था। आखिर!...इसमें गलती ही क्या थी उसकी? सरल मानवीय इच्छाओं के विकेन्द्रीयकरण से वशीभूत हो के ही तो उसने ऐसा किया था...उसकी जगह अगर कोई और ये सब करता तो क्या तब भी मैँ इतना ही क्रोधित होता?...इतना विचलित होता?...शायद नहीं....
ध्यान बरबस पुरानी यादों की तरफ जाता जा रहा था...बात कुछ ज़्यादा पुरानी नहीं...बस!...कुछ ही साल तो हुए थे इस बात को...जब मैँने नया-नया लिखना शुरू किया था। इसी चीज़ का ही तो गुस्सा था ना मुझे कि वो मेरी कहानियों को नहीं पढता है?...उन पर कमैंट नहीं करता है...उलटा मेरा उपहास उड़ा...मुझे इग्नोर करने की कोशिश करता है?...जब भी कुछ दो पढने के लिए तो पहले यही सवाल कि...
"दिन-रात इतनी मगजमारी करते हो...कुछ मिलता भी है इससे?"...
"अरे!..नहीं मिलता तो ना मिले..कौन सा तुम्हारे घर की चक्की का पिसा आटा खा रहा हूँ?"...
लेकिन नहीं!..कीड़ा जो है दूसरे के फटे में टाँग अड़ाने का...सो!..बिना अड़ाए चैन कहाँ मिलने वाला था  हुज़ूर को?....लेकिन सिर्फ इस अकेले को ही क्यों दोष दूँ?...बाकी दोस्त भी कौन सा दूध के धुले थे? जब भी मैँ उन्हें जोश में आ गर्व से बताता कि इस फलानी-फलानी कहानी को मैँने लगातार आठ घंटे तक कांटीन्यूअसली लिख कर पूरा किया है तो वो ऊपर से नीचे तक मुझे ऐसे देखते मानों मैँ किसी अजायबघर में रखने वाली चीज़ होऊँ । मेरे हाथ में कोरा सफा देख के भी ऐसे बिदकते थे जैसे किसी मदमस्त घोड़ी को देख कर  कोई तृप्त घोड़ा बिदकता है। दूर से ही कन्नी काटने लगे थे सब के सब। ये तो मैँ ही था जो लेखन के प्रति अपने जीवट और ज़ुनून के चलते कभी-कभार लपक के उन्हें पकड़ने में कामयाब हो जाया करता था। वैसे!...सच कहूँ तो  ज़्यादातर मामलों में वो खिसक कर नौ दो ग्यारह होने में ही अपनी भलाई समझते थे।
सच ही तो है आजकल कोई किसी का यार नहीं....दोस्त नहीं। सब के सब स्साले!...मतलबी इनसान...सामने कुछ और पीठ पीछे कुछ। हत्थे चढ जाने पर मेरी ऊटपटांग कहाँनियों और मेल्ज़ की मेरे सामने तो जी भर के तारीफ करते और पीठ पीछे?...पीठ पीछे बेधड़क हो के उन्हें बिना चैक किए ही डिलीट मार डालते।
वाह!...रे दोस्तो...वाह...खूब दोस्ती निभा रहे हो...वाह
बेशर्म हो के कभी पूछ लो तो...."यार!..अच्छी थी...बहुत अच्छी लेकिन याद नहीं :-( ...सब की सब मिक्स हो गई हैँ"....
"याद नहीं?...या पढी ही नहीं?"...
वैसे उनका भी क्या कसूर? आखिर!...वो भी तो तंग आ चुके थे ना इस सब से? उनकी मेल आई.डी...जंक मेल्ज़ का अड्डा जो बन चुकी थी मेरी वजह से। दरअसल!...हुआ क्या कि कुछ ज़रूरत से ज़्यादा समझदार इनसानो ने पकी-पकायी खाने की सोची और डाईरैक्ट ही कापी-पेस्ट कर डाली मेरी मेलिंग लिस्ट। सोचा होगा कि अब कौन कम्बख्त एक-एक ग्राहक ढूंढता फिरे गली-गली कि...
"अल्लाह के नाम पे....मौला के नाम पे....ऊपरवाले के नाम पे....कोई तो मेरी पोस्ट 'पढ लो बाबा"...
"बस!...एक-दो किस्से-कहानियों से सजी छोटी सी पोस्ट का ही तो सवाल है बाबा"...
ये तो वही बात हुई कि करे कोई और....भरे कोई। पंगा लिया दूसरों ने और गाज धड़ाधड़ मुझ पर गिरने लगी...सब के सब? दूर भागने लगे थे मुझसे। नौकरी अपनी कभी लगी नहीं और धन्धा करने का कभी सोचा नहीं...इसलिए अपने पास लिखने-लिखाने के अलावा और कोई काम तो होता नहीं था कि मैँ उस में व्यस्त हो अपने वारे-न्यारे करता फिरूँ। और फिर अपनी कोई गर्ल फ्रैंड...माशूका या रखैल तो थी नहीं कि मैँ दिन-रात उसी में व्यस्त हो मस्त रहूँ इसलिए सबको हमेशा मेल भेज-भेज कि उनकी प्रतिक्रिया वगैरा माँगता रहता था अपनी कहानियों और लेखों के बारे में। पहले तो मज़े-मज़े में सब यही कहते कि...

"आपकी कहानियाँ बडी ही 'फन्नी' होती हैँ"...
"अरे!...जब ऊपरवाले ने अपुन का चौखटा 'फन्नी' बनाने में कोई कसर नहीं छोडी तो मैँ भला कौन होता हूँ अपनी कहानियों को 'फन्नी' बनाने से रोकने वाला?" ...
जो मिलता...जैसा मिलता...तुरंत ऎड कर डालता उसे अपनी याहू की मैसेंजर लिस्ट में। अब!...अपुन ठहरे पूरे के पूरे चेपू किस्म के इंसान...अपने को तो बस एक मौका चाहिए...फिर पीछा कौन कम्बख्त छोड़ता है?  
सो!...तंग आ के किसी ने ऑफ-लाईन रहना शुरू कर दिया तो किसी ने इगनोर मारना। कुछ तो स्साले इस हद तक भी गिर गये कि सीधे-सीधे ब्लैक लिस्ट ही कर डाला कि सारा का सारा टंटा ही खत्म।  खेल खत्म और पैसा हज़म...अपुन रह गये फिर वैसे के वैसे ...ठन-ठन गोपाल। सही कहा है किसी नेक बन्दे ने कि....खाली बैठे आदमी का दिमाग शैतान का होता है और अपुन तो पूरे के पूरे सोलह-आने फिट बैठते थे इस बात पर। सो!...एक दिन फटाक से अपुन के भेजे में एक कमाल का आईडिया भेज डाला ऊपरवाले ने।
"वाह!...क्या आईडिया था?... वाह....वाह"...
जी तो चाह रहा था कि किसी तरीके से अपनी गरदन ही लम्बी कर डालूं और खुद ही चूम डालूँ अपना खुराफाती दिमाग...अब कोई और तो अपनी तारीफ करने से रहा इस मतलबी ज़माने में तो खुद ही मियाँ मिट्ठू बनने में क्या बुराई है? 

वाह-वाह!... क्या दिमाग पाया है....वाह-वाह...
"सुभान अल्लाह"...
अब आव देखा ना ताव और बना डाली दो-चार 'फेक आई.डी' कि अब देखता हूँ कि कैसे सब मुझे इग्नोर मारते हैँ? अब सब्र कहाँ था मुझे? और रुकना भी कौन कम्बख्त चाहता था? सो!...सीधा टपक पड़ा इग्नोर मारने वालों पर कि...
"लो स्सालो!...ऐड का इंवीटेशन इधर से भी और उधर से भी...थप्पाक...थप्पाक"...

"देखता हूँ बच्चू!...कैसे बच निकलते हो मेरे इस मकड़जाल से?" 
लेकिन अफ्सोस!...बात कुछ जम नहीं रही थी....ऐरे-गैरे...नत्थू-खैरे तो कूद-कूद के ऐसे रिप्लाई देने लगे
जैसे मुझसे गले मिले बिना उनका बदन अकड़े जा रहा था। ऐँठन नही छूट रही थी प्यार भरी झप्पी के बिना।सब के सब मिलने को बेताब हो उठे थे स्साले लेकिन...जिसका मुझे था इंतज़ार...वो घड़ी नहीं आयी। अरे यार!..लड़कियोँ की बात कर रहा हूँ...और भला मुझे किसका इंतज़ार होना था? पता नहीं इन कम्बख्तमारियों को मुझसे क्या ऐलर्जी है मुझसे? बड़ा ही पुट्ठा उसूल जो बना डाला है खुद के लिये कि...
ये खुद तो जिसे चाहेँ अपनी मर्ज़ी से जोड़ डालें अपनी लिस्ट में लेकिन इनकी खुद की मर्ज़ी के बिना कोई परिन्दा भी अपने पर ना फड़फड़ा सके इनके इलाके में । सही कहा है किसी बन्दे ने कि ...
"कहने से कुम्हार गधे पर नहीं चढा करता" 

इसलिए तंग आ के मैँने सोचा कि अब ये खुद तो घास डालने से रही मुझे...सो!..अपने चारे का खुद इंतज़ाम करने में ही अपनी भलाई है वैसे भी कभी किसी किताब में पढा था कभी कि...अपना हाथ...जगन्नाथ ...याने के अपना काम स्वंय करो। सो!..ये सोच मेरे खुराफाती दिमाग ने करवट ली और एक और फेक आई.डी बना डाली। आफकोर्स!...इस बार किसी लड़की के नाम से। 
बिना इस्तेमाल किये पड़ी ही कई दिनो तक मानो किसी शुभ महूरत का इन्तज़ार था उसे । ऊपरवाले की दया से एक दिन वो शुभ घडी आ ही गयी और निकल पडा महूरत। दरअसल!...हुया क्या कि एक दिन अपने एक लंगोटिया यार से फोन पर बात करते-करते मैने कुछ हवाई फायर कर डाले कि....
"अपनी तो निकल पड़ी...मुझ पर तो कई लड़कियाँ मर मिटी हैँ...फुल्लटू फिदा हैँ मेरी लेखनी पर" 

दोस्त को मानो यकीन ही नहीं हुआ...ताना मारते हुए बोला "लडकी?....और तुम पे?" 
"हाँ-हाँ!...क्यों नहीं?" मेरा संयत सा संक्षिप्त जवाब था...
"हुँह!...किसी एक की 'आई डी' तो बताओ ज़रा" 
"आखिर!...पता तो चले कि कितने पानी में हैँ हुज़ूर" 
मेरे दिल में ना जाने क्या आया और मैँने झट से अपनी वही फेक वाली आ.डी थमा दी उसे । बस!...फिर क्या था जनाब?...जो ऑफलाईन पे ऑफलाईन टपकने चालू हुए कि बस टपकते ही चले गए ।शुरू-शुरू में तो मैँ इग्नोर मारता रहा लेकिन बाद में ना जाने क्या शरारत सूझी कि मैँने भी पंगे लेने शुरू कर दिए।  अब उस से रोज़ ऐसे चैट करता जैसे मैँ कोई लड़की हूँ और किसी दूसरे शहर से उनके शहर में रहने के लिये नई-नई आई हूँ। फोटो तो मैँ पहले ही किसी और की चिपका चुका था अपने इस प्रोफाईल के साथ...पता नहीं किसकी फोटो थी लेकिन जो भी थी...थी बड़ी ही झकास ।यूँ समझ लो कि पूरी बम थी बम वो भी कोई ऐसा-वैसा...लोकल सा सुतली बम नहीं बल्कि गोला बम वो मुर्गाछाप का। अब!...दोस्त ठहरा आदमज़ात....लार टपक पड़ी उसकी...पटाने के चक्कर में लग गया। मैँ लाईन क्लीयर दूँ और वो ना पटे?...ऐसी सोच भी भला कोई कैसे सोच सकता था? खूब मज़े आ रहे थे उससे गुफ्तगू करने में लेकिन हद तो तब हो गयी जब वो स्साला!..हराम का जना...मेरा ही पत्ता काटने की फिराक में लग गया। 
वही हुआ जिसका मुझे अन्देशा था....एक दिन बेशर्म हो उसने कह ही दिया कि....

"तुम्हें इस 'राजीव' से घटिया इंसान नहीं मिला पूरे मकड़जाल में जो इस नामुराद से दोस्ती कर बैठी?"... 
"मैँने कहा..."क्यों?...क्या कमी है उसमें?....इतना हैण्डसम तो है"...
"बस!...यहीं...यहीं तो धोखा खा जाती हैँ सब उससे"...
"क्क्या मतलब?...मतलब क्या है आपका?"...
"है तो वो 50 के आस-पास लेकिन पिछले सात साल से वो सभी लड़कियों को अपनी उम्र '30+' ही बताता चला आ रहा है"...
"और उस से पहले?"...
"20 +"
क्या?"...
"और हिम्मत तो देखो उस मरदूद की...फोटो भी अपनी बीस साल पुरानी वाली दिखाता है" 
"क्या?...क्या कह रहे हो तुम?"...
"असल में उसके आठ बच्चे हैँ"... 
"आठ?" मैँ कुछ चौंकता हुआ सा बोला 
"और नहीं तो क्या साठ?"...
"?...?...?...?...?"...
"जी हाँ!...पूरे आठ...आठ बच्चे हैँ उसके..गोया...बच्चे ना हुए...पूरी पलटन हो गयी"...
"ओह!...लेकिन वो तो सिर्फ दो ही बता रहा था" 
"एक नम्बर का झूठा है स्साला".. 
"एक मिनट!..सब आ गया समझ..
"?...?...?...?"...
"हम्म!..तो जनाब..नयी वाली से दो बता रहे होंगे"... 
"नयी वाली से?" मैँ हैरान-परेशान होता हुआ बोला
"जी हाँ!..नयी वाली से...बाकी सब गोल कर दिए होंगे जनाब ने"... 

"श्शायद"....
"तो क्या उसने इस बारे में आपको कुछ नहीं बताया?" अचरज भरे शब्दों में टाईप किया गया 
"नहीं तो"मैँ अनजान बनता हुआ बोला...
"ओह!...
"आखिर बात क्या है?".... 
"क्कुछ नहीं!...कुछ खास नहीं"...
"फिर भी!...पता तो चले".... 
"कहा ना...कि कुछ नहीं"..
"नहीं!..तुम कुछ छिपा रहे हो....बताओ ना...प्लीज़...तुम्हें हमारी नयी-नयी दोस्ती का वास्ता"...
"अब जब आप इतना रिक्वैस्ट कर रही हैँ तो बताए देता हूँ लेकिन प्लीज़!...मेरा नाम नहीं लेना...बुरा मान जाएगा... जिगरी दोस्त है मेरा"... 
"जी"...
"बरसों की दोस्ती पल भर में ना टूट जाए कहीं" दोस्त भावुक होता हुआ बोला 
"अरे यार!...इतनी बुद्धू भी नहीं हूँ कि ये भी ना जानूँ कि कौन सी बात कहनी है और कौन सी नहीं? "मैने समझदारी से काम लेते हुए कहा
"पहले वाली तो उसे छोड़ भाग खडी हुई थी ना ड्राईवर के साथ"... 
मैँ सन्न रह गया ... अब तक तो मैँ सारी बात मज़ाक-मज़ाक में ही ले रहा था लेकिन ये उल्लू का पट्ठा तो एक साँस में बिना रुके ऐसे झूठ पे झूठ बोले चला जा रहा था मानो 'बुश' के बाद इसी का नम्बर हो।
पता नहीं कौन सा मैडल मिल जाना था  या कौन सी फीतियाँ लग जानी थी उसके कँधे पे ये सब बोल-बोल के। जी तो चाहता था कि एक ही घूंसे में सबक सिखा दूँ पट्ठे को लेकिन चाहकर भी कुछ कर नहीं पा रहा था मैँ ...पोल खुलने का डर जो था। सो!...चुप लगाना ही ठीक समझा मैँने लेकिन मैँ भी तो आखिर इनसान हूँ इसलिए अपने गुस्से पर बरसक काबू पाते हुए मैने बड़े ही प्यार से तिलमिलाते हुए पूछा "आखिर!...वो इसे छोड़ कर गयी ही क्यों?" 

"अब ये तो ऊपरवाला ही जाने कि क्या चक्कर था और क्या नहीं लेकिन कुछ ना कुछ कमी तो ज़रूर रही होगी इसमें"... 
"लेकिन..
"अब अगर रोज़-रोज़ कोठे पे जाएगा तो बीवी भी तो कहीं ना कहीं तो मुँह काला करेगी ही ना?" 
"क्या उसके कुछ अरमान नहीं हो सकते? ...और आखिर क्या नाजायज़ ही क्या था इसमें?" 
मेरा गुस्सा हर पल आपे से बाहर होता जा रहा था लेकिन वो बेशर्म चुप होने के बजाए नये-नये...इल्ज़ाम पे इल्ज़ाम थोपे चला जा रहा था मुझ पे 
"ये तो उसकी जुए की लत छुड़वा दी मैने वर्ना...कब का बे-भाव बिक गया होता बीच बाज़ार में" 
"ओह!...तो क्या जुआ भी खेलता है?" 
"और नहीं तो क्या?...एक नम्बर का जुआरी है स्साला...एक नम्बर का"... 
"ओह!...
"एक दिन तो उसने दारू के नशे में... 
"अब ये ना कहना कि तुम्हें दारू के बारे में कुछ भी नहीं पता"... 
"सच्ची!...कसम से....नहीं पता".... 
"बिलकुल नहीं पता?".... 
"नहीं पता"...
"मेरी कसम खाओ"...
"तुम्हारी कसम...मुझे कुछ नहीं पता"... 
"कुछ सही भी बताया है उसने?...या सब का सब झूठ?"  
मैने अनजान बनते हुए साफ मना कर दिया कि ... "मुझे कुछ भी नहीं मालुम"
"हद है!....पता नहीं इतना झूठ कैसे बोल लेते हैँ लोग?.... और वो भी एक भोली-भाली लड़की से".... 
"राम!....राम..घोर कलयुग...शराफत का तो ज़माना ही नहीं रहा" 
"पता नहीं इस गाँधी-नेहरू के देश को क्या होता जा रहा है?" ...
"क्या यही शिक्षा दी थी हमारे कर्णधारों ने?"... 
"तुम दारू पीने की बात कर रहे थे?"... 
"अब छोडो यार!....दोस्त है मेरा...समझा करो"...  
"सब समझ रही हूँ मैँ"...
"यार!..तुम तो ऐसे ही बुरा मान रही हो..कल को अगर उसे पता चल गया कि मैँने ही उसकी पोल-पट्टी खोली है तुम्हारे सामने तो मैँ क्या मुँह दिखाऊँगा उसे?...बुरा ना बन जाउंगा दोस्त की नज़र में?" ...
"कैसे पता चलेगा उसे?..मैँ तुम्हारा नाम थोड़े ही लूँगी उसके आगे?"...
"प्रामिस?"...
"गॉड प्रामिस"...
"बस एक दिन ऐसे बैठे-बिठाए खुद...अपनी ही बीवी को हार बैठा जुए में"...
"क्या?"....
"ये तो शुक्र है ऊपरवाले का कि सामने जीतने वाला मैँ ही था.... सो!..बक्श दिया"...
"ओह!..आपकी जगह कोई और होता तो उसने तो सरेआम जलूस निकाल देना था"मैँ मासूम स्वर में बोला..
"और नहीं तो क्या?"दोस्त के शब्दों में गर्वाहट आ चुकी थी 
"यार!...तुमसे एक बात कहनी थी...अगर बुरा ना मानें तो"दोस्त कुछ सकुचाहट भरे शब्दों में बोला.... 

"जी!...कहें?"...
"जब से आपसे 'चैट' करने लगा हूँ....पता नही क्या होता जा रहा है मुझे".... 
"ना दिन को चैन और ना ही रात को आराम?" ...
"जी!...बिलकुल...आपने कैसे जाना?"...
"यही हालत तो मेरी भी है बुद्धू"....
"सच?"...
"और नहीं तो क्या झूठ?"...
"हर वक़्त बस आपका ही सुरूर सा छाया रहता है दिल में"... 
"और मेरे दिल की हालत तो पूछो....लाखों लड़कों के साथ मैँने हर तरह की बातें की लेकिन पहले कभी ऐसा नहीं लगा कि....
"लगा कि?"....
"छोड़ो ना!...मुझे शर्म आती है"...
"पगली!..मुझसे कैसी शर्म?...बताओ ना कि कैसा लगा?"... 
"मुझे ऐसा लगा कि जैसे हम पिछले जन्म के बिछुड़े हुए प्रेमी हैँ और.....
"इस जन्म में हमारा फिर से मिलन हो रहा है?"...
"जी"...
मेरे इतना लिखते ही उस कमीने की तो बाँछे खिल उठी...सारी हदें लाँघता हुआ....सारी दिवारें फाँदता हुआ'... सारी लक्ष्मण रेखाएँ पार करता हुआ एकदम से बोल पड़ा...
"अच्छा!...फिर एक पप्पी दो ना"... 

"नहीं" 
"प्लीज़!... 
"नहीं!..कहा ना..अभी नहीं"... 
"अच्छा बाबा!...बस एक छोटी सी....प्यारी सी 'किस्सी' ही दे दो...ऊम..म्म्म.ऊय्या .. ह्ह" 
"नहीं!..कभी नहीं.... 
"प्लीज़!... 
"मतलब ही नहीं पैदा होता"...मैँ सकपका चुका था.... 
उसकी बातें सुन जी मिचलाने को हो रहा था....मुँह बकबका सा होकर रह गया। हाँ!...अगर सामने लड़की होती...तो और बात होती...फिर तो कोई पागल ही मना करता लेकिन...पप्पी...वो भी एक लडके को".. 
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"क्या मैँ तुम्हें अच्छा नहीं लगता?"...
"नहीं!...ये बात नहीं है जानूँ...अच्छे तो तुम मुझे बहुत लगते हो"....
"तो फिर क्या बात है?"..
"कुछ नहीं"...
"फिर ऐसे रूडली क्यों बिहेव कर रही हो मुझसे?" दोस्त कुछ रुआँसा सा होता हुआ बोला
"रूडली कहाँ?...मैँ तो बड़े प्यार से तुमसे बात कर रही हूँ"...
"नहीं!..तुम गुस्से से बात कर रही हो"...
"अरे नहीं बाबा...प्यार से ही बात कर रही हूँ...तुम समझ नहीं रहे हो"...
"नहीं!...अगर प्यार से बात कर रही होती तो एक छोटी सी 'पप्पी' ...प्यारी सी 'किस्सी' देने के लिए इनकार नहीं करती"...
"समझा करो बाबा!...अभी मूड नहीं है"मैँ तिलमिला कर दाँत पीसता हुआ उसे समझाने की कोशिश कर रहा था..
"लेकिन मैँ तो पूरा मूड बना चुका हूँ...उसका क्या करूँ?"...
"तो फिर जा के अपनी माँ की चुम्मी ले ले"..
"क्क्या?...क्या बकवास कर रही हो?"...
"बकवास मैँ नहीं बल्कि तू कर रहा है स्साले"...
क्या मतलब?...मतलब क्या है तुम्हारा?"...
"मेरा मतलब ये है बेटे बनवारीलाल कि अपनी जिस फूफी से तू अभी तक चैट कर रहा था ना...वो स्साले!...कोई लड़की-वड़की नहीं बल्कि मैँ खुद...पूरा का पूरा...खालिस-शुद्ध...एकदम एकदम असली का राजीव हूँ"....
"झूठ!...बिलकुल झूठ...मैँ नहीं मानता"...
"तेरे मानने या नहीं मानने से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला...मुझे झेलने की है हिम्मत तुझमें ...तो बोल...मैँ वैब कैम ऑन करता हूँ"...
बस!...वो दिन है और आज का दिन है जनाब...वो ऐसे गायब हुआ  जैसे गधे के सर से सींग। उसके बाद कभी ऑनलाईन ही नहीं हुआ और और होता भी किस मुँह से? लेकिन इधर अब समय बीतने के साथ मैने अपना मन बदल लिया है.. सब गिले-शिकवे भूल मैँ उसी की बाट जोह रहा हूँ। बरसों पुरानी दोस्ती को यूँ ही छोटी-छोटी बातों पर खत्म करना ठीक नहीं।  ऐसा भी क्या गलत किया उसने? अगर उसकी जगह मैँ होता तो क्या मैँ भी यही सब ना करता?... सच पूछिए तो आत्मग्लानी से भर उठा हूँ मैँ। मुझे अपने गुस्से पे काबू रखना चाहिए था। हद होती है यार गुस्से की भी...इतनी जल्दी आपा नहीं खोना चाहिए था मुझे। इस गुस्से ने तो बड़े-बड़ों को बरबाद कर के रख दिया...मैँ चीज़ ही क्या हूँ? अब तो बस सारा-सारा दिन उसी के इंतज़ार में क्म्प्यूटर के आगे बैठा रहता हूँ कि शायद!...वो भी कभी...किसी घड़ी ऑनलाईन मिल जाए और मेरे गुनाह...मेरे पाप धुल सकें और मैँ उस से बस यही एक बात कह सकूँ कि..... 
"ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे ....तोड़ेंगे उम्र भर...तेरा साथ ना छोड़ेंगे...ये दोस्ती.... 
अब तो बस एक ही तमन्ना बची है दिल में कि...या तो वो मुझे मिल जाए जिसे मैँ बेवाकूफी की वजह से खो चुका हूँ या फिर मुझे मुक्ति मिल जाए मुझे इस नारकीय जीवन से।  "आखिर!...क्या फर्क पड़ जाता अगर वो मेरी एक...ज़रा सी 'किस्सी'ले लेता?" 
"अच्छा या बुरा सही...लड़की नहीं तो.....लड़का ही सही"... 
"बस!...काम चलना चाहिये...चलता रहना चाहिए" 
"जय हिन्द" 
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
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