गुरुवार, 12 नवंबर 2009

कौवों की मार्केटिंग

गिरीश  पंकज     
इस दौर में कौवे हिट हैं, और कोयलें फ्लॉप। मार्केटिंग का दौर है भई।
पान ठेला बंद था.उसकी छत पर बैठे एक कौवे ने कोयल से कहा--''देख लेना इस बार सर्वश्रेष्ठï गायक का सम्मान मुझे मिलेगा।''
 ''लेकिन आवाज तो मेरी मधुर है।''  कोयल चकरा कर बोली
''लेकिन मार्केटिंग और सेटिंग तो अपुन की तगड़ी है न।''  इस बार कौवे ने कौवाते हुए कहा,  'तू करती रहना कुहू-कुहू बोले कोयलिया और मैं एसएमएस करवा-करवा कर बाजी मार लूँगा।''
कोयल हमेशा की तरह उदास हो गई। तभी पनवाडी आ गया. दूकान खोलने लगा तो कौवा उड़ गया. कोयल कुछ देर बैठी रही फिर वह भी उड़  गयी. बेचारी....घर में बैठे घंटों रियाज करती रहती है। लोगों का मन प्रफुल्लित हो जाता है। उधर कौवा काँव-काँव करते हुए मंचों पर धूम मचा रहा है। कोयल अब तक उदास है क्योंकि कौवा कलाकारी के साथ बदमाश है। खोटे सिक्कों का चलन पुरानी कहावत है लेकिन अब नई कहावत गढऩी होगी। अब कहना होगा, कि सौ रुपए का नोट पाँच रुपए में चल रहा है। सच्ची प्रतिभा सौ रुपए का नोट है जिसकी कीमत समाजरूपी बाज़ार पाँच रुपए लगाता है।
अच्छा शास्त्रीय गायक घर बैठ घंटों अभ्यास करता है और उधर कानफोड़ू संगीत के सहारे चिल्लाने वाला गायक हिट हो जाता है। अच्छी चित्रकारी को कोई नहीं पूछता और मॉडर्न आर्ट के नाम पर न समझ में आने वाली पेंटिंग लाखों में खरीद ली जाती है। कला फिल्म फ्लॉप हो जाती है और कला के नाम पर कपड़े उतारने वाली फिल्म सुपर हिट। छंदबद्ध कविता लिखने वाले कवियों को प्रकाशक घास नहीं डालता मगर नई कविता के नाम पर आड़े-तिरछे और दुर्बोध किस्म के गद्य विचार पेलने वाले अफसरनुमा कवियों के संग्रह धड़ल्ले के साथ छपते रहते हैं।
पान दूकान खुली नहीं कि मेरा मित्र विचित्र सिंह पहुँच जाता है. बोहनी कर देता है.
उस दिन मै भी पहुच गया. मुझे देख कर विचित्र सिंह ने छेड़ना शुरू किया-''जै-जै श्रीराम.. सौ रुपए के नोट का पाँच रुपइया दाम..। सौ रुपए के नोट सिर पीटते हैं कि उनका बाजार मूल्य पाँच रुपइया बारह आना रह गया है। अब तो कोई बारह आना भी नहीं देता। सौ रुपइया धारक को पाँच रुपइया मिलता है बस। साहित्य, कला, राजनीति, धर्म, पत्रकारिता, हर जगह यही हालत है, कि कौवे हिट हैं। प्रतिभारूपी - कोयल घर के किसी कोने में बैठी कूक रही है। उसकी कोई नहीं सुनता। क्या करे बेचारी। यार, ये सब क्या हो रिया है?''
मैंने कहा- ''सीधी-सी बात है, कौवे के पास एप्रोच है और उत्कोच (रिश्वत) दोनों है। अब जनता को भी कौवों की काँव-काँव ज्यादा भली लगती है, क्योंकि साथ में डीजे भी चलता रहता है न ।''
हमारा कलाकार विचित्र सिंह मित्र बड़ा टेलेंटेड है। मगर उसका कोई गॉडफादर नहीं है। फिर भी मैं उसे गलत सलाह देता हूँ।  मैंने कहा, ''तुम गॉडफादर तलाश मत करो। केवल अपने गॉड पर भरोसा करो। एक दिन मौका मिलेगा। न भी मिले तो कोई बात नहीं। इसी में संतोष कर लो कि तुम खोटे सिक्के नहीं हो, कौवे नहीं हो। इस दौर को दूर से ही प्रणाम करते हुए साधना जारी रखो।''
मेरी बात सुन कर मुसकरा कर मित्र विचित्र सिंह खामोश हो गया।
मैं भी समझ गया कि उसकी मुसकान क्या कह रही है। वह व्यंग्य कर रही थी, उस प्रवृत्ति पर जो प्रतिभारूपी सौ रुपए को पाँच रुपए की औकात वाला बना देती है। विचित्र सिंह बोल रहे थे-''अजब दौर है भई। हमारे निर्णायक, हमारे आलोचक भी पता नहीं किसके दबाव में आकर अकसर कौवों को ही कला-शिरोमणि का खिताब दे देते हैं और कोयल की ओर निहारते तक नहीं।
मैंने कहा-'' कोयल मार्केटिंग में कमजोर है। उसके पास किसी किस्म की एप्रोच भी नहीं है। उधर कौवों का कंठ मार्केट को रौंद रहा है।  अब कोयल को भी कुछ करना होगा.''
विचित्र सिंह कहा-''ठीक कहते हो भाई, लेकिन कोयल लंद-फंद नही  कर सकतीं न खैर, ये सब चलता ही रहता है. तुम तो पान खाओ और काम पर चलो. कल फिर यही मिलते है''
मुंह में पान दबाने के बाद मैं सलाम-नमस्ते करते हुए आगे बढ़ गया.

3 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari 13 नवंबर 2009 को 5:41 am बजे  

बस जी, मार्केटिंग और नेटवर्किंग का जमाना है. सही कहा.

मनोज कुमार 13 नवंबर 2009 को 9:09 am बजे  

यथार्थ लेखन।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद 13 नवंबर 2009 को 1:52 pm बजे  

हां जी, सक्षम मार्केटिंग से मिट्टी भी चूने के दाम बिक सकती है :)