मंगलवार, 3 नवंबर 2009

केवल गम्भीर चिंता करने वाले चिंतक ही इसे पढ़ें - शरद कोकास



 व्यंग्य और कविता की जुगलबन्दी

हमारे देश में चिंता और चिंतन के द्वन्द्व की परम्परा सदा से रही है । यहाँ हर चिंता करने वाला चिंतक भी है। कई लोग सुबह से ही इस चिंता में डूबे रहते हैं की आज का दिन किस चिंता में बिताया जाये । ऐसा कौन सा चिंतन प्रस्तुत किया जाये जो यह प्रदर्शित करे कि देश और समाज की हमें भी चिंता है । या ऐसी कौनसी चिंता पाली जाये जो चिंतन की तरह महसूस हो । जैसे आज हमारे मित्र ललित शर्मा की सुबह से ही यह चिंता थी कि आज ब्लॉग “ चर्चा पान की दुकान पर “ क्या चिंतन  प्रस्तुत किया जाये । जिन्हे इस चिंतन की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी उन्हे कोई चिंता ही नहीं थी और वे अपनी चिंता ललित जी को ट्रांसफर कर कहीं और चिंतन करने चले गये थे । सो ललित जी ने आज सुबह सुबह ही फोन किया कि शरद भाई ,मेरे सर से इस चिंता का बोझ उतारो और आपके रेडीमेड स्टॉक में से कोई कविता ब्लॉग पर लगा दो । इस तरह से अपनी चिंता मुझ पर डाल कर वे निश्चिंत हो गये और इस चिंता को लेकर मेरा चिंतन शुरू हो गया ।
            अपने देश में चिंता और चिंतन की परम्परा सदा से  रही है । घर से लेकर देश और देश से लेकर विदेश तक यही चलता है । पत्नी ने रात को ही फरमान जारी कर दिया ,सुबह के लिये सब्ज़ी नही है । अब अपनी चिंता मेरे सर पर डालकर वे तो निश्चिंत होकर सो गईं ,हम जाग रहे हैं इस चिंता में कि सुबह होते ही सब्ज़ी लेने जाना है । दफ्तर में देखिये वहाँ भी यही होता है 26 जनवरी को झंडा फहराना है बड़े साहब ने  छोटे साहब से कहा , छोटे साहब ने बड़े बाबू से और बड़े बाबू  चपरासी पर अपनी चिंता डालकर निश्चिंत हो कर सो गये। अब चपरासी लगा है यह देखने में कि झंडा धुला है या नहीं, झंडा बान्धने का डंडा ठीक है या नहीं ..जैसे वही एक अकेला हो संविधान का रखवाला । और फहराने और फोटो खिंचाने तक तो ठीक है बड़े साहब से लेकर छोटे तक सब आ जायेंगे लेकिन शाम को झंडा उतारते वक्त उसे अकेले ही आना होगा जबकि झंडा फहराना जितना महत्वपूर्ण काम है उतना ही महत्वपूर्ण है उसे उतारना । कवि रघुवीर  सहाय ने ऐसे ही लोगों के बारे में कहा है ... “राष्ट्रगीत में कौन भला वह भारत भाग्य विधाता है / फटा सुथन्ना पहने जिसके गुन हरचरना गाता है ।“ खैर अभी तो 26 जनवरी दूर है अभी से चिंता क्यों करें ।
            लेकिन यह भी होता है कि कई लोग ऐसी ऐसी चिंता में डूबे रहते हैं जिसका कोई अर्थ ही नहीं होता । अचानक कहीं किसी अखबार में छपता है .. फलाने महीने की फलानी तारीख को दुनिया खत्म । फिर टीवी चेनल भी राग अलापना शुरू कर देते हैं । आम आदमी हो या खास आदमी ..चिंतन शुरू । कोई कहता है यह जीवन तो पानी का बुलबुला है , जीवन् तो हवा का एक झोंका है । बबली जी अपनी कविता में कहती हैं " जीवन एक खेल है / सुख और दुख का मेल है "। कोई कहता है मनुष्य का जीवन तो क्षणभंगुर है , हमारी किताबों मे लिखा है कि एक दिन यह दुनिया नष्ट हो जायेगी ..सब कुछ खत्म हो जायेगा .. इसलिये पाप मत करो ..फिर दान धर्म .पूजा पाठ सब चालू हो जाता है । पान की दुकान वाले से लेकर प्रवचन करने वाले बाबाओं के चिंतन की सूची मे यह मुद्दा टॉप पर रहता है । फिर एक दिन आता है वह तारीख भी निकल जाती है और जितने भी पुण्य़ कमाने का उपदेश देने वाले होते है पुन: पाप कर्म में डूब जाते हैं ।
            चलिये यह चिंतन तो हो गया अब ललित भाई के आदेशानुसार कोई कविता ढूँढी जाये . लीजिये सभी लोगों ने जीवन के बारे में चिंतन किया तो हम भी कर लेते है , एक परिभाषा कभी रची थी इस जीवन की ..कि यह जीवन है जिसकी कोई परिभाषा नहीं , सो प्रस्तुत कर रहे हैं...
और जीवन भी कोई गोलगप्पा नहीं 
जिसे आप पुदीने की चटनी मिले जलजीरे में डुबोये
और परम संतृप्तता के भाव में गप से खा जाये
अपनी अजीब अजीब परिभाषाओं में जीवित है यह 
जीने की उत्सुकता और सम्भावनाओं से भरा जीवन

अपनी 53 पेज की लम्बी कविता “पुरातत्ववेत्ता “से उद्धृत इस अंश के साथ दुनिया की चिंता आप पर सौंपता हूँ और आपसे विदा लेता हूँ । फिर मुलाकात होगी । 
आपका - शरद कोकास 

18 टिप्पणियाँ:

Khushdeep Sehgal 3 नवंबर 2009 को 2:09 pm बजे  

शरद भाई,

आजकल मैनेजमेंट का एक ब्रह्मवाक्य है...टेंशन लेने का नहीं, टेंशन देने का है...इसलिए खुद चिंता करने की जगह चिंता पर ही अपने राम की चिंता करना छोड़ देना चाहिए...चिंता को भी काम मिल जाएगा और अपना भी गुल्ली (आज की मेरी पोस्ट से समझ आ जाएगा) सीधा हो जाएगा...

जय हिंद...

Unknown 3 नवंबर 2009 को 2:23 pm बजे  

शरद भाई, आपके इस लेख ने तो चिंता में ही डाल दिया! :-)

ब्लॉ.ललित शर्मा 3 नवंबर 2009 को 3:01 pm बजे  

खामखाँ,हम भी लिपेटे मे आ गये-सूरमा भोपाली युँ ही कहते हैं,

पी.सी.गोदियाल "परचेत" 3 नवंबर 2009 को 3:07 pm बजे  

बिलकुल सही कहा :
हम हिन्दुस्तानियों के मैनेजमेंट का यही तो गुर है कि ;
काम का फिक्र करो,
फिक्र जा जिक्र करो,
मगर कुछ मत करो !!

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद 3 नवंबर 2009 को 3:07 pm बजे  

जहां चिंतन समाप्त होता है, चिंता शुरू हो जाती है...चिंतन तो आपने कर लिया और हमारी चिंता शुरू:)

Unknown 3 नवंबर 2009 को 3:13 pm बजे  

waah bhai saaheb.............

jiyo jiyo...............

kya baat hai !

mazaa aa gaya

din sudhar gaya aaj ka

__abhinandan aapka

rashmi ravija 3 नवंबर 2009 को 3:15 pm बजे  

यह पोस्ट पढ़कर इस चिंता में हूँ...आखिर ज़िन्दगी एक गोलगप्पे सी क्यूँ नहीं है...जिसे गप से खाकर संतृप्त हुआ जा सके.

शिवम् मिश्रा 3 नवंबर 2009 को 3:19 pm बजे  

ह्म्म्म्म्म्म..... अब तो चिंता करनी ही पड़ेगी !!!

परमजीत सिहँ बाली 3 नवंबर 2009 को 3:30 pm बजे  

पी.सी.गोदियाल जी ने सही कहा...

अजित गुप्ता का कोना 3 नवंबर 2009 को 5:50 pm बजे  

सुबह से यह पोस्‍ट बार-बार सामने आ जाती थी, लिखा रहता था कि गम्‍भीर चिंता करने वाले ही इसे पढ़े। तब नहीं पढ़ी, लेकिन शाम होते-होते चिंतन बढ़ने लगा, तो पढ़ बैठे। हमारी तो यही चिन्‍ता है कि कैसे अपनी पोस्‍ट पर रोज दीया जलवाएं और दूसरों की पोस्‍ट का बुझवाएं। सारा दिन इसी चिन्‍ता में निकल जाता है। अब इसे गम्‍भीर टाइप की चिन्‍ता माने या नहीं माने यह आप ही बताएं। हम तो सब चिंतित से रहते हैं।

Geetashree 3 नवंबर 2009 को 7:24 pm बजे  

ओह,,अब मुझे चिंता होने लगी है..आपका पोस्ट पढने के बाद..शरद जी..ये चिंता कौन है। साथ रहती है मगर काम नहीं आती।

अजय कुमार झा 3 नवंबर 2009 को 9:02 pm बजे  

ओईसे तो हमरे लिए बैन था ..मुदा आजकल नो एंट्री में घुसने से रुतबा बनता है ..सो घुस आए..और देखे तो..कल्लो बात ..ई चिंता और रेखा की बात हो रही है ..चिंता खुदे आजकल बहुते गोस्सा में रहती है..पूछे तो कह रही थी कि का करें..रेखा जी को देखो..जईसन हैं ओईसने हैं ..पता नहीं कबे से..एक हमई हैं तो चिंता से चिता हुए जाती हैं..बहुते चिंतन वाला बात है..बाद में चिंतन को मनन के साथ फ़ेंट कर जौन तत्व उपलब्ध होगा..उहे आप लोगन को निष्कर्ष स्वरूप बताया जाएगा..

अजय कुमार झा 3 नवंबर 2009 को 9:04 pm बजे  

हमरी टिप्पणी सहेज दी गई है ब्लौग स्वामी की स्वीकरिति के बाद दिखने लगेगा..

हे स्वामी चिंतन छोड के टीप को पढा जाए...

गिरिजेश राव, Girijesh Rao 3 नवंबर 2009 को 10:41 pm बजे  

चेतावनी थी, इसलिए आए भी, पढ़े भी और टिप्पणी भी लिख रहे हैं। अब बताइए मुझ अगम्भीर का क्या करेंगे?
देखिए चिता से आदमी चेता रहता है। जब चेतते चेतते थक जाता है तो आराम के लिए आँखें मूँदता है जिसको लोग चिंतन करना कहते हैं। ...इस परिभाषा पर मुझे कितने नम्बर मिलेंगे?

Urmi 4 नवंबर 2009 को 6:43 am बजे  

बहुत सुंदर लिखा है आपने शरद जी! बहुत बहुत शुक्रिया मेरी कविता की पंक्तियों को शामिल करने के लिए! चिंता तो हर इंसान करते हैं और एक चिंता दूर होते होते दूसरी चिंता शुरू हो जाती है इसी का नाम है ज़िन्दगी!

सदा 4 नवंबर 2009 को 10:52 am बजे  

बहुत ही अच्‍छा लेखा लिखा है आपने, बधाई ।

वाणी गीत 4 नवंबर 2009 को 10:53 am बजे  

खता मुआफ हो ...गंभीर चिंतन से दूर दूर तक नाता नहीं है ...चिंता चिता समान ... हमारा विश्वास तो इस पर है ....फिर भी इसे पढ़ लिया है ...मगर जब से इसे पढ़ा है ...चिंतन प्रक्रिया प्रारंभ हो गयी है ...
अपनी अजीब अजीब परिभाषाओं में जीवित है यह
जीने की उत्सुकता और सम्भावनाओं से भरा जीवन ।
बहुत सटीक पंक्तियाँ ...!!

RAJ SINH 9 नवंबर 2009 को 5:44 am बजे  

bhayee mere,

hamne chintan karna chhod diya hai . bhayee log manhooson me shumar kar chuke .

pan to naheen khata par dukaan achchee lagtee hai !