मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

डंडा मेरा निराला

गिरीश पंकज 
पुलिसवाला डंडा घुमाते हुए पान ठेले की ओर ही चला आ रहा था और यह गीत भी गुनगुना रहा था-
डंडा मेरा निराला, जब भी इसे उछाला। है कोई बचने वाला?
ले ले डंडा, ले ले,ले ले डंडा ले ले...
आखिर वह ठेले तक  आ ही गया. उसे देख कर सज्जन टाईप के लोग पतली गली से खिसक लिए और दुर्जन किस्म के लोग डटे रहे. लोग कहते है कि उनसे बड़ा याराना था. जो भी हो. सज्जन भाग गए. कुछ लोगों से तो खुदा भी डरता है न . (अब खुदा किनसे डरता है, यह एक पहेली है. जो सही उत्तर देगा, उसे आकर्षक इनाम मिलेगा-''ललित डाट काम'' की ओर से...अभनपुर का शानदार पान ) तो पुलिस वाला अतिरिक्त उत्साह में नज़र आ रहा था। मैं समझ गया कि या तो उसे आज कुछ अधिक हफ्ता मिल गया होगा या फिर किसी का सिर फोड़ कर आ रहा होगा। जाने कितने मनुष्यों का रक्त पी चुके डंडे से मैंने खुद को बचाया, फिर पुलिसवाले से कहा-
''भाईजी, आप पुलिस हैं या कसाई जी?''
उसने मुझे कुछ इस अंदाज में घूरा, गोया भस्म कर देगा। कोई और होता तो शायद डर जाता, लेकिन हम ठहरे फक्कडऱाम। मर-मिटने पर आमादा। सो डरने का तो स्वाल ही नहीं था।
मैंने कहा-''घूरो मत। जो लोगों को घूरते हैं, वे एक दिन घूरे में मिल जाते हैं। पुलिस वाला नार्मल हुआ, लेकिन चेहरे पर नाराजगी साफ झलक रही थी। वह बोला-''तुमने मुझे कसाई कहा। यह तौहीन है।''
मैंने पूछा- ''किसकी तौहीन, कसाई की?''
वह बोला -''नहीं, मेरी तौहीन है। वर्दी की तौहीन है। डंडे की तौहीन है।''
मैंने कहा-''ऐसे काम ही क्यों करना, कि तौहीन हो। काम ऐसे करो कि वर्दी की शान बढ़े। तुम तो डंडे को सिरफोड़ू बता कर उसका ऐसा गुणगान कर रहे हो, जैसे डंडा न हुआ, सारे मर्ज की दवा हो गई?'' 
सिपाही हँसा- ''यह सारे मर्जों की दवा तो नहीं, लेकिन कुछ मर्जों की दवा तो जरूर है।''
मैंने पूछा-''जैसे?''
सिपाही ने कहा-''देखो, सड़कों पर जो लोग सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते हैं, उनको डंडे से हकाल कर मैं सरकार की मदद करता हूँ। यह कितनी बड़ी बात है।''
मैंने कहा - ''सेवा करते हो कि परेशान करते हो? लोकतंत्र में लोग क्या प्रदर्शन भी नहीं कर सकते?''
वह बोला -''प्रदर्शन तो कर सकते हैं, लेकिन सरकार के खिलाफ नहीं। प्रदर्शन का शौक चर्राया है तो दहेज के खिलाफ प्रदर्शन करो, टोनही प्रथा के खिलाफ करो, प्रदूषण के खिलाफ करो। खूब करो, हम भी सहयोग करेंगे, लेकिन अगर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया तो हमारा डंडा ठुकाई करने लगता है। हमको यही सिखाया गया है। आजादी के पहले हमारा डंडा यही करता था, और आज़ादी के बाद भी वही काम कर रहा है। सिपाही की साफगोई ने दिल खुश कर दिया।''
मैंने पान चबाते हुए कहा - ''तुम बहुत जल्दी तरक्की पाओगे।''
सिपाही मुझ फिर घूरने लगा। वह मेरी बातों में व्यंग्य देख रहा था, जबकि मैंने परिहास किया था। थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद सिपाही ने कहा- ''देखो, हम डंडास्वामी हैं। हम पर व्यंग्य करो,हास्य करो, कोई फर्क नहीं पड़ता। हम लोग हुकुम के गुलाम है। हम केवल डंडा चलाते हैं। जिस दल की सरकार रहती है, उसके लोगों को छोड़ कर हम सबको  अपने डंडे पर रखते हैं। क्योंकि नौकरी बचानी होती है। तुम किस दल के हो?''
मैंने कहा- ''जिस दल की सरकार है।''
सिपाही तो गदगद  हो गया। उसने सैल्यूट मारते हुए कहा-''आप तो बड़े काम के हैं सर। अगर सरकार के अंदर तक आपकी घुसपैठ हो तो एक काम बताऊं? जो चाहेंगे, सेवा कर दूँगा।मेरी ओर से एक पान हो जाये.''
मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा-अभी मेरा इतना पतन नहीं हुआ है, कि तुमसे पान खाऊँ.
सिपाही का डंडा मचलने लगा. मैंने सोच, अब गया मेरा सर, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उसने पान वाले को हमेशा की तरह आश्वासन दिया-''कल दूंगा पैसे'', फिर तोंद पर हाथ फिराते हुए आगे बढ़ गया. सिपाही गया तो कुछ लोग फिर आ कर ठेले पर डट गए. एक बोला-''मैं सिपाही और सांप दोनों से बच कर चलता हूँ.''
दूसरा बोला-'' पुलिस वाले इतने बुरे भी नहीं होते.''
पहला बोला-''इतने सज्जन भी नहीं होते''
पान वाला घबराया, बोला-भैये,  मुझे धंधा करने दो. पुलिस कि आलोचना यहाँ मत करो, वर्ना कल ठेला उठ जायेगा, प्लीज''
सब खामोश हो गए और रामप्यारी के हुस्न की  चर्चा में मशगूल हो गए.
मै सोचने लगा, ये पापी पेट भी अजीब है। जैसे ही मेरी (नकली)असलियत पता चली, सिपाही का डंडा ठंडा पड़ गया। मुझे अचानक लगा कि अब निकल लेना चाहिये क्योंकि अगर सिपाही को बाद में पता चल गया कि मैंने सत्तावाले दल का कार्यकर्ता नहीं हूँ, तो किसी न किसी धारा के तहत मुझे अंदर तो करवा ही देगा।
मैंने फौरन अपनी राह पकड़ ली.

8 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari 27 अक्तूबर 2009 को 5:57 am बजे  

पहेली का जबाब: नंगो से!!


आजकल एक वर्ग और जुड़ गया है इसमें: हिन्दी ब्लॉगरों से. :)

Udan Tashtari 27 अक्तूबर 2009 को 5:58 am बजे  

आपने सही किया जो कट लिये. :)

ब्लॉ.ललित शर्मा 27 अक्तूबर 2009 को 7:04 am बजे  

(अब खुदा किनसे डरता है, यह एक पहेली है. जो सही उत्तर देगा, उसे आकर्षक इनाम मिलेगा-''ललित डाट काम'' की ओर से...अभनपुर का शानदार पान )
गिरीश भैया खालिस चूना लगाउंगा पान मे-कत्था और गुलकंद नही रहेगा-घर से आधा किलो घी पी के आना पड़ेगा-ऐसा पान एक दिन उस डन्डे वाले पुलिस वाले को खिलाया था-आज तक हफ़्ता लेने नही आया है,-बहुत ही उम्दा व्यग्य-सनद रहे- कल जिन्न ने कुछ बाकी काम किया था,

girish pankaj 27 अक्तूबर 2009 को 10:35 am बजे  

पान की दूकान चल पड़ेगी, लगता है. इस बहाने एक किताब ही बन जायेगी.. कोशिश रहेगी कि सिलसिला जारी रहे. जिन्न प्रेरित करता रहे. जिन्न अपना संशोधन करने का पावन काम भी रात को आकर चुपचाप करता रहे, क्योकि मै इतनी तेजी से लिखता हूँ कि, अपनी अशुद्धियों को दुबारा देखने के बावजूद पकड़ नहीं पता. खैर...

Mishra Pankaj 27 अक्तूबर 2009 को 10:55 am बजे  

वाह जी वाह आप सब लोग जब यहाँ हो तो तकलीफ क्या है

शिवम् मिश्रा 27 अक्तूबर 2009 को 11:14 am बजे  

''प्रदर्शन तो कर सकते हैं, लेकिन सरकार के खिलाफ नहीं। प्रदर्शन का शौक चर्राया है तो दहेज के खिलाफ प्रदर्शन करो, टोनही प्रथा के खिलाफ करो, प्रदूषण के खिलाफ करो। खूब करो, हम भी सहयोग करेंगे, लेकिन अगर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया तो हमारा डंडा ठुकाई करने लगता है। हमको यही सिखाया गया है। आजादी के पहले हमारा डंडा यही करता था, और आज़ादी के बाद भी वही काम कर रहा है।"



एकदम सत्य है यह - यही हो भी रहा है आज देश में !

ब्लॉ.ललित शर्मा 27 अक्तूबर 2009 को 11:15 am बजे  

समीर भाई समझदार आदमी का काम यही है"काट सके तो काट ले नही तो कट ले"

ब्लॉ.ललित शर्मा 27 अक्तूबर 2009 को 11:17 am बजे  

गिरीश भैया "टाईटिल" दे रहा हुँ,
"पान खईले राजा दुलरु जवान पान खईले"